लेकिन हिमालय में जीवन हनीमून नहीं है
लेकिन हिमालय में जीवन हनीमून नहीं है
আমার পরম সৌভাগ্য, আমি থাকি একটা আশ্চর্য খোলামেলা জায়গায়, অবারিত সবুজের মধ্যে। এখানে আমার পড়শিই বলুন, শত্তুরই বলুন— কোনও মানুষ নয়, বাদামের খোঁজে চরকি-পাক দেওয়া উড়ুক্কু কাঠবেড়ালি, জাঙ্গল ক্রো আর পিগমি পেঁচারা। রাত থাকতেই তারা উঠে পড়ে, আমাকেও জাগিয়েও দেয়। ভোর না হতেই থ্রাশ আর ব্ল্যাকবার্ডরা ঝালাপালার কম্পিটিশন শুরু করে দেয়, আর আমি কানে বালিশ চেপ্পে পাশ ফিরে শুই।
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विक्टर बनर्जी बालीवुड टालीवुड के मशहूर स्टार हैं और कोलकाता से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले शायद पहले सितारा भी।
विचारधारा के मामले में शायद वे बदले न हों।
कोलकाता के बजाये वे उत्तराखंड के मंसूरी में रहते हैं, जबकि हम जन्मजात उत्तराखंडी होते हुए कोलकाता में पिछले 25 साल से वर्क परमिट पर एनआरआई हैं।
बहरहाल, बंगाल में लोग हमें एनआरआई जैसी मान्यता देते नहीं हैं उनकी नजर में हम अछूत शरणार्थी हैं।
आज ही हमने बंगाल के भद्रसमाज के वैज्ञानिक प्रगतिशील नजरिया बहुजन समाज के बारे में साझा किया है।
विक्टर बनर्जी सत्यजीत राय की फिल्म घरे बाइरे में स्वातीलेखा और सौमित्र चटर्जी के मुकाबले हैं। उनकी फिल्मों पर चर्चा के लिए यह आलेख लेकिन नहीं है।
पहाड़ों पर जब भी वे लिखते हैं, दिलो दिमाग को छू जाता है।
इसे पहले, बरसों पहले मुजफ्फरनगर बलात्कारकांड के सिलसिले में पहाड़ों में कर्फ्यू और बंद पर एक रपट उन्होंने दि टेलीग्राफ में लिखी थी, जिसका अनुवाद राजीव लोचन साह दाज्यू ने नैनीताल समाचार में छापा था।
आज जो रविवारी आनंदबाजार में हिमालय के हाल हकीकत के बारे में उनने लिखा है, हालांकि वह बांग्ला में है और बंगाल के नागरिकों को संबोधित है, लेकिन उम्मीद है कि राजीवदाज्यू पहाड़ वालों से इस बेहतरीन आलेख को साझा जरूर करेंगे।
सुबह-सुबह जब मैं बिजली गुल रहने के मौके पर यह रपट बेहद गंभीरता से पढ़ रहा था, तभी दिनेशपुर से दीप्ति का फोन आ गया।
सीधे पूछा कि भाभी है या नहीं।
हमने फोन उनकी भाभी को थमा दिया।
दरअसल सविताबाबू जो पिछले दिनों बसंतीपुर गयी थी, उसकी खबर दीप्ति को आज लगी और उसने फौरन सविता बाबू से जबावतलब कर लिया।
दीप्ति मेरे बचपन के पुराने मित्रों में है टेक्का के बाद सबसे पुराने।
वह पढ़ने का खास शौकीन था और हम दोनों मिलकर किताबें साथ साथ खोजा करते थे और साझा करते थे।
नैनीताल जीआईसी में दाखिले के लिए जब वह मेरे साथ गया तो दिवंगत हरीश चंद्र सती ने कहा, दीप्ति सुंदर, यह लड़कों का कालेज है, लड़कियों का दाखिला यहां हो नहीं सकता। दीप्ति ने उठकर कहा, सर, मैं लड़की नहीं, लड़का हूं।
हम 1973 में नैनीताल गये थे। बीच में जिस अवधि में मैं ताराचंद्र त्रिपाठी जी के घर मोहन भोज के साथ रहता था, उसके अलावा बाकी वक्त हम मालरोड पर बंगाल होटल में रूम पार्टनर थे।
हमने बहुत सारा हिमपात, बहुत सारे भूस्खलन भी किताबों के साथ साझा किये हैं। इंटरमीडिएट में खासतौर पर हम नैनीताल और आसपास के पहाड़ों और झीलों में, जंगलों में साथ साथ पूरी टोली के साथ घूमा करते थे। उन्हीं दिनों मुझे कविताएं लिखने का शौक चर्राया था और दीप्ति तभी से संगीत में रमा है।
जंगलों में तो भटकने का सिलसिला भूमिगत नक्सलियों के साथ मित्रता की वजह से पढ़ाई लिखाई छोड़ देने के अपराध में जब मुझे शक्तिफार्म में नौवीं में दाखिला दिया गया, जबसे तेज हो गया। असली सिलसिला तो जनमजात है।
अभी दिनेशपुर में बड़े भाई सुधारंजन राही हैं जो अबभी सिलिसेलवार बता सकते हैं कि जिम कार्बेट प्रसिद्ध आदमखोर बाघों से भरे तराई के गहरे जंगल में बंगाल शरणार्थियो को कैसे फेंक दिया गया। हम तो जनमें ही बसंतीपुर में और झंगल के साये से कभी रिहा नहीं हुए। यूं कहिये कि इस देश के आदिवासी जितने जंगली हैं, उनसे कोई कम जंगली मैं हूं नहीं।
