Why is a fast unto death in a democracy?

लोकपाल बिल और विदेशी बैंकों में जमा काला धन देश में वापिस लाने के लिए समाजसेवी अन्ना हजारे और योगगुरू बाबा रामदेव ने जो पहल की है वो वाकई काबिलेतारीफ है। बरसों बरस से भ्रष्टाचार की चक्की में पिसती एवं बेईमान, चोर और अपराधी किस्म के तथाकथित नेताओं के आश्वासनों के सहारे घुट-घुट कर जिंदगी बसर कर रही देश की जनता को जब अपने मसीहाओं और नेताओं की असलियत पता चली तो दिल्ली का तख्त हिलने लगा। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को उनके रास्ते से हटाने और डिगाने के लिए राजनीतिक पैंतरेबाजी से लेकर बयानबाजी तक दौर चला। अन्ना के अनशन से डरी सरकार ने कारपोरेट लॉबी के भारी दबाव में सिविल सोसायटी के सदस्यों को लोकपाल बिल की ड्राफ्ंटिंग कमेटी में शामिल तो कर लिया लेकिन बेमन से।

अन्ना की तर्ज पर जब बाबा रामदेव ने दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन किया तो चार-पांच जून की रात को बौखलाई सरकार ने अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर जमकर लाठी चलवाई और लोकतांत्रिक व्यवस्था में एकबार फिर से इमरजेंसी की याद ताजा करा दी।

जिस तरह से सरकार और उसके जिम्मेदार मंत्री सिविल सोसायटी पर लगातार बयानबाजी कर रहे हैं उससे ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार देश और जनहित से जुड़े मुद्दों के प्रति अगंभीर है। सिविल सोसायटी जिस तरह सिविल सोसायटी के ड्राफ्ट का कटोरा लेकर हर राजनीतिक दल की चौखट पर भीख मांग रही है उससे देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों की काली सूरत सामने निकलकर आ गई हैं अर्थात् हमाम में सभी नंगे हैं।

बाबा रामदेव और उनके सर्मथकों पर सरकार द्वारा डंडे चलवाकर और जबरन रामदेव को उठाकर उत्तराखंड भेजना किसी भी दृष्टिकोण से न्यायसंगत और उचित नहीं ठहराया जा सकता है। असल में समस्या यह है कि हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने पर गर्व महसूस करते हैं लेकिन आकंठ तक भ्रष्टाचार में डूबी राजनीतिक और सामाजिक माहौल में अगर कोई संत या समाजसेवी अगर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसे अपार जनसमूह के समर्थन की तो जरूरत पड़ती है, वहीं सत्ता के कानों तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए आमरण अनशन जैसे पथरीले रास्ते का चुनाव करना पड़ता है।

अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, निखलानंद, नागनाथ और जैन मुनि श्री मैत्रि सागर को विश्व के सबसे बड़े और सफल लोकतंत्र में अपनी बात सत्ता तक पहुंचाने के लिए आमरण अनशन का रास्ता क्यों चुनना पड़ता है। क्यों सत्ता को आम आदमी की आवाज और दुःख-दर्दे सुनाई नहीं देता है। क्यों ऐसे हालात बनाए जाते हैं कि किसी निगमानंद को राष्ट्रीय नदी गंगा को बचाने के लिए अपने प्राणों की बलि देनी पड़ती है, ये सवाल इस देश के प्रत्येक नागरिक के मनोमस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रहा है कि लोकतंत्र में आमरण अनशन क्यों?

