लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करता लालू नीतीश विवाद

Lalu Nitish controversy raises questions on democratic setup

वीरेन्द्र जैन

एक आम नागरिक को समझने में मुश्किल हो सकती है कि लालू नितीश विवाद से बिहार सरकार पर उठा संकट क्या वही है जो मीडिया में दिख रहा है या इसकी जड़ें कहीं और हैं?

बिहार में आज जो राजनीति है वह 1974 के जयप्रकाश नारायण द्वारा चलाये सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन की उपज है। लालू के नेतृत्व वाला राजद, नितीश के नेतृत्व वाला जेडीयू और सुशील मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ही प्रमुख दल हैं और तीनों के नेता कभी छात्र, युवा नेताओं के रूप में एक साथ हुआ करते थे। तीनों में कुछ कुछ समाजवादियों जैसी अच्छी बुरी आदतें विद्यमान हैं। बाद में भाजपा के प्रभाव वाले सुशील मोदी ने अपना मार्ग बदला तो नितीश और लालू मण्डल के प्रभाव में चेतन हुयीं पिछड़ी जातियों के प्रभाव वाले जनता दल में उभरे। इसके कुछ समय बाद देशी छवि, देशी बोली, और रोचक टिप्पणियां करने वाले लालू ने अपने क्रियाकलापों से मीडिया में ज्यादा जगह पायी और नितीश से बढ़त बना ली। महात्वाकांक्षी नितीश ने जार्ज फर्नांडीज के संरक्षण में अपना रास्ता अलग कर लिया।

देखा गया है कि इस तरह की तमाम पार्टियां चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करें किंतु मूलतः वे काँग्रेस ही होती हैं और सत्ता में आने के बाद वे वही कुछ करती हैं जिसके लिए कभी काँग्रेस को कोसा करती थीं।

लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने तो चारा घोटाला सामने आया। मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा तो अपनी राजनीतिक अनपढ पत्नी को मुख्यमंत्री बनवा कर परिवारबाद का भोंड़ा प्रदर्शन किया एवं दुर्दांत अपराधियों तक को पार्टी और सरकार में सम्मलित कर अपराध की दुनिया को वैधता दिलायी। वहीं दूसरी ओर रक्त की लकीर छोड़ कर आने वाले रथयात्री अडवाणी को गिरफ्तार करके धरमनिरपेक्षता के पक्ष में हिंसा का मुकाबला करने में आगे रहे व मुँहजोरी करने वालों से उन्हीं की भाषा और तौर तरीकों में मुकाबला भी करते रहे। हिन्दू गोलबन्दी में सबसे जुझारू पिछड़े वर्ग के बड़े हिस्से को सम्मिलित होने से रोक कर देशव्यापी सामाजिक पर अंकुश रखा।

नितीश कुमार ने अटलबिहारी की सरकार में सम्मलित होकर अपनी छवि पर सवाल खड़े होने दिये। दूसरी ओर राज्य में भाजपा के साथ सरकार बनायी और तब तक चलायी जब तक कि नरेन्द्र मोदी के साथ हाथ मिला कर खड़े होने वाला पोस्टर भाजपा ने जारी नहीं कर दिया। ऐसा पोस्टर चुनाव में नुकसान पहुँचा सकता था, वैसे नरेन्द्र मोदी से उन्हें बहुत ज्यादा शिकायत नहीं रही। अपने मुख्यमंत्री काल में उन्होंने अपने ऊपर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई कलंक नहीं लगने दिया, और छवि साफ बनाये रखी। जब विधानसभा चुनावों के दौरान उन्हें लालूप्रसाद से समझौता करना पड़ा तो उनकी छवि के बिगड़ने का सवाल ही पूछा गया था, किंतु लोकसभा चुनाव में हारने के बाद उनकी मजबूरी थी। भाजपा ने तो जीतन राम माँझी तक को समर्थन देकर नितीश के सारे अहसान भुला दिये थे। अरविन्द केजरीवाल भी उनके समर्थन में सरकारी कार्यक्रम का बहाना बना कर आये और लालू प्रसाद को दूर रखा।

