वास्तविक स्वतंत्रता और 1947 की स्वतंत्रता का समझौता
वास्तविक स्वतंत्रता और 1947 की स्वतंत्रता का समझौता
देश की स्वतंत्रता का बुनियादी सवाल (Basic question of country's independence) न तो देश के विकास का सवाल था और न ही केवल ब्रिटिश राज से मुक्ति (Liberation from the British Raj) का सवाल था बल्कि वह मूलत: व मुख्यत: ब्रिटेन द्वारा बनाए गए लुटेरे आर्थिक सम्बन्धों से मुक्ति का सवाल था और आज भी हैं। फिर अब यह सवाल ब्रिटेन से ही ऐसे सम्बन्धों से मुक्ति का का प्रश्न नहीं रह गया है, बल्कि अमेरिका, फ़्रांस,जर्मनी,जापान जैसे अन्य धनाढ्य लुटेरी शक्तियों के साथ बने लूट के सम्बन्धों से मुक्ति का सवाल बन गया है। उनकी विशालकाय और महा लुटेरी कम्पनियों से लगातार बढ़ते सम्बन्धों से उनकी पूंजी व तकनीक पे निरंतर बढ़ाये जा रहे परनिर्भरता व प्रभुत्व के सम्बन्धों से मुक्ति का सवाल बन गया है।
1947 की स्वतंत्रता का समझौता और वास्तविक स्वतंत्रता | 1947 Freedom Agreement and Real Freedom
देश की स्वतंत्रता की वर्षगाँठ को आँख मूँदकर मनाने से कहीं ज्यादा जरूरी बात यह देखा जाना चाहिए कि उसकी असलियत क्या है ?
आमतौर पर ब्रिटिश राज के खात्मे या सही कहें तो अंग्रेजों द्वारा बनाई गई राजव्यवस्था (British polity) से अंग्रेजों के हटने तथा उस पर देश के प्रतिनिधियों के चढ़ने और उसके बाद हुए देश के विकास को तथा देशवासियों को मिले मताधिकार व अन्य अधिकारों को स्वतंत्रता मान लिया जाता है। ऐसा मानना बताना इसलिए भी ठीक नहीं कि यह दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथ्यों को नजरअंदाज कर देती है। पहले तो यह कि 1757 के ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज की स्थापना कम्पनी द्वारा इस देश की श्रम सम्पदा के व्यापारिक लूट के लिए और उस पर कब्जा जमाने के लिए किया गया था। देश और उसकी अर्थव्यवस्था को कम्पनी के लुटरे व्यापारिक, आर्थिक सम्बन्धों में अधिकाधिक बाँधने के लिए किया गया था। देश की परतंत्रता की बुनियाद में यही लुटेरे व्यापारिक सबन्ध ही थे। कम्पनी राज और उसके कायदे कानून, शासन - प्रशासन, तो इस लूट को संचालित करने वाले राजनीतिक व शासकीय ढाँचे मात्र थे। इन्हीं सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए न केवल ब्रिटिश राज तथा शासन - प्रशासन का विस्तार किया जाता रहा, अपितु देश की अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश जरूरतों के लिहाज़ से ढाला जाता रहा। उसे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनाया जाता रहा। फिर बाद के दौर में ब्रिटिश राज द्वारा देश की अर्थव्यवस्था को ब्रिटेन के औद्योगिक व तकनीकी विकास पर निर्भर बनाने का काम किया जाता रहा।
