लालू-नीतीश ने रोका मोदी के हिंदुत्व का अश्वमेध का घोड़ा
लालू-नीतीश ने रोका मोदी के हिंदुत्व का अश्वमेध का घोड़ा
नतीजा भाजपा की राजनैतिक शैली पर भी सवाल खड़ा करता है तो मोदी की साख पर भी
अब इन नेताओं को सहिष्णुता का अर्थ भी समझ में आ गया होगा और दाल का भाव भी।
यह बिहार चुनाव का नतीजा है
अंबरीश कुमार
दिवाली तो दिल्ली के चौबीस अकबर रोड से शुरू होकर जंतर मंतर होते हुए देश के कई हिस्सों में आज ही शुरू हो गयी। सही कहा था मोदी ने इस बार बिहार दो-दो दिवाली मनायेगा। पर अब यह दिवाली महागठबंधन और जनता मनायेगी। बिहार में मोदी के हिंदुत्व का रथ लालू यादव और नीतीश ने रोक दिया। इसी बिहार में पच्चीस साल पहले लाल कृष्ण आडवाणी का रथ तब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रोका था। अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू यादव ने मोदी के उस अश्वमेध के घोड़े की लगाम पकड़ ली, जो करीब डेढ़ साल पहले सारे देश को जीत कर राज्यों की तरफ बढ़ रहा था।
बिहार का चुनाव कई लिहाज से महत्वपूर्ण था। विकास का एजंडा लेकर आगे बढ़ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने जाति से लेकर गाय तक के मुद्दे को लेकर अपना बयान दिया। हालांकि दिल्ली के चुनाव में भी मोदी की भाजपा को करारी हार मिली थी, पर दिल्ली में न विकास मुद्दा था और न ही यदुवंश या गाय। यह सब बिहार चुनाव का मुद्दा था। बिहार चुनाव के दौर में ही देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ साहित्यकार से लेकर फिल्म जगत के लोगों ने अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाने शुरू किये तो उनके खिलाफ भी माहौल बनाया गया। सोशल मीडिया तक में खिल्ली उड़ाई गयी। दादरी में जो हादसा हुआ उस पर न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुप्पी साधी बल्कि बिहार के चुनाव का प्रचार दादरी की बात से ही शुरू हुआ। हद तो तब हुई जब भाजपा ने बिहार चुनाव के अंतिम दौर में गाय को लेकर विज्ञापन तक जारी कर दिया गया। हर स्तर पर इस चुनाव को प्रभावित करने का प्रयास दिल्ली से हुआ।
मीडिया के एक तबके ने एग्जिट पोल के नाम पर जो भ्रम फैलाया, वह शर्मनाक था। लगातार यह प्रचार किया गया कि नीतीश को लालू यादव से अलग चुनाव लड़ना चाहिए। इसके लिए भी मीडिया में अभियान चलाया गया, ताकि यह महागठबंधन टूट जाये और लालू-नीतीश अलग हो जायें। मुलायम सिंह यादव ने तो ऐतिहासिक भूल करते हुए इस महागठबंधन से नाता भी तोड़ लिया। इस सबके बावजूद लालू-नीतीश ने अपना अभियान छोटी सभाओं के जरिये जारी रखा।
प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा चुनाव की तरह न सिर्फ आक्रामक अभियान चलाया बल्कि कई बार भाषा की लक्ष्मण रेखा भी लांघी। यह काम लालू यादव ने भी किया पर वह उनकी पुरानी राजनैतिक शैली है। लेकिन देश के प्रधानमंत्री से इस भाषा की उम्मीद किसी को नहीं थी। खासकर जिस तरह का हमला लालू यादव पर किया गया और आरक्षण के मुद्दे पर एक समुदाय का हवाला दिया गया। बाकी चाहे साध्वी प्राची, संगीत सोम हों या फिर गिरिराज सिंह, किसी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
भाजपा की सारी कोशिश जातीय और मजहबी गोलबंदी की थी। मोहन भागवत की आरक्षण को लेकर टिप्पणी हो या अन्य नेताओं की दादरी कांड को लेकर असहिष्णुता के बेतुके बयान हों, यह सब चुनाव जीतने के हथकंडे थे।
इस चुनाव में हर हथकंडा अपनाया गया। प्रधानमंत्री ने रिकॉर्ड तोड़ सभाएं कीं। पर जो नतीजा आया है वह भाजपा की राजनैतिक शैली पर भी सवाल खड़ा करता है तो मोदी की साख पर भी।
मोदी ने लोकसभा चुनाव में जो वादे किये उसमें ज्यादातर हवा में हैं। सबसे महत्वपूर्ण वादा था महंगाई दूर करने का। आज प्याज से लेकर दाल तक के दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसे में केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर सवाल तो उठना ही था। ऐसे सवालों से बचकर अगर अगड़ा-पिछड़ा या गाय-बछड़ा का मुद्दा उछाला जायेगा तो वह लोगों को रास नहीं आ सकता।
अगर देश में असहिष्णुता बढ़ेगी और सहिष्णुता मार्च निकाल कर उनके खिलाफ मोर्चेबंदी की जायेगी तो उसका जवाब भी जनता ही देगी। अब इन नेताओं को सहिष्णुता का अर्थ भी समझ में आ गया होगा और दाल का भाव भी। यह बिहार चुनाव का नतीजा है। आगे कई राज्यों के चुनाव हैं इससे सबक सीख लेना चाहिए।
“साप्ताहिक शुक्रवार”


