प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने डेढ़ घंटे से जरा सा पहले खत्म हुए भाषण से, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का रिकार्ड तोड़ दिया बताते हैं। पहले स्वतंत्रता दिवस पर नेहरू का भाषण, सवा घंटे से कुछ कम का था। वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने नेहरू के इस भाषण के सिवा, लाल किले से हुए दूसरे सभी स्वतंत्रता दिवस संबोधनों की लंबाई को तो पिछले साल ही पीछे छोड़ दिया था। दूसरे साल में उन्होंने नया रिकार्ड ही कायम कर दिया। लेकिन, इस संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने भाषण की लंबाई की ही रिकार्ड कायम नहीं किया है। इससे कहीं महत्वपूर्ण रूप से उन्होंने लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम संबोधन में असत्य से अर्द्धसत्य और कोरी बातों तक का इतने खुलकर सहारा लिया है कि दूसरे किसी बेहतर जुम्ले के अभाव में इसे ‘गोयबल्सीय मोड’ में भाषण ही कहना पड़ेगा। जाहिर है कि यह अपने आप में एक अनोखा रिकार्ड है।
प्रधानमंत्री का स्वतंत्रता दिवस का यह संबोधन, संसद के मानसून सत्र के पूरी तरह से धुल जाने के सिर्फ दो दिन बाद हो रहा था। इस पर तो बहस हो सकती है कि इस सत्र को पूरी तरह से धुल गया कहेंगे या अधिकांशत: धुल गया। इसी प्रकार इस पर भी बहस हो सकती है कि इस सत्र के धुल जाने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष में से कौन या कितना-कितना जिम्मेदार है। लेकिन इस पर किसी बहस की गुंजाइश नहीं है कि यह सत्र ‘ललितगेट’ और ‘व्यापमं’ की भेंट चढ़ा है। आइपीएल घोटाले के भगोड़े ललित मोदी की देश के कानून तथा तमाम नियम-कायदों से बाहर जाकर मदद करने के लिए देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा राजस्थान की भाजपायी सरकार की मुख्यमंत्री, वसुंधरा राजे और व्यापमं के लिए मध्य प्रदेश के भाजपायी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के इस्तीफे के मुद्दे पर ही, इस सत्र में कार्रवाई चलने से ज्यादा रुकी रही थी। विपक्ष का आग्रह था कि जैसी कि खुद आज की सत्ताधारी पार्टी ने विपक्ष में रहते हुए, यूपीए की पिछली सरकार के दौर में अनुकरणीय परंपरा कायम करायी थी, इन दोनों प्रकरणों में लगे गंभीर आरोपों की समुचित जांच होने तक, संबंधित उच्च पदारूढ़ों को अपने पद से हट जाना चाहिए।
लेकिन, मोदी सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी। वास्तव में संसद का मानसून सत्र शुरू होने से पहले ही सुषमा, वसुंधरा तथा शिवराज के इस्तीफों की मांग को सीधे-सीधे खारिज करते हुए, वरिष्ठ भाजपा नेता तथा केंद्रीय गृहमंत्री, राजनाथ सिंह ने बाकायदा यह एलान ही कर दिया कि, ‘यह यूपीए की सरकार नहीं है, कोई इस्तीफा नहीं देगा।’ अचरज नहीं कि इसने ‘पहले इस्तीफा फिर बहस’ की विपक्ष की मांग को और बल देने का ही काम किया था।
‘कोई इस्तीफा नहीं देगा’ के सरकार के हठ के चलते, लगभग पूरा सत्र ही धुल जाने के बाद, प्रधानमंत्री तथा सत्ताधारी भाजपा की अगुआई में विपक्ष को ‘प्रगति में रोड़ा अटकाने वाला’ आदि, आदि प्रचारित करने के लिए देशव्यापी मुहिम छेडऩे, इस प्रचार में कांग्रेस तथा वामपंथ के लोकसभा सदस्यों के चुनाव क्षेत्रों को खासतौर पर घेरने आदि, के जो राजनीतिक फैसले लिए गए हैं, उनके बारे में सभी जानते हैं। फिर भी, संसद में तथा संसद के बाहर भी, इस पूरे विवाद पर एकदम चुप्पी साधे रहे प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने संबोधन में प्रकारांतर से अपने राज में घपले-घोटाले के इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी तो तोड़ी। लेकिन कहा क्या?
