वस्तानवी के बस्ते से निकले सवाल
वस्तानवी के बस्ते से निकले सवाल
अमलेन्दु उपाध्याय
आखिरकार मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी दारुल उलूम के मोहतमिम पद से हटा ही दिए गए। वस्तानवी ने इस साल की शुरुआत में ही 10 जनवरी को हिन्दुस्तान में इस्लाम के सबसे ऊंचे दीनी तालीमी इदारों (धार्मिक शिक्षा केंद्रों) में से एक दारुल उलूम के मोहतमिम (कुलपति) पद का कार्यभार संभाला था। पद संभालने के फौरन बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि गुजरात के मुसलमानों को 2002 के दंगों को भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। हालांकि उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट देने से इंकार किया था। उनके इस बयान के बाद विवाद उठ खड़ा हुआ था और ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि इस विवाद के चलते ही उनकी कुर्सी चली गई।
अपनी बर्खास्तगी के बाद पत्रकारों से बात में उन्होंने कहा कि वह बहुत सारी चीजों से जुड़े हुए हैं और तालीम से उनका गहरा लगाव है और वें इससे आगे भी जुड़े रहेंगे। उनके मुताबिक उनके लिए यह मामला यहीं खत्म हो गया। उन्होंने कहा, मैं चाहता हूं कि दारुल उलूम का माहौल अच्छा बना रहे। यहां सियासत नहीं होनी चाहिए।
हालांकि ये उनकी दिल की आवाज़ तो कतई नहीं लगती है। जिस शख्स ने एक दीनी तीलीमी इदारे की अहम कुर्सी पर बैठते ही सियासी बयान दिया हो अगर वह कहे कि सियासत नहीं होनी चाहिए तो यकीं नहीं होता है। वस्तानवी के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। उनके बार बार ये दोहराने कि उनके लिए दारुल उलूम की प्रतिष्ठा बेहद अहम है और इसकी हिफाजत करना हमारा फर्ज है, उनकी बातों पर यकीं करना थोड़ा मुश्किल है। खुद उन्होंने एक अखबार से जो कहा है उसके मुताबिक़ तो वे भी सियासत कर रहे थे| देखें-"23-24 जुलाई की दो दिवसीय शूरा की बैठक में एक बार फिर मुझ पर एक लॉबी विशेष की ओर से इस्तीफे का दबाव बनाया गया। पर मैं इस्तीफा क्यों दूं? इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं था। जांच समिति की रिपोर्ट आधी-अधूरी पेश की गई। यूं तो रिपोर्ट में मुझे क्लीन चिट दे दी गई, लेकिन न तो हंगामा करने वाले छात्रों और न ही उन छात्रों को उकसाने वाले उस्तादों का पता ही लगाया गया। मैं और मेरे समर्थक बैठक में भरसक प्रयास करते रहे कि अन्य दो मुद्दों की भी जांच कराई जाए, जिससे सच्चाई सामने आ सके। इसके लिए या तो नए सिरे से कमेटी का गठन किया जाए या पहले से गठित समिति का वक्त बढ़ा दिया जाए। ऐसा करने पर ही सच्चाई सामने आ सकती थी। लेकिन इस अनुरोध पर गौर नहीं किया गया। मांग होती रही, तो केवल और केवल इस्तीफे की। और इसके लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं था। फिर तय हुआ मतदान। मुझे हटाने पर तुली लॉबी कामयाब हो गई और मुझे मतदान के जरिये हटाने का फैसला कर लिया गया, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। " यहाँ उन्होंने जो शब्द "मैं और मेरे समर्थक " प्रयोग किया है वह यह कहने के लिए काफी है कि बात इतनी सहज है नहीं जितनी वे दिखाना चाहते हैं.
