हिमालय टूटे या समुदंर सूखे या अब कबहुं न बरसे मेघा, हमारा क्या?
ख्वाहिशों और ख्वाबों की तितलियों के पीछे भागते-भागते न जाने कहां कहां भटकता रहा ज़िंदगी भऱ और रुसवाइयों की गिरफ्त में छटफटाता रहा ज़िंदगी भर कि अपने लोगों का काम तमाम हैं और हम इस बियांबां में तन्हा तन्हा कबंध हैं।

व्यक्ति पुजेविरुध् बाबासाहेब
इस गुस्से का हम क्या करें कि पानी अब सर ऊपर है?
गुस्सा फिर भी आता है।

गुलामों के इस गुस्से का क्या कीजिये, वे जी भरकर गरिया कर फिर मौके-बेमौके वोट वही हत्यारों की सत्ता के हक में ही डालेंगे और हमेशा अपने हक-हकूक से बेदखल होते रहेंगे और उनकी औरतों का आखेट वैसे ही होता रहेगा, जैसा हाल में ओड़ीशा के बोलांगीर में हुआ, जैसे हरियाणा में हुआ, जैसे खैरांजलि में हुआ, जैसे नागौर में हुआ और हम समरसता का वंदेमातरम् गाते रहेंगे।

अभी कुछ दिन और ज़िंदा रहूँगा

अधूरे लेखों को पूरा नहीं कर पाया तो

घर में जमा कागजों को छांटना है

और बहुत से काम के बर्तन हटाने हैं

जो कभी सहसा किसी की मेजबानी के वास्ते रखे थे

भारत माता अब भी लाल गोला के काली मंदिर में वैसे ही कैद है, जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में थी।

फर्क इतना है कि वंदे मातरम् गाने वाले ही अब ईस्ट इंडिया कंपनी के मालिक हैं।

पानी सर के ऊपर है।

अब इस गुस्से का भी कुछ करो दोस्तों।

बाबासाहेब फिर पैदा नहीं होंगे।

देवमंडल के देवता फिर-फिर अवतार हैं।

लेकिन गौतम बुद्ध फिर पैदा न होंगे।

बुतपरस्ती छोड़ो और इस गुलामी से आजादी के लिए जो भी संभव है, करो।

हमारा क्या

हिमालय टूटे या समुदंर सूखे या अब कबहुं न बरसे मेघा, हमारा क्या?

बुतपरस्त नहीं हूँ।

मेरे पिता को लोगों ने बुत बनाकर रखा है।

रोज-रोज उन पर हमले हो रहे हैं। ........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....

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हमलावर कभी उनके हाथ काटते हैं तो कभी उनका पांव।

फिर भी शहर के बीचोंबीच वे खड़े हैं जबकि कपड़ा लपेटकर रस्सियों से बांधकर लोग उनकी पुण्यतिथि मना रहे हैं।

आस्तिक और आस्था का करिश्मा है यह।

कुल मिलाकर यही मेरा देश है।

इस मृत्यु उपत्यका में वर्गीय वर्णीय शासन के खिलाफ जो रूहें हरकतें करती रही हैं, हमने अपनी बुतपरस्ती में उन्हें कैद कर लिया है।

बाकी उन रूहों का काम तमाम है।

पिंजड़े में कैद परिंदों के डैनों में होती नही कोई उड़ान। सारा महाभारत इसी मनुस्मृति राज को बनाये रखने के लिए भरतक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे, धर्मक्षेत्रे, रथी-महारथी तमाम दलितों के तमामों हनुमान बन चुके राम हैं और पैदल सेनाएं बहुजन बजरंगी। जाहिर है कि मुक्तिकामी जनता का मोक्ष हिंदुत्व के इस नर्क में नहीं है और न बदलाव के पक्ष के जनपक्षधर लोगों का कोई रिश्ता इन समान रूप में जनसंहारी वर्गीय वर्णवर्चस्वी नस्ली कारपोरेट राजकाज और राजकरण के रंग बिरंगे झंडेवरदारों में होना चाहिए। बल्कि मुक्ति का पथ तो अस्मिताओं के इस महातिलिस्म को तोड़कर ही बनाना होगा और इसके लिए राष्ट्रशक्ति से टकराने से पहले इस कारपोरेट मीडिया के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी गुरिल्ला युद्ध अनिवार्य है।