लोकतांत्रिक व्यवस्था को विश्व की उत्तम व्यवस्थाओं में गिना जाता है लोकतंत्र अर्थात जनता का राज। लेकिन हमारे यहां खाने और दिखाने के दांतों में फर्क है। हमारे तथाकथित नेताओं और प्रतिनिधियों की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। चुनावी बेला पर आश्वासनों का लाली पाॅप देने वाले नेता चुनाव जीतते ही वीआईपी हो जाते हैं। चुनाव से पूर्व देश और दुनिया की तकदीर बदलने के दावे और वायदे करने वाले वक्त पड़ने पर स्ट्रीट लाइट की एक टयूब बदलवाने के लिए भी आम आदमी से दस-बीस चक्कर लगवाते हैं। जब देश में विपक्षी दल मुंह बंद किए बैठे हों, तथाकथित समाजसेवी, नौकरशाह ,शिक्षक , वकील, प्रबुद्वजन और पत्रकार सत्ता की चाटुकारिता और गुणगान में मगन हों, तो देश के आम आदमी, किसान, मजदूर, महिलाओं, बच्चों और निचले तबके के हक और हकूक की बात आखिरकर कौन करेगा। ऐसे निराश और भ्रष्ट माहौल में जब लाखों-करोड़ों की भीड़ में से कोई संत या समाजसेवी उठकर व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करता है, और सोयी हुई जनता को जगाने का पुनीत कर्म करता है तो व्यवस्था और सत्ता को उससे परेशानी होने लगती है।

आखिरकर रामदेव, अन्ना, निखलानंद, नागनाथ और जैन मुनिश्री मैत्रि सागर भी तो इसी देश के नागरिक हैं। उन्हें भी देश के संविधान ने वहीं अधिकार प्रदान कर रखे हैं, जो देश के अन्य करोड़ों नागरिकों को प्राप्त हैं। आखिरकर सत्ता उनकी बात क्यों नहीं सुनना चाहती। सत्ता को इनसे क्या वैर और दुश्मनी है।

सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने वाले महानुभावों का भी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था और संसदीय प्रणाली में पूर्ण विश्वास और आस्था है। अगर सत्ता ने ये समझ लिया है कि वोट डालने और प्रतिनिधि चुनने तक ही आम आदमी के लिए लोकतंत्र की परिभाषा है तो इस परिभाषा का उल्लंघन गुनाह की श्रेणी में ही आएगा। और शायद रामदेव, अन्ना, निखलानंद, नागनाथ और जैन मुनि श्रीमैत्रि सागर ने यही अपराध किया है कि उन्होंने अपने द्वारा चुनी सरकार से काम-काज का हिसाब-किताब मांग लिया, लोकपाल कानून बनाने में सिविल सोसायटी की भागीदारी मांग ली या फिर सरकार को ये बताने का अपराध कर डाला कि देश के हजारों-करोड़ की ब्लैक मनी विदेशी बैंकों में जमा है। लेकिन सत्ता को देश और जनहित की ये बात कतई बर्दाशत नहीं आयी कि कोई अन्ना या रामदेव उठकर उससे तर्क-वितर्क करे और उसे राज-काज के तौर तरीके बताएं। वोट डालने के बाद चुपचाप एक कोने में पड़े सड़ते रहो हमारे देश में लोकतंत्र अब यही रूप ले रहा है।

कहने को तो इस देश में लोकशाही है लेकिन सत्ता के कर्म राजशाही और तानाशाही की ही याद दिलाते हैं।

हम सब मिलकर लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटते तो जरूर हैं लेकिन असल में हमारे यहां लोकतंत्र नाममात्र का ही बचा है। प्रेस की आजादी सत्ता को सताने लगी है और समाज के भीतर से उठ रही विरोधी आवाजों को कुचलने-मसलने और दबाने की पुरजोर कोशिशें जारी हैं। आप और हम तभी तक सत्ता के सहयोगी और साथी हैं जब तक हम उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते हैं। अभी तक अन्ना और रामदेव से किसी को कोई परेशानी या समस्या नहीं थी लेकिन जैसे ही सत्ता के खिलाफ इन सज्जनों का मुंह खुला सत्ता बौखला गई। बाबा रामदेव और उनके सहयोगी बालकृष्ण के पीछे सरकारी अमला ऐसे पड़ गया हैं जैसे मांस के पीछे कुत्ता।

अन्ना जब तक अपने गांव में समाज सुधार कर रहे थे तब तक सत्ता और तमाम दूसरी संस्थाएं उन्हें ईनाम और सम्मान दे रही थी लेकिन जैसे ही उन्होंने दिल्ली की सत्ता को चुनौती दी सारी फिजां बदल गई।