जहाँ तक देश के आधुनिक औद्योगिक एवं तकनीकी विकास से देश की आज़ादी की उपलब्धियाँ बताने, उसका गुणगान करने का मामला है तो यह भूलना नहीं चाहिए कि इस देश के आधुनिक विकास यातायात, संचार, रेलों, सड़कों और बन्दरगाहों आदि के विकास को तथा आधुनिक उद्योगों के प्रारम्भिक विकास आधुनिक शिक्षा, चिकित्सा आदि के विकास का और फिर आधुनिक युग के शासन - प्रशासन तथा नीतियों, कानूनों आदि के विस्तार का काम स्वयं ब्रिटिश कम्पनियों और ब्रिटिश शासकों द्वारा आरम्भ किया गया था। यह सारे काम ब्रिटेन द्वारा देश के लूटपाट के लिए और देश पर राजपाट के लिए आवश्यक थे।
इसीलिए देश में उस वक्त के विकास को देश की स्वतंत्रता का नहीं अपितु परतंत्रता का ही विकास माना गया।
अत: देश की स्वतंत्रता का बुनियादी सवाल न तो देश के विकास का सवाल और न ही केवल ब्रिटिश राज से मुक्ति का सवाल था, बल्कि वह मूलत: व मुख्यत: ब्रिटेन द्वारा बनाए गए लुटेरे आर्थिक सम्बन्धों से मुक्ति का सवाल नहीं रह गया है, बल्कि अमेरिका, फ्रांस जर्मनी, जापान जैसे अन्य धनाढ्य लुटेरी शक्तियों के साथ बने लूट के सम्बन्धों से मुक्ति का सवाल बन गया है। उनकी विशालकाय और महा लुटेरी कम्पनियों से लगातार बढ़ते संबंधों से उनकी पूंजी व तकनीक पर निर्भरता व प्रभुत्व के सम्बन्धों से मुक्ति का प्रश्न है ? इन सम्बन्धों से मुक्ति ही देश की वास्तविकता स्वतंत्रता है। लेकिन बिडम्बना यह है कि देश के धनाढ्य उच्च एवं हुकुमती हिस्सों द्वारा इन सम्बन्धों को घटाने - तोड़ने की जगह आर्थिक सम्बन्धों को बढ़ाने का काम किया जाता रहा है और वह भी देश की विदेशियों पर बढ़ती परनिर्भरता को तथा देश पर उनके बढ़ते प्रभुत्व और उसकी परतंत्रता को नजर अंदाज़ करके।
साक्ष्य के तौर पर देखें तो जुलाई 1991 में केंद्र की कांग्रेस सरकार द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देशों अनुसार उदारीकरणवादी, निजीकरणवादी तथा वैश्वीकरणवादी नीतियों को लागू किया गया था। उसके तुरंत बाद विभिन्न राजनितिक पार्टियों तथा प्रचार माध्यमों के एक हिस्से द्वारा इन नीतियों से देश पर विदेशियों की लूट व प्रभुत्व के बढने का खतरा भी बताया जा रहा था। यह भी कहा जा रहा कि जब एक ईस्ट इंडिया कम्पनी देश को गुलाम बना सकती है तब खुली छूट व अधिकार के साथ - साथ अनेकों विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमन से देश कि स्वतंत्रता व सम्प्रभुता का खतरे में पड़ना निश्चित है। लेकिन इन अंतर्राष्ट्रीय नीतियों विरोध 3 - 4 सालों में ही खत्म हो गया।
1996 के बाद देश की सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ इसे केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारों के जरिये लागू करने व बढ़ाने में लग गयीं। फलस्वरूप इस नीतियों के जरिये साम्राज्यी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की घुसपैठ और साम्राज्यी पूंजी तकनीक तेज़ी से बढ़ती चली गयी। इस राष्ट्र का साम्राज्यी देशों के साथ खासकर अमेरिका के साथ आर्थिक सम्बन्धों में भी तीव्र गति से बढ़ाव होता रहा। साथ ही अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाने का सुर भी निरन्तर बढ़ता रहा है।