मानसून पर वायदा बाजार गर्म है और हर चीज मंहगी इतनी कि छुओं तो हाथ जल जाये। हर चीज जो लेवेल बंद है, ब्रांड हैं और चमचमाते सितारे जिन्हें बेचते हैं, इतनी जहरीली कि उस जहर का असर आहिस्ते-आहिस्ते होता है और पीढ़ी दर पीढ़ी रीढ़ गायब है। इस मुक्त बाजार का करिश्मा यह है कि इंद्रियों का काम तमाम है।

अब समुदंर गरमाये तो क्या

अब एवरेस्ट खिसकता रहे तो क्या

अब महानगरों की नींव में हो परमाणु धमाका कोई स्थगित तो क्या

तमाम ग्लेशियर पिघल जायें तो क्या ........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....

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हिमालय फटकर लावा बनकर बहने लगे तो क्या

महाभूकंप हो या महासुनामी, जीने वाले जियें, मरने वाले मरें, फिर राहत और बचाव का चाक चौबंद इंतजाम, आम लोगों का क्या

राजकाज हो अश्वमेध और धर्म हो अधर्म, विधर्मी विरुद्धे जिहाद तो क्या

भ्रष्टाचार में गढ़ी हो नैतिकता की सीढ़ियां और विशुद्धता के राज्यतंत्र में हो कत्लेआम एक के बाद एक तो हम कबंधों का क्या

हम आईपीएल कैसिनों और जुआघऱ की मनुस्मृति अर्थशास्त्र से लेकर बजट पोटाशियम सायोनाइड और अंडे सेंते लोगों पर दशकों से लिखते रहे हैं।

चियारियों और चियारिनों के हाई प्रोफाइल जलवे से आगाह करते रहे हैं, अब रंग-बिरंगे न्यूज ब्रेक ग्लोबल से जिनके मुंह पर उंगलियां, उनका क्या कहें।

कारपोरेट वकील फिर हरकत में हैं, कि बचाव करें देश बेचो ब्रिगेड का और हम भ्रष्टाचार के खिलाफ आग बबूला है, थोक में इस्तीफा मांग रहे हैं, जबकि यह सैन्यतंत्र की नींव मनुस्मृति का वर्गीय-वर्णीय नस्ली रंगभेद का असमता अन्याय समरसता का सारा तंत्र मंत्र यंत्र भ्रष्ट है। विशुद्धता-अशुद्ध है, रामायण और महाभारत हो, न हो।

बवाल कुछ भी कर लो, न तख्त बदलेगा और न ताज उछलेगा और न हमारी औकात है कि हम दाने का दाने का हिसाब मांगें या फिर उस खेत को जलाकर खाक कर दें जिसकी फसल पर हमारा कोई हक नहीं।

हमें क्या कि सारे के सारे किसान खुदकशी कर लें एकमुश्त

हमें क्या सारे के सारे कलकारखाने प्रोमोटरों बिल्डरों के हवाले हो जाये

हमें क्या कि खुदरा बाजार से बेदखल हो जाये तमाम कारे लोग

हमें क्या कि मेहनतकशों के सर सारे कलम कर दिये जाये

हमें क्या कि जमीन के इंच दर इंच पर हो स्त्री से बलात्कार या सामूहिक बलात्कार

हमें क्या कि हर बच्चा हो बंधुआ मजदूर

हमें क्या कि हर युवा रहे बेरोजगार

योगाभ्यास जारी है। ........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....