‘‘आज में तिरंगे झंडे की साक्षी से बोल रहा हूं, लाल किले के प्राचीर से बोल रहा हूं। सवा सौ करोड़ देशवासियों के सपनों को समझ कर बोल रहा हूं। 15 महीने हो गए, आप ने दिल्ली में जो सरकार बैठाई है, उस पर एक नये पैसे के भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है।’’ और यह भी कि ‘‘मैं...भ्रष्टाचार मुक्त भारत के सपने को साकार कर के रहूंगा।’’ मानसून सत्र में जो कुछ हुआ, उसके बाद ‘‘एक नये पैसे के भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है’’ के दावे से बड़ी विडंबना आसानी से नजर नहीं आएगी। उस पर ‘‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’’ का सपना साकार कर रहे होने का दावा भी। इस हिसाब से तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो भ्रष्टाचार मुक्त भारत भी बनता रहेगा और ललितगेट से लेकर व्यापमं तक का कारोबार भी मजे में चलता रहेगा। इसे अगर ’गोयबल्स मोड’ नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?
संक्षेप में गोयबल्स का सूत्र यही तो है-झूठ बोलो, बड़ा झूठ बोले, सौ बार झूठ बोलो, लोग सच मानने लगेंगे! ललितगेट से व्यापमं तक करने वालों के सिर पर वरदहस्त बनाए रखने और वास्तव में इसके लिए संसद का एक पूरा सत्र कुर्बान कर देने के बाद, एक पैसे के भ्रष्टाचार का आरोप न होने का दावा, बड़ा झूठ बोलने के सिवा और कुछ नहीं है। बेशक, यह झूठ बार-बार दोहराया भी जा रहा है। दिलचस्प है कि अपनी सरकार का एक साल पूरा होने के मौके पर, मथुरा में दीनदयाल उपाध्याय के गांव में आयोजित समारोही सभा में भी प्रधानमंत्री ने ठीक यही दावा किया था और इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया था। उसके बाद से ललितगेट और व्यापमं के एक धमाके के साथ राष्ट्रीय मंच आ जाने के बाद भी, प्रधानमंत्री ने लाल किले से वही शब्द दोहराए हैं!
जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी को लाल किले से इस बार के अपने संबोधन में गोयबल्स मोड का खुलकर सहारा इसलिए लेना पड़ा कि यह उनका दूसरा स्वतंत्रता दिवस भाषण था। जिस तरह लाल किले से उनका पहला संबोधन, उनके चुनावी भाषणों का ही विस्तार हो सकता था, वैसी सुविधा दूसरे संबोधन में नहीं थी। उनकी सरकार का इस बीच गुजरे एक साल का रिकार्ड भी तो था। नरेंद्र मोदी के दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार, कालेधन आदि से लेकर, जनता के विभिन्न तबकों के कल्याण के कदमों तथा अर्थव्यवस्था व रोजगार की प्रगति तक, विभिन्न पहलुओं से इस एक साल का रिकार्ड कोई अच्छा नहीं रहा है। इसलिए, उन्हें सच को झुठलाने और झूठ को चलाने की कोशिश करनी ही थी। इस कोशिश में प्रधानमंत्री कहीं-कहीं सीधे-सीधे अर्द्धसत्य का सहारा लेने की हद तक चले गए, जैसे उनका यह दावा कि उनके दो स्वतंत्रता दिवस संबोधनों के बीच, दो लाख से ज्यादा स्कूलों में लडक़े-लड़कियों के लिए अलग, चार लाख शौचालय बनाने का काम ‘‘लगभग पूरा’’ हो गया है। आंकड़े तो बताते हैं कि इनमें से सिर्फ 32 फीसद शौचालय बनाए जा सके हैं और 68 फीसद यानी 2,98,458 शौचालय बनने बाकी हैं। अचरज नहीं कि अपने रिकार्ड लंबाई के स्वतंत्रता दिवस संबोधन में नरेंद्र मोदी, अपने पिछले संबोधन की घोषणाओं के पालन के तथ्यों के चक्कर में कम ही पड़े हैं। कई मामलों में तो पिछली बार के नारों की जगह लेने के लिए नये नारे पेश भर कर दिए गए हैं।
