रोज़गार की तलाश में मां-बाप से कोसों दूर जा रहे हैं बच्चे
रोज़गार की तलाश में मां-बाप से कोसों दूर जा रहे हैं बच्चे

1 अक्तूबर, अन्तर्राष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस | 1 October, International Senior Citizen's Day
1983 में बुजुर्गों की समस्या (Problem of the elderly) को लेकर राजेश खन्ना और शबाना आज़मी अभिनीत हिन्दी सिनेमा की एक फिल्म आई थी अवतार। उसके ठीक दो दशक बाद 2003 में अमिताभ और हेमामालिनी को लेकर फिल्म बागबान बनी। दोनों फिल्मों की पृष्ठभूमि लगभग समान थी। फर्क सिर्फ इतना था कि फिल्म अवतार में बच्चे मां-बाप दोनों से किनारा कर लेते हैं और बागबान में मां-बाप का बंटवारा किया जाता है। दोनों फिल्मों का अन्त सुखद दिखाया गया है क्योंकि दोनों फिल्मों के बुजुर्ग नायक-नायिकाएं अपनी मेहनत और हौसले से खुद को पुर्नस्थापित कर पाने में सफल होते हैं। लेकिन ऐसा सुखद अन्त वास्तविक जीवन में हो पाना संभव नहीं है।
International Day for Older Persons, International Day of Older Persons 1 October,
21वीं सदी में विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ जीवन स्तर बढ़ा है, स्वास्थ्य के क्षेत्र में नये शोध होने से बीमारियों के इलाज संभव हो रहे हैं, स्वास्थ्य सेवाओें में विस्तार हो रहा है, शिक्षा और जागरुकता के कारण खानपान में संतुलन और पोषण शामिल हुआ है, औसत आयु में भी वृद्धि हुई है। भारत का ही उदाहरण लें तो 1940 में यहां औसत आयु 41 साल के करीब थी जो अब बढ़कर 66 साल से ऊपर चली गई है। संयुक्त राष्ट्र और हैल्प एज इंडिया का 2012 के सर्वे का आंकड़ा कहता है कि भारत में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 9 करोड़ के करीब थी जो 2026 तक 17 करोड़ से ऊपर निकल जाएगी। मगर औसत उम्र बढ़ने से बुढ़ापे की चुनौतियां भी बढ़ी हैं। 1 अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस हमें उन चुनौतियों और समस्याओं पर चिंतन करने का मौका देता है।
बुढ़ापा उम्र का वह पड़ाव है जो हर तरह से काफी संवेदनशील होता है। शरीर में ताकत कम हो जाती है। शरीर को कई बीमारियां घेर लेती हैं। शरीर का हर अंग कमज़ोर पड़ने लगता है। गुर्दे, जिगर, फेफड़े, की काम करने की ताकत कम हो जाती है। जोड़ों का दर्द सताता है। मुंह में दांत नहीं रहते, देखने-सुनने की क्षमता कम हो जाती है। याद्दाश्त कमज़ोर पड़ने लगती है। शारीरिक कमज़ोरी के साथ-साथ इंसान ज्यादा संवेदनशील हो जाता है। सहनशक्ति भी कम हो जाती है। आर्थिक रूप से भी वह कमज़ोर हो जाता है। यह वक्त है जब उसे अपनों की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है और यही वक्त है जब वह सबसे ज्यादा अकेलेपन का शिकार होता है।
याद रहे कि यह पूंजीवाद का वह दौर है जिसमें एक तरफ से व्यक्तिवाद चरम पर जा रहा है और दूसरी ओर रोज़गार की तलाश में बच्चे मां-बाप से कोसों दूर जा रहे हैं। उनके पास इतना भी वक्त नहीं है कि वे अपने बुजुर्गों की सम्भाल भी कर सकें। वैसे भी इस दौर में सम्पत्ति और जायदाद के रिश्तों ने जितनी कड़वाहट संतान और अभिभावकों के बीच पैदा की है वह काफी चिंतनीय है। मारपीट, घर से निकालने, घर पर नज़रबन्द करने से लेकर हत्या तक की घटनाएं सामने आ रही है। हाल ही में हिमाचल में इसी तरह की घटना घटी जहां सम्पत्ति के विवाद को लेकर पुत्र ने पिता की हत्या कर दी।