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आंनद तेलतुंबड़े कहते हैं कि बार-बार मुंबई दौड़कर जाते हो क्यों, मुंबई में पैसे बनते हैं और पैसा बनाने से किसी को फुरसत नहीं।

मैं कहता कि मराठी में भी लिखा कीजिये कि लोग अंग्रेजी जो समझते हैं, उनके सरोकार नहीं है और जिनके सरोकार हैं, वे अंग्रेजी नहीं समझते।

आनंद कहते कि बाबासाहेब अंबेडकर के बाद हमारी क्या औकात कि हम मूक वधिरों और अंधों की पीढ़ियों का जगा दें।

आनंद कहते कि मराठी में लिखकर क्या होगा, सड़ गया है महाराष्ट्र।

हमने जोर-शोर से बांग्ला में लिखना शुरू किया। हमने हस्तक्षेप पर पेज भी अलग बांग्ला का बनाया और बाकी भारतीय भाषाओं के पेज बनाने हैं।

कहीं कोई हलचल नहीं है।

हिंदी में साल दर साल हर मुद्दे पर जनजागरण में रात दिन लगा हूँ और हमारे लोग न पढ़ते हैं, न लाइक मारते हैं और न शेयर करते हैं।

अंग्रेजी में लिखता हूँ तो तमामो जनविरोधी तबकों को खबर हो जाती है और हमारे लोगों को कानोंकान खबर नहीं होती।

अब हम क्या कहें कि जिंदा हैं कि मर गये। अब हम क्या कहे कि महाराष्ट्र की तरह बंगाल भी सड़ेला है।

अब हम क्या कहें कि पिछले पच्चीस साल से हम बंद गली में कैद कुत्ता हैं, जो भौंक तो खूब रहा है, लेकिन चोर उचक्कों को काट नहीं सकता।

पंजाब पर खूब उछले हैं हम। एक से सवा लाख लड़ाने की विरासत आपरेशन ब्लू स्टार और सिख नरसंहार में दिवंगत है, अब अकाली राजनीति के सिवाय वहां जो है, वह दलितों के सारे राम के हनुमान बन जाने की हरिकथा अनंत है।

सुबह उठते ही इकोनामिक टाइम्स में मधुपर्णा दास का बाटम आलेख पर नजर चली गयी, जो उसने मिलन आसन पर लिखा है। मोदी-दीदी के साझा योगाभ्यास बांग्ला राजनय की अगली कड़ी है।

मधुपर्णा कल तक हमारे साथ थी। जाते-जाते हमने उससे कहा था कि मुझे बेहद खुशी है कि तुम हमें छोड़कर जा रही हो और उम्मीद है कि कुछ बेहतर होगा।........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....

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मैंने पेशेवर पत्रकार की हैसियत से न जाने कितनों की सिफारिशें की है, न जाने कितनों की कापियां जांची है और न जाने कितनों को घर से उठाकर कलमची बनाने का पापकर्म किया है।

भाषा की खुशबू और कलम की धार पहचानने में मुझसे आज तक गलती न हुई, हालांकि इस हिंदुस्तान में शायद सबसे नाकाम पत्रकार मैं खुद हूँ।

मधुपर्णा देहात बंगाल और जंगल महल पर जब लिख रही थी, एकदम शुरुआती दौर में, तभी मैंने दोस्तों से कहा था कि यह लड़की बहुत आगे जायेगी। मुझे खुशी है कि मैं गलत नहीं हूँ।

बहरहाल बंगाल में रात दिन हिचकाक की फिल्म का प्रसारण हो रहा है और हुजूम के हुजूम एक हादसे के शिकंजे में फंसे आभिजात परिवार की वीरान हवेली में उमड़ घुमड़कर सेल्फी खेंचने में उसी तरह मशगूल है, जैसे आत्ममुग्ध महाजिन्न जो चुन-चुन कर खवाहिशें पूरा करता है और अबाध रक्तनदियों की धार पर दोनों हाथ फैलाये जब तब टाइटैनिक हो जाता है।

मिलन योगाभ्यास जारी है।

देश जनता परिवार है।

समाजवाद भी तानाशाही में तब्दील।

ख्वाहिशों और ख्वाबों की तितलियों के पीछे भागते-भागते न जाने कहां-कहां भटकता रहा ज़िंदगी भऱ और रुसवाइयों की गिरफ्त में छटफटाता रहा ज़िंदगी भर कि अपने लोगों का काम तमाम हैं और हम इस बियांबां में तन्हा-तन्हा कबंध हैं।

राजीव लोचन साह दाज्यू से जब भी मुलाकात होती है, वे हमेशा चेतावनी देते हैं कि जमीन कहीं पक नहीं रही है और न जमीन के नीचे कोई भूमिगत आग है। आग की ख्वाहिश में होश में आकर देखो भी अब भी पहाड़ उतना ही सर्द है, जहां किसी तपिश का अहसास दरअसल किसी को होता नहीं है।

आत्ममुग्धता से बाहर भी निकलो यारों कि भूकंप, भूस्खलन और डूब में कैद लोगों को जगाना भी मुश्किल है। ........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....

