रोहित वेमुला : दलित मरता है तो यह व्यवस्था मज़बूत होती है
रोहित वेमुला : दलित मरता है तो यह व्यवस्था मज़बूत होती है
दलित मरेगा नहीं तो यह व्यवस्था ज़िंदा नहीं रह सकती
महेश कुमार
रोहित वेमुला ने जब मौत को गले लगाया तो क्या कोई यह उम्मीद कर सकता था कि देश की मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति इरानी साहिबा इस मौत को दलितों के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता से दूर करने की कोशिश करेंगी। भाजपा के नेता इस मौत का कारण अवसाद बताएँगे, या उसके दलित होने पर ही प्रश्नचिन्ह लगायेंगे।
भाजपा और संघ के नेताओं ने तो पूरे विपक्ष और छात्र संगठनों पर यह तोहमत लगा दी कि वे रोहित की मौत को जातीय टकराव में परिवर्तित करना चाहते हैं। हम सब जानते हैं कि वे ऐसा कर दलितों पर भाजपा और संघ के नेताओं द्वारा किये जा रहे हमलों से अपने आपको बचाने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। उनके झूठ अब पूरी तरह से मीडिया और जनता के सामने आ चुके हैं और पूरे देश का छात्र आन्दोलन भाजपा और संघ के विरुद्ध लामबंद होने लगा है।
भाजपा और संघ का दलित विरोधी चेहरा बेनकाब
मानव संसाधन मंत्रालय से चार-चार पत्र विश्वविद्यालय को लिखे गए हैं ताकि वे रोहित और उनके दोस्तों को विश्वविद्यालय से बाहर करवा सकें। बंडारु दत्तात्रेय का एबीवीपी को समर्थन करना और रोहित वेमुला व उसके दोस्तों तथा अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन को राष्ट्रविरोधी करार देकर उनके खिलाफ मानव संसाधन विकास मंत्रालय से कार्यवाही की मांग करना और अंतत उन्हें निलंबित करवा देना अपने आप में गंभीर मसला है। भाजपा-संघ के नेताओं की यह कार्यवाही पूर्णतया दलित विरोधी है। उनकी इन कार्यवाहियों और झूठी बयानबाजी से भाजपा और संघ का दलित विरोधी चेहरा बेनकाब हो गया है।
रोहित वेमुला ने मरकर इस व्यवस्था को जीवित रहने का मौक़ा दे दिया है
भाजपा और संघ के नेताओं के दबाव और विश्वविधालय के दलित विरोधी फैसले ने रोहित वेमुला को मौत को गले लगाने पर मजबूर कर दिया और उसने मरकर इस व्यवस्था को जीवित रहने का मौक़ा दे दिया है। दलित मरेगा नहीं तो यह व्यवस्था ज़िंदा नहीं रह सकती है। उसने मर कर फिर इस व्यवस्था को मज़बूत बना दिया है। उन लोगो के लिए रास्ता छोड़ दिया है जो लोग उसे इस व्यवस्था में रोहित को एक बड़ी रुकावट मान रहे थे और रोहित से घबराए हुए थे। रोहित इस व्यवस्था पर सवाल उठाता था। वह व्यवस्था जो बचपन से ही जातीय और साम्प्रदायिक भेदभाव के आधार पर चलती है। न जाने कितने रोहित इस व्यवस्था में पैदा होते हैं और वे किसी न किसी जातीय सामंत के हाथों बलि चढ़ जाते हैं। समाज में दलितों को बड़ी ही घृणा से देखा जाता है और अगर दलित पढ़ा-लिखा और राजनीतिक-सामाजिक रूप से जागरूक हो तो वह इस व्यवस्था के लिए और भी बड़ा ख़तरा साबित हो सकता है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर को भी कठोर जातीय घृणा और भेदभाव का शिकार होना पडा था। कोई दलित गीता या रामायण के श्लोक न सुन सके, इसलिए उसके कान में पिघलता हुआ शीशा डलवा दिया जाता था। संघ जिस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को आज तक जीवित रखे हुए है, वह दलितों को शिक्षा और ज्ञान से वंचित रखना चाहती है और इसलिए वे दलितों के खिलाफ हैं क्योंकि उन्हें यह पता है अगर दलित शिक्षित होता है तो सबसे बड़ा खतरा उनकी बनायी जातीय व्यवस्था को ही है। यह वजह थी कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर दलितों के शिक्षित होने और उन्हें संगठित रहने पर ख़ासा जोर देते थे।
बढ़ते हमले दलितों पर