अब उन कहावतों के ज़माने हवा हुए जब कहा जाता था कि ‘सयाणे को तो ढोल में मढ़कर भी साथ ले जाना चाहिए।’ अब तो न बुजुर्गों की बात सुनने का और न ही उनके पास बैठने का किसी के पास वक्त है।
आज हमारे बुज़ुर्गों की स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि जब उन्हें देखभाल और सहारे की सबसे ज्यादा ज़रूरत है उस वक्त उन्हें एकाकीपन से जूझना पड़ता है। परिवार वालों, रिश्तेदार या पहचान वालों के पास उनकी बात सुनने या उनकी देखभाल के लिए ज़रा सा भी वक्त नहीं है। भले ही उनके मरने के बाद उनके सिरहाने रोने के लिए पर्याप्त वक्त निकल आता है। संस्कारों और क्रियाकर्म की रस्में करने के लिए भी लोग वक्त निकाल लेते हैं। बीमार बुजुर्ग को अस्पताल ले जाने के लिए जिनके पास समय नहीं होता वे मृतक की अस्थियां हरिद्वार में बहाने के लिए कई-कई दिन निकाल लेते हैं। मरने वाले की याद में सुनाए जाने वाले गरूड़ पुराण सुनने के लिए पूरा-पूरा दिन या हफ्ता निकालने में भी व्यस्तता आड़े नहीं जाती।
त्रासदी यह भी है कि जीवनभर माता-पिता अपने बच्चों की जि़न्दगी को बनाने के लिए सारा समय बिता देते हैं, आपस में एक-दूसरे के लिए भी चैन के पल नहीं निकाल पाते और जब वक्त होता है तो हंसों का वह जोड़ा ही बिछड़ जाता है। कभी पुरुष तो कभी महिला साथी साथ छोड़ जाती है।
बुजु़र्गों की इस स्थिति के मद्देनज़र भारत सरकार ने 2007 में वरिष्ठ नागरिक अधिनियम भी बनाया ताकि बुढ़ापे में उन्हें सुरक्षा प्रदान की जा सके।
Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007 (मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटीजन एक्ट, 2007), में प्रावधान किए गए हैं कि ऐसे माता-पिता जो अपनी आय अथवा अपनी संपत्ति की आय से अपना खर्च उठाने में असक्षम हैं वे अपने वयस्क बच्चों से अपने रखरखाव के लिए आवेदन कर सकते हैं। रखरखाव में उचित भोजन, आवास, कपड़े और चिकित्सा उपचार का व्यय शामिल है। माता-पिता में जैविक गोद लिए गए और सौतेले माता-पिता शामिल हैं, चाहे वे वरिष्ठ नागरिक हो या नहीं। संतानहीन वरिष्ठ नागरिक जो 60 वर्ष या इससे अधिक हैं वे भी अपने रिश्तेदारों से रखरखाव का दावा कर सकते हैं, जो उनकी संपत्ति पर कब्जा़ रखते हैं या बाद में इसकी संभावना है। रखरखाव के लिए यह आवेदन वरिष्ठ नागरिक द्वारा स्वयं अथवा उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति या स्वयंसेवी संगठन द्वारा किया जा सकता है। ट्रिब्यूनल द्वारा इस पर अपने आप कार्रवाई की जा सकती है। ट्रिब्यूनल में ये आवेदन प्राप्त होने पर बच्चों/रिश्तेदारों के खिलाफ एक छानबीन या आदेश दिया जा सकता है कि वे अपने माता-पिता या वरिष्ठ नागरिकों के रखरखाव के लिए एक अंतरिम मासिक भत्ता प्रदान करें।
यदि ट्रिब्यूनल इस बात से संतुष्ट है कि बच्चों या रिश्तेदारों ने अपने माता-पिता या वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल से इंकार किया है या इसकी उपेक्षा की है तो वे प्रतिमाह अधिकतम 10,000 रुपये की राशि का मासिक रखरखाव भत्ता देने का आदेश देंगे। राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक उप संभाग में ऐसे एक या एक से अधिक ट्रिब्यूनल की स्थापना की आवश्यकता होती है। यह प्रत्येक जिले में अपीलीय ट्रिब्यूनल गठित करेगा जो ट्रिब्यूनल के निर्णय के विरुद्ध वरिष्ठ नागरिकों की अपील की सुनवाई करेगा।