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उसी हिमालय में हजारों सालों से कैद हमारी रूह समुंदर की गहराइयों में फना हैं और समुंदर गरमा रहा है, जंगल में फूल महके-दहके या बहके या बारूद की तरह फटे या जमीन पर लावा बह निकले या सीमेंट के अभयारण्यों में इंसानियत कभी खिलखिलाये-या कुछ भी न हो, इस कायनात में कहीं भी- अल निनो आखिरी कहर नहीं है।

मानसून फिर कभी हो या न हो, ग्लेशियर पिघले या न पिघले, सुनामियों और भूकंपों का सिलसिला बंद हो या न हो, कायनात बचे या बचे, इंसानियत मरे या जिये, मुक्त बाजार के महाजिन्न को बोतल से रिहा किया है हमने और वह जिन्न चुन-चुनकर ख्वाहिशें पूरी करने में लगा है, जिन्हें उसने आका माना हुआ है, ठीक उसी तरह, जिस तरह कत्लेआम में वह माहिर है, अरब की रातों में दरअसल कत्लेआम की यह कथा दर्ज नहीं है, जैसे इतिहास के पन्नों से मिटाये जा रहे हैं वे तमाम हरफ, जो गवाह हैं तमाम अश्वमेधों, तमाम राजसूय, आयजनों और तमाम नरसंहारों के और अब इतिहास सिर्फ वैदिकी मंत्र है और भूगोल महज अंतहीन कोई कुरुक्षेत्र, जहां अकेला खड़ा होना मना है।

कबंधों का पक्ष नहीं होता कोई। उधार के चेहरों में जुबान नहीं होती।

कबंध की कोई रूह नहीं होती।

जो सिर धड़ पर प्रत्यारोपित है, बहरहाल वह डिजिटल है, बायोमैट्रिक है और रोबोटिक है जो कमान से काम करता है और जिसका अपना कोई मत नहीं, मतातंर भी नहीं।

न सहमति का विवेक है और न असहमति का साहस है।

इस गुस्से का हम आखिर क्या करें, समझना पहेली है।

फिलहाल गुस्से का सबब दिनेशपुर से पिताजी की 14 वीं पुण्यतिथि मनाये जाने की तस्वीरें और खबरें है। मुझे उनकी पुण्यतिथि याद नहीं रहती और न उन्हें मैं श्रद्धांजलि की रस्म अदायगी से भूलना चाहता हूँ।

वे हमारी गुलामी की वारिस हैं, विरासत हैं। हमारी तकलीफों की आत्मा हैं वे और हमारी अंतहीन लड़ाई में उनकी कोई पुण्यतिथि हो नहीं सकती जैसे कि उनकी कोई जन्मतिथि नहीं होती।

इन तस्वीरों में जो कथा है, वह मैं समझ रहा हूँ और भीतर ही भीतर दहक रहा हूँ।........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....

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पिता की मूर्ति तो बनाकर बैठा दी गयी है लेकिन जनम मरण दिन के अलावा कोई उन्हें याद नहीं करता। साल भर कभी उनके हाथ तोड़ दिये जाते हैं तो कभी उनके पांव तोड़ दिये जाते हैं।

मूर्ति को कपड़ा लपेटकर रस्सियों से बांधकर श्रद्धांजलि की यह कौन सी रस्म अदायगी है, इस सोच सोचकर मन लेकिन दुर्वासा है। तपबल नहीं है, गनीमत है वरना न जाने किस किसको भस्म कर देता।