आक्रामक भाजपा के प्रबन्धन से बचने के लिए जेडीयू, राजद को काँग्रेस को साथ लेकर मोर्चा बनाना पड़ा और चुनाव जीत कर साथ में सरकार बनाना पड़ी। संयोग से परिणाम ऐसे आये कि राजद की संख्या को सम्मलित किये बिना जेडीयू की सरकार नहीं बन सकती थी या उन्हें उस भाजपा से सहयोग करना पड़ता जिस पर अनेक आरोप लगा कर वे छोड़ चुके थे। सीटों की संख्या अधिक होने के बाद भी राजद के लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बनने से वंचित थे इसलिए अपने एक बेटे को उपमुख्यमंत्री और दूसरे को स्वास्थमंत्री बना कर ही वे नितीश मंत्रिमण्डल पर अपना वर्चस्व बनाये रख सकते थे। केन्द्र की भाजपा सरकार ने इसी स्थिति का लाभ लेते हुए ऐसी परिस्तिथि पैदा कर दी कि उपमुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने पर लालू के बेटे को हिरासत में लेकर पूछताछ भी हो सकती है। भले ही लालूजी ने औपचारिक कागजी कार्यवाही करके रखी हो किंतु प्रथम दृष्ट्या ही ऐसा लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। वे इसे राजनीतिक बदले की कार्यवाही बता रहे हैं, पर ऐसा होते हुए भी वह निराधार नहीं है।

अब अगर नितीश तेजस्वी को पद पर बनाये रखते हैं तो ईमानदारी की छवि की इकलौती पूंजी से हाथ धो बैठते हैं और लालूजी की सहमति के बिना हटा देने पर सरकार से हाथ धो बैठॆंगे। लालू इस विडम्बना का लाभ लेने की मानसिकता में हैं। दूसरा उपाय फिर से भाजपा की शरण में जाना है और इस समय ऐसा करके वे वह गुलामी स्वीकारेंगे जिससे भाजपा के पुराने पुराने लोग तक घबराये हुये हैं। यदि वे ऐसा करेंगे तो धरमनिरपेक्षता की बचीखुची छवि से हाथ धो बैठेंगे। राष्ट्रपति चुनाव में धरमनिरपेक्ष दलों के गठबन्धन का विरोध करके वे वैसे ही अपने साथियों की निगाह में खटक चुके हैं।

एक संभावना यह बनती है कि राजद के अस्सी में से साठ विधायक विद्रोह करके नितीश के साथ आ जायें या पूरी भाजपा दलबदल करके नितीश का समर्थन करे जो सम्भव नहीं है।

जिस आरोप में लालू को घेरा गया है वह राजनीतिक जगत में अनूठा नहीं है। भाजपा शासित प्रदेशों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे मंत्री भरे पड़े हैं पर जानबूझकर उनको संरक्षण दिया जा रहा है, भले ही यह किसी पर लगे आरोपों से बचत का उचित आधार नहीं है। लालू प्रसाद के विधायक भी उसी प्रणाली से जीत कर आये हैं जिससे नरेन्द्र मोदी आये हैं या प्रदेशबदर का दंश झेल चुके अमित शाह या येदुरप्पा या और सैकड़ों आते हैं। वसुन्धरा राजे और सुषमास्वराज पर ललित मोदी की मदद करने के भी इसी स्तर के आरोप हैं। भाजपा ने चुनाव में जो धन खर्च किया और जहाँ से व जैसे प्राप्त कर के किया वह बहुत छुपा नहीं है। पर ये सब संवैधानिक तरीके से चुन कर आते हैं और संख्या बल के आगे नैतिक मूल्यों की कोई गिनती नहीं होती। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, व महाराष्ट्र में खूंखार अपराधी निरंतर चुनाव जीतते जाते हैं और उन्हें चुनाव से वंचित करने से सम्बन्धित सवाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूछे जाने पर निर्वाचन आयोग कोई जबाब नहीं दे पाता।

जब ऐसे संकट आते हैं तो चुनाव प्रणाली में सुधार की जरूरतें तेजी से महसूस होती हैं किंतु विधायिका का जो हिस्सा इन्हीं कमजोरियों से लाभान्वित होकर सत्ता का सुख ले रहा होता है वह कोई परिवर्तन नहीं चाहता। क्या हम चुनावी दलों की कार्यप्रणालियों को और अधिक नियमबद्ध नहीं कर सकते, जिससे लोकतंत्र की भावना सुरक्षित रहे।