जैसे पिछले स्वतंत्रता भाषण में ‘मेड इन इंडिया’ का नारा था, जिसे जल्द ही बदल कर ‘मेक इन इंडिया’ कर दिया गया और इस बार के संबोधन में, ‘‘स्टार्ट अप इंडिया’’, ‘‘स्टेंड अप इंडिया’’ का नारा पेश कर दिया गया है।
स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में लफ्फाजी का भरपूर सहारा लिया है। लेकिन, ऐसी सरकार जिसकी नीतियों और श्रम कानूनों में मजदूरविरोधी संशोधन की जिसकी कोशिशों से विक्षुब्ध, देश की सभी ट्रेड यूनियनें, जिनमें सत्ताधारी संघ परिवार से जुड़ा भारतीय मजदूर संघ भी शामिल है, पंद्रह दिनों बाद ही एक दिन की देशव्यापी हड़ताल करने जा रही हों, ‘श्रम की प्रतिष्ठा’ की लफ्फाजी के सिवा और कर भी क्या सकती है?
इसी प्रकार, जिस सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून में किसानविरोधी संशोधन थोपने की कोशिश में अपने पांव पीछे खींचने पड़े हों, कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर, उसमें किसान कल्याण जोडऩे के सिवा और क्या कर सकती है? और ये तो दो उदाहरण भर हैं।
वास्तव में यह प्रधानमंत्री के संबोधन में तत्व और तथ्य की भारी कमी का ही संकेतक है कि उसमें पूरे 38 बार ‘‘टीम इंडिया’’ शब्द का प्रयोग का किया गया है और 42 बार गरीब या गरीबी का। फिर भी भ्रष्टाचार की ही तरह, गोयबल्सीय मोड का सबसे कानों में चुभने वाला उदाहरण तो प्रधानमंत्री का यह उपदेश ही है कि ‘‘हमारी एकता...हमारा भाईचारा, हमारा सद्भाव हमारी बहुत बड़ी पूंजी है।...चाहे जातिवाद का जहर हो, संप्रदायवाद का जुनून हो, उसे हमें किसी भी रूप में जगह नहीं देनी है, पनपने नहीं देना है।’’
प्रधानमंत्री जी आपकी पार्टी, आपके सत्ताधारी मोर्चे और यहां तक कि आपकी सरकार का भी आचरण क्या इससे ठीक उल्टा ही नहीं है। बिहार में विधानसभाई चुनाव की पूर्व-संध्या में जातियों की सघनतम जोड़-गांठ में कौन लगा हुआ है? और तीस्ता को जेल और असीमानंद को बेल के लिए किसने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है? लेकिन, शायद हमारा यह शिकायत करना ही गलत है। प्रधानमंत्री ने तो इसी भाषण में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उनसे जातिवाद और साप्रदायिकता पर अंकुश लगाने की उम्मीद कोई नहीं करे। संघ परिवार का मामला जो है। हां, अगर देश चाहे तो ‘‘जातिवाद का जहर हो, संप्रदायवाद का जुनून हो’’ उसके ‘‘विकास के अमृत से’’ खुद ब खुद मिट जाने की और ’’ विकास की अमृतधारा से एक नयी चेतना प्रकट’’ होने की प्रतीक्षा जरूर कर सकता है!
0 राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।