साधारण कूटनीतिक सम्बन्धों तक में उसका देश की हुकूमत व हुकमरानो पर बढ़ता प्रभुत्व स्पष्ट झलकता रहा है। साम्राज्यी ताकतों से बढ़ते जा रहे इन सम्बन्धों में देश के हर क्षेत्र को विदेशी पूंजी व तकनीक पर अधिकाधिक निर्भर बनाया जाता रहा है। इसे बढ़ाने का काम साम्राज्यी ताकतों और उनके साथ गठजोड़ करने वाले इस देश की केन्द्रीय - प्रांतीय सरकारों द्वारा निरंतर किया जाता रहा। इसके फलस्वरूप राष्ट्र के संसाधनों पर विदेशी ताकतों को मालिकाना अधिकार भी मिलता जा रहा है।
समूचा देश विदेशी ताकतों के, उनकी पूंजी व तकनीक, उनकी नीतियों, निर्देशों के अधिकाधिक प्रभुत्व में रहा है। लेकिन क्या विदेशी साम्राज्यी शक्तियों और विदेशी कम्पनियों के निर्भरता व प्रभुत्व को बढ़ाने का काम देश को देश को परतंत्रपूर्ण सम्बन्धों में बाधने का काम महज बीस सालो से किया जा रहा है ? एकदम नहीं।
सच्चाई तो यह है कि ऐसे परनिर्भरता व प्रभुत्व के सम्बन्धों को, विदेशी शोषण लूट के सम्बन्धों को 1947 के स्वतंत्रता या कहिये ब्रिटेन के साथ एक स्वतंत्रता के हुए समझौतों में बरकरार रखा गया और बाद में इसे धीरे - धीरे ही सही पर निरन्तर बढ़ाने का काम किया जाता रहा। फिर अब पिछले बीस सालों से उन्हीं सम्बन्धों को वैश्वीकरण के नाम से खुलेआम बढ़ाया जा रहा है। इसीलिए 1947 के स्वतंत्रता को स्वतंत्रता का समझौता ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता से समझौता भी कहा जाना चाहिए। क्योंकि देश की वास्तविक स्वतंत्रता के लिए विदेशी लूटपाट के सम्बन्धों को खत्म करने कि जगह उसे बनाए रखा गया। इसके दो सबूत हैं - एक तो यह कि देश की जनतांत्रिक प्रणाली द्वारा उन तमाम कानूनों को बनाए रखा गया है, जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने देश की लूटपाट व गुलामी के लिए बनाया व लागू किया था। 1947 में ब्रिटिश राज से अंग्रेज तो हटे और उनकी जगह देश के प्रतिनिधि चढ़े, पर राज का बुनियादी ढाँचा वही रहा। उसे तोड़ा - हटाया नहीं गया और न ही देश और देशवासियों के हितों के अनुसार उसे नये सिरे से बनाया गया। इसका दूसरा साक्ष्य यह है कि 1947 के बाद देश से अंग्रेज हटे, पर उनकी पूंजियाँ कम्पनियाँ देश में ही बनी रह गयीं। फलस्वरूप उनकी औद्योगिक व्यापारिक व महाजनी शोषण लूट भी बनी रही।
इतिहास में यह बात दर्ज़ है कि 1940 - 42 के बाद तमाम ब्रिटिश कम्पनियाँ इस देश में अपनी शाखा तेज़ी से खड़ी करने लगी थीं। 1942 - 44 के बाद हिन्दुस्तान लीवर की शाखा कम्पनी हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड की तरह 108 कम्पनियों ने इंडिया लिमिटेड का पंजीकरण करवाया। यह काम आगे भी होता रहा। फिर ब्रिटिश कम्पनियों तथा इस देश के धनाढ्य वर्गो कीं देशी कम्पनियों के बीच साठ गाँठ भी बढ़ती रही। उदाहरण - जून 1945 में बिडला ब्रदर्स लिमिटेड तथा इंग्लैण्ड के इनफील्ड संगठन के बीच मोटर कारों के निर्माण के लिए तथा टाटा ग्रुप और ब्रिटेन के इम्पीरियल केमिकल्स इण्डस्ट्रीज में भारी रसायन उद्योग के लिए समझौता हुआ।....
