लेकर चली मां हजारों मील मासूमों को/ शर्म नहीं आती हुक्मरानों को और कानूनों को
लेकर चली मां हजारों मील मासूमों को/ शर्म नहीं आती हुक्मरानों को और कानूनों को

व्यवस्था पर चोट करती सारा मलिक की तीन लघु कविताएं
Sara Malik's three short poems hurting the system
भूख और गरीबी से मजबूर हो गए
जख्म पांव के नासूर हो गए
कदमों से नाप दी जो दूरी अपने घर की,
हजारों ख्वाब चकनाचूर हो गए
छालों ने काटे हैं जो रास्ते
बेबसी का दस्तूर हो गए.
कभी पैदल कभी प्यासे, कभी भूखे,
बच्चे हमारे समाज की तस्वीर हो गए
हर आह हर दुशवारी में यूं चलते-चलते,
दुनिया की हम एक नई नजीर हो गए
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लेकर चली मां हजारों मील मासूमों को
शर्म नहीं आती हुक्मरानों को और कानूनों को
यह हौसले अब ना टूटेंगे !
यह आबले ना हमको रोकेंगे,
धरती का कलेजा कांप उठा
सबके घर जो बनाता है
उसको आज घर कौन पहुंचाता है
किसको फुर्सत है, ये माकूल सवाल कौन उठाता है
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इक फसाना गढ़ा जाएगा,
एक इश्तिहार लिखा जाएगा
जिसको सुबह शाम पूरी ताकत से पढ़ा जाएगा
जिसमें झूठ और मक्कारी के सिवा कुछ नहीं
सच सबको पता है,
लाचारी के सिवा कुछ भी नहीं
मरहम के नाम खजाने में हमारे लिए फकत,
अय्यारी के सिवा कुछ भी नहीं है,
मलाल रह जायेगा हमको यही
सारा मलिकतारीख से मिटाया जाने का
क्या कहें ? सब ठीक है सब अच्छा है
घर में मातम, सड़कों पर बिलखते बच्चे,
बूढ़ी मां, वह पीपल का पेड़,
ठाकुर के हाते का कुआं,
हाय री किस्मत
मरते ही वो लाख ₹ मेरे नाम के मंजूर हो गए !