लबोलुआब यह है कि सत्ता तभी तक कल्याणकारी, परोपकारी, दानशील, करूणामयी, ममतामयी और हितेषी है जब तक आप उसके अच्छे-बुरे के साथी बने रहते हैं लेकिन जिस क्षण आप सत्ता से सवाल-जवाब करने लगते हैं या फिर अपने हक और हकूक की बात करते हैं तो सत्ता की आंख में आप खटकने लगते हैं और फिर सारा सरकारी अमला और सत्ता आपके पीछे हाथ-धोकर पड़ जाती है। कभी उस विरोधी स्वर को निखलानंद की भांति देश हित में प्राण गंवाने पड़ते हैं तो कभी रामदेव की तरह लाठी-डंडों की मार सहनी होती या फिर अन्ना की भांति धमकियों और मानसिक प्रताड़ना और तनाव का सामना करना पड़ता है। सत्ता की जनहित के मुद्दों और विरोधी स्वरों के विरूद्व रूखा, अडि़यल और अलोकतांत्रिक व्यवहार ही आज गहरी सोच और चिंतन का विषय है कि अगर एक लोकतांत्रिक देश में जनता की चुनी हुई सरकार अलोकतांत्रिक रीतियों, नीतियों और कारगुजारियों पर उतर आएगी तो फिर लोकतंत्र की रक्षा कैसी होगी।

लोकपाल बिल पर सरकार और सिविल सोसायटी की असहमति और लगभग सभी राजनीतिक दलों की बहानेबाजी के बीच सरकार मानसून सत्र में लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट संसद में पेश करने पर अड़ी हुई है। आखिरकर ऐसा करके सरकार क्या साबित करना चाहती है कि उसे देश के लाखों-करोड़ों लोगों की भावनाओं की कोई कद्र नहीं है या फिर वो ये बताना चाहती है कि उसके लिए सिविल सोसायटी या किसी ओर को वो अपने जूते की नोंक पर रखती है। या फिर सरकार ये संदेश देना चाहती है कि भविष्य में भी उसे किसी तरह की सलाह और मशविरे की जरूरत नहीं है। वहीं रामदेव पर डंडे चलवाकर और अन्ना को अनशन न करने की धमकी देकर सरकार ने एक साथ कई संदेश देश की जनता को दे दिए है।

सरल शब्दों में ये कहा जा सकता है कि सरकार मनमानी पर उतारू है और उसके साथ लगभग सारे विपक्षी दल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से साथी बने हुए हैं। जब सरकार को देश की जनता की भावनाओं और विचारों की ही कद्र नहीं करनी है तो उस सरकार को लोकतांत्रिक कहना भी गलत होगा।

सवाल लोकपाल बिल के निर्माण, गंगा के घाटों से अवैध खनन रोकने और विदेशों में जमा काला धन वापिस लाने से बढ़कर यह है कि आखिकर जनता द्वारा चुनी हुई कोई सरकार प्रजातांत्रिक रीति-नीति और नियम छोड़कर तानाशाही पर उतारू क्यों है। आखिरकर क्यों देश और लोकहित से जुड़े मुद्दे और मांगे मनवाने के लिए संत और समाजसेवी आमरण अनशन के कठोर रास्ते पर चलने को मजबूर हैं ? जब देश में आम आदमी की आवाज का कोई महत्व ही शेष नहीं है तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा चुनी सरकार को गद्दी पर बैठने का क्या अधिकार है। सत्ता के नशे में मदमस्त सरकार और व्यवस्था अपनी कमियों, दोषों और गुनाहों पर विचार किये बिना अपने खिलाफ उठ रही आवाज को सुनने और समझने के बजाए उसे दबाने, डराने, धमकाने और कुचलने पर आमादा हो रही है।