हैदराबाद विश्वविद्यालय में जो हुआ वह कितने ही रूपों में देश के विभिन्न हिस्सों में घट रहा है। देश में दलितों का शिक्षा लेना और वह भी उच्च शिक्षा में प्रवेश करने का आंकड़ा कुछ अच्छा नहीं है लेकिन किसी तरह कुछ तबका अगर उच्च शिक्षा में पहुँच जाता भी है तो उसके लिए उसे कई प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है। देश के सभी सार्वजनिक शैक्षणिक संस्थान, चाहे वे आईआईटी हों, एआईआईएमएस हो, या फिर देश के विभिन्न विश्वविद्यालय हों, वहाँ उनके साथ अनर्गल घटनाओं का घटना आम बात है। ऐसी कितनी ही घटनाएं घटी हैं जब दलित छात्रों को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा पास करने पर दबंगों या उच्च जातियों के लोगों ने उनके घरों पर पथराव कर दिया। यही नहीं अभी दो दिन पहले राजस्थान में एक दलित युवा को सवर्ण जातियों ने शादी के लिए घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया। पूरे देश में इस तरह की घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ या उनसे जुड़े नेता या फिर देश के जागरूक तबकों के लिए ये कोई आंदोलित करने वाली घटनाएं नही हैं। यही वजह है कि बावजूद इसके कि जातीय आधार पर हिंसा और भेदभाव में बढ़ोतरी हो रही है, उसके विरुद्ध कोई ठोस आन्दोलन शक्ल नहीं ले पाता है।
रोहित वेमुला ने वाईस-चांसलर को लिखे अपने पत्र में कहा कि दाखिले के वक्त ही सभी दलित छात्रों को 10 मिलीग्राम सोडियम दे दें ताकि जब भी उनका अम्बेडकर को पढ़ने का मन करे तो वे उसका सेवन कर सके। साथ ही आप अपने प्रिय मुख्य वार्डन के जरिए हर दलित के कमरे में एक मज़बूत रस्सी भी दे दें और “यूथेनेसिया” कि सहूलियत भी उन्हें दे दी जाए ताकि वे अपने आपको ख़त्म कर सकें।
आखिर एक दलित छात्र को इस हद व्यवस्था से नाराज़गी क्यों है?
रोहित वेमुला के इस पत्र के बाद भी विश्वविद्यालय ने बिगड़ते हालात का कोई जायज़ा नहीं लिया। ऐसा नहीं लगता कि उन्हें बिगड़ते हालात का पता नहीं था, चूँकि दलित छात्रों का सवाल था इसलिए उन्होंने इसे नज़रंदाज़ करना बेहतर समझा। मानसिकता तो वही थी जिसके तहत उसे निकला गया था कि दलितों को सुनने कि जरूरत क्या है।
दलित की आवाज़ को न सुनने के दर्द को सीने में लिए रोहित लिखते हैं... जब आप ये पत्र पढ़ेंगे तब मैं जिंदा नहीं रहूंगा। गुस्सा मत होइएगा। मैं जानता हूं आप में से कुछ लोग मेरी बहुत चिंता करते हैं, मुझे बहुत प्यार करते हैं और मुझसे बहुत अच्छा बर्ताव करते हैं। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। समस्या हमेशा मेरे साथ ही रही। मेरे शरीर और मेरी आत्मा के बीच फासला बढ़ता जा रहा है और इससे मैं एक शैतान बन रहा हूं। मैं हमेशा से एक लेखक बनना चाहता था। विज्ञान का लेखक, कार्ल सेगन की तरह। कम से कम मुझे ये पत्र तो लिखने को मिल रहा है। मुझे विज्ञान, सितारों और प्रकृति से प्यार रहा, लेकिन इसके बाद मुझे इंसानों से भी प्यार हो गया, ये जाने बिना कि इंसानों का इन सब चीजों से बहुत पहले ही नाता टूट चुका है।
वो विज्ञान का लेखक इसलिए बनना चाहता था ताकि आम आदमी से जुड़ी, दुनिया से जुड़ी सभी गतिविधियों को विज्ञान के मुताबिक़ समझा जा सके। समाज को विज्ञान के प्रति जागरूक बनाया जा सके, ताकि इंसान किसी दूसरे इंसान को उसकी जातीय पहचान से न जाने। हर इंसान एक-दूसरे को उसके गुणों के ज़रिए पहचाने। दुनिया और कुदरत कैसे बनी, विज्ञान का इसको समझने में कितना योगदान हो सकता है, इसका रोहित को अच्छा-ख़ासा एहसास था और इसके लिए ही वो विज्ञान का लेखक बनना चाहता था ताकि समाज को अंध-विश्वासों से निकाला जा सके।
फिर रोहित लिखता है.....
