लोकतंत्र की रक्षा के लिए राजनीतिक आचरण में शुचिता ज़रूरी
लोकतंत्र की रक्षा के लिए राजनीतिक आचरण में शुचिता ज़रूरी
शेष नारायण सिंह
अपना लोकतंत्र बहुत ही खतरनाक दौर से गुज़र रहा है। अंग्रेजों से जब देश को मुक्त कराया गया था तो आज़ादी के महानायकों ने बहुत सोच विचार के बाद संसदीय लोकतंत्र को देश की राजकाज की प्रणाली के रूप में शुरू किया था। देश के सभी नागरिकों और राजनीतिक दलों का कर्त्तव्य है कि वे देश के लोकतंत्र की रक्षा में अपना योगदान करें। जहां तक जनता का सवाल है, उसकी भूमिका तो चुनाव के वक़्त वोट देने तक सीमित कर दी गयी है। यह अलग बात है कि संविधान और राष्ट्र के संस्थापकों ने उम्मीद जताई थी कि जो लोग भी राजनीतिक कार्य में शामिल होंगे वे लोकतंत्र में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करेगें। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। राजनेताओं ने लोकतंत्र की रक्षा का काम खुद अपने जिम्मे कर लिया है और जनता की भागीदारी केवल मतदाता के रूप में देखी जा रही है।
हम सभी जानते हैं कि लोकतंत्र केवल एक ख़ास किस्म के राजकाज का ही नाम नहीं हैं। वास्तव में यह देश के सभी नागरिकों के हित के राजनीतिक संगठन, सामाजिक संगठन और आर्थिक व्यवस्था होने के साथ-साथ एक नैतिक भावना भी है। लोकतंत्र जीवन का समग्र दर्शन है जिसके दायरे में मानवीय गतिविधियों के सभी पहलू शामिल होने चाहिए। बहुत भारी चिंता की बात है कि आजकल लोकतंत्र पर हिंसा, भ्रष्टाचार, वंशवाद, धन्नासेठों का प्रभुत्व, राजनीतिक विरोधियों के प्रति जाहिलाना आचरण, अशिक्षा आदि हावी हो गए हैं और लोकतंत्र का कोई भी जानकार बता देगा कि अगर किसी भी राजकाज की प्रणाली में यह सारी बातें शामिल हो गयीं तो लोकतंत्र की अकाल मृत्यु हो जाती है।
देश के सभी नागरिकों का दुर्भाग्य है कि आजकल के राजनीतिक नेताओं में सहिष्णुता बिलकुल ख़त्म हो गयी है। राजनीतिक लाभ के लिए अपने विरोधी को परेशान करना और उसको अपमानित करने की प्रवृत्ति सभी पार्टियों में देखी जा सकती है। जब से गठबंधन सरकारों का युग शुरू हुआ है तब से आर्थिक भ्रष्टाचार राजनीतिक नेताओं का अधिकार सा हो गया है। किसी तरह से सरकार को चलाते रहने के लिए स्वार्थी राजनेता भ्रष्ट से भ्रष्ट व्यक्ति को मनमानी का मौक़ा देते हैं और लोकतंत्र और देश का भारी नुक्सान करते हैं। सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस के नेता संजय गांधी ने 1980 में पहली बार अपराधियों के लिए संसद और विधानसभा की सदस्यता के रास्ते को खोला था। उसके बाद से देश की सभी विधानसभाओं और लोकसभा में अपराधियों की खासी संख्या रहती है। इस बार की लोकसभा में भी बहुत सारे ऐसे लोग चुन कर आ गए हैं जिन्होंने अपने हलफनामों में खुद स्वीकार किया है कि उनके ऊपर आपराधिक मुक़दमे चल रहे हैं। अजीब बात है कि राजनीतिक बिरादरी में अब अपराधी होना बुरा नहीं माना जाता। यह लोकतंत्र के लिए बहुत ही अशुभ संकेत है। राजनेताओं का आपराधिक आचरण उनके सार्वजनिक जीवन में बार बार देखा जाता है।
ताज़ा वाकया उत्तर प्रदेश का है। मुरादाबाद जिले में आजकल राजनीतिक हिंसा का माहौल है। उसी माहौल के बीच से बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी का बयान आया है जो बहुत ही डरावना है और किसी भी राजनेता को किसी भी हालत में यह बयान नहीं देना चाहिए था। जिले के पुलिस प्रमुख से नाराज़ लक्ष्मी कान्त वाजपेयी ने कहा कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक धर्मवीर यादव को भाजपा ने अपनी आंखों में नागिन की तरह उतार लिया है, इन्हें पूरी तरह डसकर ही पार्टी दम लेगी। उन्होंने आगे कहा कि उनकी पार्टी जब तक अपने कार्यकर्ताओं के अपमान का बदला जिले के पुलिस कप्तान से नहीं ले लेगी तब तक शांत नहीं बैठेगी।
क्या यह सभ्य राजनीतिक आचरण की भाषा है ? यहाँ इस घटना का उल्लेख केवल उदाहरण के लिये ही किया गया है। पूरे देश में हर राजनीतिक पार्टी में इस तरह के तत्व हैं। जिस व्यक्ति ने यह बयान दिया है उसकी पार्टी ने राज्य में बहुत अच्छे नतीजों के साथ लोकसभा चुनाव जीता है। उनकी पार्टी की केंद्र में सरकार है। हम जानते हैं कि अभी दो महीने पहले तक इन नेताजी की पार्टी के लोग इस तरह के बयान नहीं देते थे। जिस पार्टी के खिलाफ उन्होंने उत्तर प्रदेश में मोर्चा खोल रखा है, उस पार्टी के नेता बीजेपी वालों के खिलाफ इसी तरह का बयान दिया करते थे।
हालांकि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष ने अपने गुस्से का कारण जिले के पुलिस प्रमुख के निजी आचरण को बताया है लेकिन उस हालत में भी क्या लोकशाही को चलाने के लिए बदले की राजनीति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। राज्य में सत्ता पर मौजूद पार्टी को भी चाहिए कि विवादित अफसरों को सार्वजनिक मुद्दों को संभालने के लिए तैनात न करें। जिस पुलिस वाले के आचरण के कारण घटिया भाषा का प्रयोग किया गया है उसकी कार्यक्षमता पर सरकार के अन्दर बैठे आला अफसरों ने सवाल उठाया था जब उन्होंने मथुरा जिले के पुलिस प्रमुख के रूप में कोसी में दंगे की हालत पैदा होने में गैरजिम्मेदार भूमिका निभाई थी।
सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस तरह के राजनीतिक व्यवहार से देश के लोकतंत्र को बचाया जा सकता है। सत्ता और विपक्ष दोनों पर लोकतंत्र की हिफाज़त का ज़िम्मा होता है। अगर राजनीतिक बिरादरी ने अपने इस फ़र्ज़ को ठीक से नहीं समझा और राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय देते रहे तो देश के राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान लग सकता है।