दरअसल पिता की यह मूर्ति इस देश में मूर्ति पूजा की असलियत है।

दरअसल गांधी और अंबेडकर समेत तमाम जो मूर्तियां हमने गढ़ ली हैं, वे सारी की सारी इसी तरह रस्सियों से बंधी हैं। कपड़ा लिपटा हो या न हो। हम ये मूर्तियां बनाते हैं, तोड़ने के लिए ही। जब तक तोड़ते नहीं हैं, बांधकर रखते हैं। ताकि वे हमारे काम आयें।

बसंतीपुर के चेहरे मेरे भाई पद्दोलोचन, पड़ोसी निताई दास और मेरे सबसे पुराने दोस्त टेक्का के अलावा इस तस्वीर में एको मेरी पहचान का नहीं है।

जब बसंतीपुर वालों को ही पुलिन बाबू याद नहीं हैं तो बाकी तराई वाले क्यों भला याद करें जबकि फनफनाता हुआ हिंदुत्व पल छिन पल छिन उस मूर्ति को खंडित कर रहा है क्योंकि हिंदू साम्राज्यवाद के लिए पुलिनबाबू काम की कोई चीज नहीं है और बाकी राजनीति ने उनका जितना इस्तेमाल करना था, उतना कर लिया है।

इसलिए हम बार-बार अनुरोध करते हैं कि बहुत कर लिया याद, जब उनकी लड़ाई से किसी को कोई मतलब नहीं तो इस बुतपरस्ती का क्या मतलब। वैसे ही हर मूर्ति विसर्जित होने के लिए बनती है, इसे भी विसर्जित कर ही दें, तो बेहतर है।

मसला लेकिन पिता की यह खंडित-विखंडित रस्सियों से बंधी मूर्ति नहीं है। वे हमारे लिए चाहे जितने खास हों, आखिरकार वे थे तो एक अदद आम आदमी।

यकीन मानिये कि जितनी दुर्गति मेरे पिता की मूर्ति की है, उससे कहीं ज्यादा दुर्गति गांधी और अंबेडकर की है।

भले ही उन्हें श्रद्दांजलि देने वालों का कुंभमेला लगता हो मौके बेमौके पर, मुक्त बाजार में उनका किसी भी तरह के इस्तेमाल की छूट है और उनके खरीददार खूब हैं।

गनीमत हैं कि पुलिन बाबू के खरीददार कोई नहीं है और आजीवन वंचित वर्ग के हक हकूक के लिए मरते खपते पुलिन बाबू का हिंदुत्व के एजेंडे के लिए कोई इस्तेमाल हो नहीं रहा है। ........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....

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जहां तक गुस्से की बात है, वह हमारे वजूद का हिस्सा है, क्योंकि जैसे मेरे पिता पुलिनबाबू मरने के चौदह साल बाद भी गुलामी की जंजीरों में कैद हैं, वैसे ही महामना गौतम बुद्ध से लेकर बाबासाहेब तक हजारों हजार साल से समता और न्याय की लड़ाई, मनुष्य और प्रकृति के अधिकारों की लड़ाई, अश्वेत और अछूतों, बहुजनों और मूलनिवासियों की लड़ाई लड़ने वाले हमारे तमाम पुरखे गुलामी की जंजीरों में कैद हैं।

जैसे साहित्य सम्राट बंकिम चंद्र ने मुर्शिदाबाद के लालगोला (अब लालगोला मुक्त जेल) में सन्यासी विद्रोहियों की गुलाम देश के प्रतीक बतौर जिस भारी लोहे की जंजीरों में बंधी काली मां के मंदिर में रहकर वंदे मातरम् की रचना की थी या विवादों के मुताबिक विद्रोहियों के रचे श्लोक को आधार बनाकर आनंदमठ लिखा था और जो वंदेमातरम् और भारतमाता दोनों की देह है, आजादी के सात दशक बाद भी वह जंजीरों में कैद हैं।

किसी ने मां काली की इस मूर्ति में कैद हजारों साल से गुलामी जीती भारतमाता की रिहाई के बारे में नहीं सोचा।

दो-दो बार सत्ता में आकर वंदे मातरम् को अनिवार्य करने वाले, राममंदिर बनाने की सौगंध खाने वाले, बच्चा-बच्चा राम के नाम बलिप्रदत्त करने वाले, बाबरी विध्वंस से लेकर गुजरात नरसंहार तक कोहराम मचाते