मैं पहली बार इस तरह का पत्र लिख रहा हूं। एक अंतिम पत्र का पहला मौका। अगर मैं बात समझाने में विफल रहूं तो माफ़ करिएगा। शायद मैं दुनिया को, प्यार, दर्द, जीवन, मौत को समझने में असफल रहा। कोई जल्दी नहीं थी, मगर मैं न जाने क्यों भाग रहा था। मैं एक नया जीवन शुरू करने के लिए काफी तत्पर था। कुछ लोगों के लिए जीवन ही एक श्राप होता है। मेरे लिए तो मेरा जन्म लेना ही हादसा था। मैं दु:खी नहीं हूं, उदास नहीं हूं। मैं सिर्फ ख़ाली हूं। मुझे अपनी चिंता नहीं है। इसीलिए मैं ये कर रहा हूं।
फिर वह अपने जन्म और जीवन के बारे में लिखता है। जिसमें वह कहता है कि “वह इस दुनिया को समझ नहीं पाया है। में तो एक नया जीवन शुरू करने कि कोशिश में था लेकिन मेरा जन्म लेना ही हादसा था”। चूँकि वह एक दलित परिवार में पैदा हुआ और यह उसके जीवन के लिए एक बड़ा हादसा बन गया। बचपन से लेकर और अब उच्च शिक्षा के पायदान पर पहुँचाने के बाद भी उसके साथ समाज में वैसे ही व्यवहार किया जा रहा है जो रोहित को नागवार गुजरा।
मीडिया और रोहित वेमुला -एक दलित मर गया और उसकी मौत के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है
रोहित वेमुला की मौत ने पूरे देश में सनसनी फैला दी है। कुछ चेनल को छोड़ दे तो कोई ख़ास गंभीर बहस नज़र नहीं आती है। रविश कुमार की एनडीटीवी पर रपट काबिल-ए-तारीफ़ है, लेकिन फिर भी इस पूरी बहस को मीडिया समझने में नाकाम रहा है और इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच पाया है। इसलिए स्मृति इरानी की बयानबाजी के पीछे छिपा वैचारिक हमला साफ़ तौर पर नज़र आता है। भाजपा नेताओं का जातिवादी चरित्र और दलित विरोधी चरित्र भी उजागर होता है। रोहित कि मौत के बाद सभी राजनैतिक पार्टियां इन्टरनेट पर हिट हो गयी और बारी-बारी से सभी ट्रेंड करने लगे। यानी रोहित ने मरकर मंदी के आगोश में जा रही न्यूज अर्थव्यवस्था को जीवित कर दिया और एक तरह से सब हित हो गए लेकिन एक दलित मर गया और उसकी मौत के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। आरोप-प्रत्योप चलेंगे और कुछ समय के बाद फिर कोई एजेंडा आ जाएगा।
क्या दलित हर व्यवस्था में मरेगा?
अगर वामपंथी तंजीमों को छोड़ दें तो कोई राजनैतिक तंजीमें हैं जो दलितों के मुद्दों को समझेंगी और इस व्यवस्था को बदलने का प्रयास करेंगी, नज़र नहीं आता है। हाल में जारी आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि दलितों पर अत्याचारों कि घटनाएं बढ़ रही हैं। इसलिए सवाल यह उठता है क्या दलित मुद्दे पर कोई राष्ट्रीय आन्दोलन संभव है? क्या देश में सामाजिक सुधार नहीं बल्कि दलित मुद्दों पर समाज को बदलने का राष्ट्रीय आन्दोलन संभव नहीं? मुझे लगता है यह संभव है – लेकिन इसके लिए वामपंथी और अम्बेडकरवादी आन्दोलनकारियों को साथ आकर लड़ना होगा ताकि देश में एक नयी लड़ाई का आगाज़ किया जा सके।
साभार- CPIM.org