ऐसा भी नहीं है कि एक बार चुने जाने के बाद नेताओं और राजनीतिक दलों को दुबारा आम जनता के बीच जाना नहीं होगा। चुनाव आते ही सत्ता के नशे के चूर नेता और राजनीतिक दल आम आदमी के सामने हाथ जोड़कर मिमयाते नजर आएंगे। एक बार जीतने के बाद चुनावी मेमने शेर की तरह दहाड़ने लगते हैं और जिस जनता की बदौलत उन्हें संसद में बैठने का सुअवसर प्राप्त होता है उनके पास उसी जनता से मिलने और उसके दुःख-दर्दे सुनने का वक्त नहीं होता है। जिन प्रतिनिधियों को हम देश, राज्य और आम आदमी के कल्याण के लिए चुनते हैं वही व्यक्ति लोक कल्याण व जनहित को भूलकर निजि स्वार्थों, पार्टी हित और भाई भतीजावाद में लग जाता है। पिछले दो-तीन दशकों में इस लूट-खसोट की प्रवृत्ति ने खासा जोर पकड़ा है। ऐसा भी नहीं है कि कोई एक ही राजनीतिक दल और नेता ही गुनाहगार है असलियत यह है कि हमाम में सभी नंगे हैं। नेता सत्ता के नशे में मदमस्त है और विपक्ष पस्त है और अगर ऐसे वातावरण में अन्ना, रामदेव या फिर कोई दूसरा आदमी उठकर सरकार से सवाल-जवाब करता है तो इसमें बुराई ही क्या है। वो अपने लिए तो कुछ मांग नहीं रहे हैं, जनहित और देशहित के लिए सोचना और आवाज बुलंद करना अगर गुनाह है, तो अन्ना और रामदेव सत्ता की नजर में गुनाहगार हैं। लेकिन सोच, डर और परेशानी इस बात को लेकर है कि जब एक लोकतांत्रिक देश में अपनी आवाज उठाने के लिए पुलिसिया लाठी और सरकारी अमले के कुचक्रों से बचना पडेगा या फिर आमरण अनशन का रास्ता चुनना होगा। आज जिस तरह दिल्ली का तख्त आम आदमी के हक के लिए उठने वाली आवाज को दबाने, डराने और कुचलने पर आमादा है उससे तो यही लगता है कि सरकार का लोकतांत्रिक व्यवस्था और प्रणाली से भरोसा पूरी तरह से उठ चुका है, और वो निरंकुषता, तानाशाही और मनमानी पर उतारू है और उसे जन भावनाओं का जरा भी ख्याल नहीं है।

आगामी 16 अगस्त को अन्ना ने एक बार फिर अनशन का ऐलान किया है। मेरे हिसाब से ये दिन लोकतांत्रिक सोच, विचार और व्यवस्था के लिए काला दिन साबित होगा। क्यों कि जब किसी लोकतांत्रिक देश में एक बुजुर्ग करोड़ों देशवासियों के हक के लिए आमरण अनशन पर बैठे तो उस दिन देश की जनता को सोचना चाहिए कि क्या यही लोकतंत्र की असली परिभाषा है कि नागरिकों को अपनी बात मनवाने और अपने हक पाने के लिए सरकार के सामने गिड़गिड़ाना पड़े और आमरण अनशन का रास्ता चुनना पड़े। क्या इसी लोकतांत्रिका व्यवस्था पर हमें और आपकों गर्व है। क्या यही है जनता की चुनी हुई सरकार जो हक मांगने पर आम आदमी पर को डंडे मारे और प्रताडि़त करे।

अगर एक लोकतांत्रिक देश में अपनी बात मनवाने के और हक पाने के लिए आमरण अनशन की जरूरत है तो फिर काहे का लोकतंत्र और काहे की लोकतांत्रिक व्यवस्था।

16 अगस्त को अन्ना अगर अनशन पर बैठते हैं तो देशवासियों को इस बात का गुमान अपने मन से निकाल देना चाहिए कि वो एक लोकतंात्रिक और स्वतंत्र देश के वासी हैं। सरकार के अडि़यल रवैये, मनमानी और जर्बदस्ती को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार ने ऊपर से लोकतंत्र का मुखौटा तो ओढ़ रखा है लेकिन अंदर ही अंदर वो तानाशाही और बेरहम है। क्योंकि लोकतंत्र में आमरण अनशन के रास्ते पर चलना ही लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विघटन और अंत की शुरूआत है।

डॉ. आशीष वशिष्ठ

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)