इसी तरह उनका यह कहना, "एक स्थानीय ताकतवर लॉबी नहीं चाहती है कि दारूल उलूम से उसका प्रभाव खत्म हो। कोई नई सोच, नया शख्स यहां प्रभावी हो। इस लॉबी की पूरी कोशिश रही कि बस किसी भी तरह मुझे हटा दिया जाए। जबर्दस्त दबाव बनाया गया। साजिशें रची गईं।" साबित करता है कि दारुम उलूम में दो धड़े बन गए थे और एक धड़े की अगुवाई खुद वस्तान्वी कर रहे थे|
दारुल उलूम हिंदुस्तान की आज़ादी की जंग के दौरान भी खालिस वतनपरस्त बना रहा और जंग-ए-आज़ादी में उसकी कुर्बानियों को भुलाया नहीं जा सकता। मरहूम मौलाना असद मदनी जंग-ए-आज़ादी के हीरो रहे। जब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे का सवाल आया तो मौलाना ने हिंदुस्तान का समर्थन किया था। आज़ादी के बाद भी लगातार दारुल उलूम वतनपरस्ती का परचम थामे रहा। यही वजह है कि कट्टरपंथी मुसलमानों को हमेशा दारुल उलूम से एक चिढ़ रही है। हालांकि अन्य मज़हबी इदारों की तरह यहां भी कुछ गिरावट देखने को मिली हैं। लेकिन दारुल उलूम चाहे दहशतगर्दी का मामला हो और चाहे पाकिस्तान के दुष्प्रचार को मुंह तोड़ जवाब देने का, हमेशा सीना ताने खड़ा रहा है।
इस प्रकरण में बहुत शातिराना ढंग से यह प्रचारित किए जाने की कोशिश की जा रही है कि मौलाना वस्तानवी की लड़ाई कट्टरपंथी मुसलमानों से थी और वे बहुत प्रगतिशील हैं। दोनों ही बातें सरासर गलत हैं। इस मुल्क में एक फैशन सा बनता जा रहा है और इसमें हमारे मीडिया का भी अहम रोल है, कि अगर कोई मुसलमान मोदी और संघ की तारीफ कर दे तो वह राष्ट्रवादी बाकी सारे जेहादी। ठीक उसी तरह जैसे शाही इमाम की तारीफ कर देने से कोई हिन्दू धर्मनिरपेक्ष नहीं हो जाएगा इसी तरह मोदी और संघ की तारीफ कर देने भर से कोई मुसलमान प्रगतिशील और राष्ट्रवादी नहीं हो जाएगा। कमोबेश मौलाना वस्तानवी या तो जानबूझकर इस खेमे की सहानुभूति पाने के लिए ऐसा कर रहे थे या भूलवश इस्तेमाल हो गए।
इसी तरह दूसरी बात, दारुल उलूम में कम्प्यूटर, हिंदी, गणित और साइंस की पढ़ाई सिर्फ वस्तानवी की देन नही हैं। समय के साथ दारुल उलूम क्या छोटे छोटे मदरसे भी बदल रहे हैं और घुटनों से ऊंचे पायचों का पैजामा पहनने वाले तुल्बा (छात्र) अब दीनी तालीम के साथ साथ साइंस और दूसरी तरक्कीपसंद तालीम ले रहे हैं। इसी तरह वस्तानवी के आने से पहले ही दारुल उलूम में कंप्यूटर, हिंदी, साइंस और गणित की पढ़ाई भी हो रही थी।
हालांकि वस्तानवी बड़े आलिम (विद्वान) हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन सिर्फ बड़े आलिम होने के नाते उनकी गलतियों को जायज भी तो नहीं ठहराया जा सकता। यह आरोप भी तर्कसंगत नहीं है कि वस्तानवी, मदनी परिवार के वर्चस्व को तोड़ने की लड़ाई लड़ रहे थे अगर ऐसा होता तो वे पहले ही मोहतमिम न बनाए गए होते। अगर मोहतमिम बनने में उनकी योग्यता का हाथ है तो उसमें उनकी दूसरी योग्यता भी काम में आई कि वे मौलाना अरशद मदनी के समधी भी बताए जाते हैं। फिर कहाँ से परिवारवाद के खिलाफ उनकी लड़ाई आ गई? इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तानवी परिवारवाद के खिलाफ लड़ रहे थे।
जहां तक परिवारवाद का सवाल है तो सिर्फ दारुल उलूम ही नहीं तमाम अल्पसंख्यक कैरेक्टर के शिक्षण संस्थान इस बीमारी से ग्रस्त हैं। लगभग सभी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन के झगड़े अदालतों में चल रहे हैं। इसलिए दारुल उलूम में परिवारवाद कोई नई चीज़ नहीं है। रही बात सियासत की तो दारुल उलूम का शुरू से ही सियासी रूझान रहा है। मौलाना असद मदनी खुले आम कांग्रेस के समर्थक रहे और मौजूदा समय में महमूद मदनी भी एक सियासी दल से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन किसी के जाती सियासी ख्यालात होना अलग बात है लेकिन अगर किसी दीनी तालीमी इदारे के सियासी ख्यालात हैं, (जैसे कि शिशु मंदिरों के खुले आम हैं) तो यह धर्मनिरपेक्ष संविधान, शैक्षिक माहौल और मज़हब तीनों के लिए खतरनाक हैं।
अगर ये आरोप सही हैं कि मोदी की तारीफ करने के कारण ही वस्तानवी की छुट्टी हुई तो यह सही तो इसलिए है कि उन्हें मोहतमिम की हैसियत से ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था लेकिन यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण भी है क्योंकि जरूरी नहीं कि हर किसी के सियासी ख्यालात वही हों जो मदनी खानदान के हैं। वस्तानवी के बस्ते से निकले सवाल गहरे चिंतन मनन की जरूरत के संकेत दे रहे हैं।