बसंतीपुर को चारों तरफ से सिडकुल का जंगल घेरे हुए है इन दिन। कोई वरनम वन भारतीय कृषि के खिलाफ युद्धरत है। जिस युद्ध के खिलाफ कोई किलेबंदी नहीं है। गूलरभोज और लालकुंआ के जंगल में जिस ढिमरीब्लाक में पुलिनबाबू और उनके साथी कामरेडों की अगुवाई में तराई के किसानों ने तेलंगना रचने का विद्रोह किया था, वहां भी अब जंगल नहीं है। गूलरभोज और शक्तिफार्म के बीच जंगल अब आबाद है।
जिम कार्बेट का वह प्रसिद्ध जंगल अब कितना जंगल है और कितना अभयारण्य, हमें लेकिन पता नहीं है।
1971 -72 के दौरान शक्तिफार्म के जिस रतनफार्म नंबर दो गांव में मैं पिता के मित्र के घर रहता था, वहां खेतों के पार जंगल ही जंगल थे। तब मैं फुरसत में उस जंगल में बेखटके भटकता रहता था। जिस जंगल में शेर थे, जिस जंगल में जंगली हाथी थे, उनसे मैं डरा नहीं कभी, कमसकम उतना तो नहीं जितना कोलकाता और नई दिल्ली के सीमेंट के जंगलों से डरता हूं, जहां इंसानियत की कोई खुशबू मुझे घेरे नहीं रहती।
जंगल की गंध जैसी कोई चीज मेरे हिसाब से सभ्यता और मनुष्यता के लिए, इस कायनात और उसकी तमाम बरकतों और नियामतों के लिए जरुरी नहीं है।
इसीलिए जल जमीन जंगल की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासी मेरे सबसे अपने हैं और मैं पूर्वोत्तर से लेकर मध्य भारत, कच्छ के रण, नीलगिरि से लेकर हिमालय में आदिवासी भूगोल का हिस्सा बनकर जीता हूं।
विक्टर बनर्जी ने हिमालयी शिवालिक श्रेणी के अकूत प्राकृतिक सौंदर्य के साथ पक्षी संसार का जो ब्यौरा दिया है, उसमें हमारा भी कोई बसेरा कभी था। उनका आलेख पढ़ते हुए दीप्ति के फोन पर यह अहसास हुआ। हालांकि दीप्ति से मेरी कोई बात हुई नहीं।
इस आलेख में पहाड़ों में चिकित्सा के लिए दूर दराज के गांवों से मरीजों को अस्पताल लाने की जो सूचना विक्टर ने दी है, वह मेरे लिए सुखद है। इसके साथ साथ केदार जलआपदा के दौरान राहत के नाम पर हेलीकाप्टर सेवा के लिए सत्ता नाल से जुड़े लोगों को हुए बेहिसाब भुगतान का उल्लेख करना भी वे भूले नहीं।
पहाड़ों में मानसून बाकी देश की तुलना में बहुत घना और मूसलाधार होता है। आपदाओं का अनंत सिलसिला पहाड़ों का जनजीवन है।
आजकल मित्रों का कहना है कि नैनीताल में हर मौसम सीजन है।
पूरा पहाड़ बाकी देश के लिए हनीमून है।
पहाड़ के सारे धर्मस्थल भी हनीमून।
नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में आस्था का यह कायाकल्प है।
बहरहाल हिमालयी जीवनचर्या में कोई हनीमून लेकिन होता नहीं है।
हिमालय के वजूद पर गहराते संकट को हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य और विकास कार्यों को सिलसिलेवार बताते हुए रेखांकित किया है विक्टर ने और साफ कर दिया है कि अंधाधुंध जंगलों की कटान की नींव पर मैदानों से चली पूंजी ने पहाड़ों से स्थानीय जनता कि किस हद तक बेदखल करके सीमेंट के जंगल में अमंगल का सिलसिला रचा है।
विचारधारा विक्टर की चाहे जो हो नदियों को बांधकर ऊर्जा प्रदेश के बने विध्वंसक नक्शे को उनने बेनकाब किया है।
कोलकाता में पर्यावरण चेतना न के बराबर है।
प्रदूषण का आलम यह कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा कैंसर के मरीज कोलकाता में हैं तो इस महानगर और उसे घेरे उपनगरों में सत्तर फीसद आबादी सांस की बीमारियों से पीड़ित है। मधुमेह कोलकाता में महामारी है तो पेट की बीमारियों की कुछ कहिये मत।
बरसात में कोलकाता और हावड़ा में जल मल एकाकार है।
पहाड़ों में कम से कम ऐसा फिलहाल होता नहीं है।
कोलकाता को सुंदरवन की कोई परवाह नहीं जबकि हिमालय जैसे इस पूरे महादेश को सीमाओं के आरपार जीवनचक्र से बांधे हुए है, सुंदरवन की भूमिका उससे कमतर नहीं है। समुद्री तूफानों और सुनामियों से निचले सतह पर बसे कोलकाता और सारा पूर्वी भारत जो अब तक बचा है, वह मैनग्रोव जंगल की मेहरबानियां हैं।
विक्टर ने गढ़वाल के पहाड़ों में विकास के नाम पर विनाश का सिलसिलेवार ब्यौरा देते हुए कहा है कि केदार जलआपदा समेत तमाम आपदायें प्रकृति की रची हुई नही हैं हरगिज, वे मानवनिर्मित हैं।
कोलकाता में जो शहरीकरण की सुनामी चल रही है और तमाम झीलों, नदी नालों, कल कारखानों पर उगाये जा रहे हैं सीमेंट के जंगलवे हिमालयी विनाश का महानगरीय स्पर्श है।
पलाश विश्वास