इस प्रक्रिया के लिए किसी पेशेवर कानूनी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होगी। दोषी व्यक्ति को 3 माह की कैद या 5000 रुपये का जुर्माना अथवा दोनों का दण्ड दिया जा सकता है। लाभार्थियों के लिए कम से कम एक वृद्धाश्रम की स्थापना की जाए। इन घरों में वरिष्ठ नागरिकों को न्यूनतम सुविधाएं जैसे भोजन, कपड़े और मनोरंजन की गतिविधियां प्रदान की जाए। सभी सरकारी अस्पतालों या सरकार द्वारा निधिकृत अस्पतालों में जहां तक संभव हो वरिष्ठ नागरिकों को बिस्तर प्रदान किए जाने चाहिए। चिकित्सा सुविधाओं में इनके लिए विशेष कतार की व्यवस्था भी होनी चाहिए।
कानून तो हमारे देश में कितने ही बने हैं मगर उन पर अमल कितना होता है यह हम आप सब के सामने है।
कुछेक लोगों की बात छोड़ दें या शहरी आबादी को छोड़कर बाकी गरीब, कम जागरूक या ग्रामीण आबादी में कितने फीसदी लोग होंगे जो कानून के सहारे अपना हक हासिल कर सकेंगे। न्याय पाना तो एक तरफ रहा, गरीब आदमी तो कोट कचहरी का नाम सुनते ही घबरा जाता है।
एक समय सरकारी कर्मचारियों को पेंशन के रूप में सामाजिक सुरक्षा हुआ करती थी और न रहने पर उसके जीवनसाथी को भी यह लाभ मिलता था, स्वास्थ्य खर्चे की वापसी का प्रवधान भी काफी मददगार सिद्ध होता था। ज़िंदगी भर की बचत भी आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मविश्वास देती थी। मगर नई पीढ़ी की तो नौकरी तक की गारंटी नहीं है, पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा तो दूर की बात है। अंशकालिक और अनुबंध में नौकरी पाने वालों के सामने तो अभी अपने अस्तित्व का भी बड़ा सवाल है।
ऐसे में चुनौती यह भी है कि हम अपनी संवेदनाओं को कैसे जि़ंदा रख पाएं और अपने बड़ों का ऋण कैसे चुका पाएं। यह सिर्फ इसी व्यस्क पीढ़ी के लिए ही चिंता का विषय नहीं है बल्कि आज की जवान पीढ़ी जब तक बुढ़ापे की दहलीज़ पर कदम रखेगी और पूंजीवाद और व्यक्तिवाद काफी आगे बढ़ चुका होगा उस समय अगर सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता न हुई और दूसरी सेवाओं की तरह सरकार अपना हाथ पीछे खींच ले तो वृद्धावस्था तक पहुंचने की कामना शायद ही कोई करे। 1 अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस में ऐसे अनुत्तरित सवाल हमारे सामने हैं। लेकिन नौजवान पीढ़ी ये न भूलें कि उन्हें जो विरासत में मिला वह हमारे बुजुर्गों की मेहनत थी। हम जिन चीज़ों का उपभोग कर रहे हैं वे भी हमारे बुजुर्गों की कमाई है। हमें जो इज्ज़त-मान मिल रहा है वह हमारे बुजुर्गों के काम और व्यवहार से ही मिल रहा है। बुजुर्ग सामाजिक पूंजी है। हमें तो उनका ऋणी होना चाहिए। इसलिए हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक जि़म्मेदारी भी है कि हम अपने बुजुर्गों का ख्याल रखें। हम अगली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं यह तो भविष्य तय करेगा।
जीयानन्द शर्मा
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