इसके अलावा भारत ब्रिटेन की संयुक्त कम्पनियाँ भी इस दौर में बनती रहीं। इस बढ़ते गठजोड़ के मद्देनजर ही देश के प्रसिद्ध उद्योगपति जी.डी. बिड़ला ने ब्रिटिश पूंजी पर बोलते हुए यह बात कही कि - मैं नहीं समझता कि इस देश क़ी ब्रिटिश कम्पनियों का मालिकाना छीना जाएगा। ब्रिटिश फर्में अपना काम जारी रखेगी।
1947 के स्वतंत्रता के समझौते में ब्रिटिश कम्पनियों द्वारा तथा ब्रिटिश पूंजी व तकनीक द्वारा इस देश के श्रम सम्पदा को लूटने - पाटने के सम्बन्धों को बरकरार रखा गया। उपरोक्त प्रक्रियाएँ तथा बिडला जी का बयान भी इसी बात सबूत है।
फिर 1947 के बाद ब्रिटिश कम्पनियों के अलावा अमेरिका, फ्रांस, जर्मन, जापान से साम्राज्यी देश क़ी लुटेरी पूंजी व तकनीक के साठ - गाँठ, उनकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ राष्ट्र के सम्बन्धों को जोड़ा जाता रहा है। यह काम राष्ट्र व राष्ट्र क़ी व्यापक जनता क़ी स्वतंत्रता तथा आत्म निर्भरता व विकास को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि देश के धनाढ्य व उच्च हिस्सों के लाभ, मुनाफों, पूंजियों, परिसम्पत्तियों को बढ़ाने तथा देश के उन संभ्रांत हिस्सों के उच्चता को बढ़ाने के लिए किया जाता रहा।
आत्मनिर्भर भारत | Self reliant india
एक तरफ तो देश को आत्म निर्भर बनाने के नारे (Slogans to make the country self dependent) लगाये जाते रहे, दूसरी तरफ साम्राज्यी पूंजी व तकनीक पर देश क़ी निर्भरता को बढ़ाया जाता रहा। इस निर्भरता को बढ़ाने में बाहर से साम्राज्यी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा तथा भीतर इस देश क़ी धनाढ्य कम्पनियों द्वारा सर्वाधिक प्रयास किये जाते रहे। देश क़ी सरकारें उन्हीं के हितों के अनुसार नीतियाँ व सुधार लागू करती रहीं। लेकिन इसी के फलस्वरूप देश पर विदेशियों क़ी खासकर अमेरिका का प्रभुत्व बढ़ता रहा। यह देश क़ी विदेशी पूंजी व तकनीक पर बढती परनिर्भरता ही नहीं थी, बल्कि उसी के साथ अमेरिका जैसी ताकतों के प्रभाव -प्रभुत्व का देश पर बढ़ना भी था। हालाँकि 80 तक यह प्रक्रिया थोड़ी धीमी रफ़्तार से और थोड़े अंकुश, नियंत्रण के साथ बढ़ती रही। लेकिन 80 - 85 के बाद लागू क़ी गयी उदारीकरणवादी नीतियों के जरिए इस प्रक्रिया में तेज़ी आ गयी। फिर 1991 में घोषित नीतियों के बाद तो यह प्रक्रिया तीव्र गति से बढ़ने लगी। साम्राज्यी ताकतों पर देश क़ी बढ़ती परनिर्भरता के साथ व हर क्षेत्र में उनका प्रभुत्व का सम्बन्ध भी बढ़ता गया।
विदेशियों पर बढ़ते परनिर्भरता एवं प्रभुता के सम्बन्धों का परिणाम जनसाधारण के शोषण लूट को बढ़ाने वाले सम्बन्धों के रूप में, उनके रोजी -रोजगार को तोड़ने वाले सम्बन्धों के रूप में राष्ट्र - विरोधी, जनविरोधी सम्बन्धों के रूप में आता रहा। यह राष्ट्र व राष्ट्र के व्यापक जनसाधारण क़ी स्वतंत्रता नहीं बल्कि उसका हनन है। उपरोक्त सम्बन्धों के जरिए हनन है। राष्ट्र क़ी स्वतंत्रता का, साम्राज्यी कम्पनियों द्वारा, साम्राज्यी पूंजी तथा तकनीक तथा उनकी सरकारों द्वारा फिर उन्हीं के साथ देश के धनाढ्य एवं उच्च वर्गो तथा सरकारों द्वारा किया जाता रहा हनन है। यह बढती परनिर्भरता के साथ परतंत्रता का फैलाव बढ़ाव है।
अत: अब साम्राज्यी ताकतों से परनिर्भरता एवं परतंत्रता को तोड़कर राष्ट्र को पूर्ण व वास्तविक स्वतंत्रता दिलाने का काम देश क़ी सरकारे तथा देश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से कर भी नहीं सकते।
अब राष्ट्र व राष्ट्र के जनसाधारण को विदेशी ताकतों और राष्ट्र में उनके सहयोगियों से राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का भार जनसाधारण को ही उठाना है। अब उसे ही परनिर्भरता व परतंत्रता को बढ़ाने वाली वैश्वीकरण नीतियों का विरोध करना तथा उसे खारिज करना है।
फिर वर्तमान दौर में चले आ रहे ब्रिटिश राज के ढाचे का उसके औपनिवेशिक, विदेशी देशी धनाढ्य कम्पनियों एवं उच्च हिस्सों के अधिकारों को घटाने व जनवादी राज का निर्माण करना है। विदेशी साम्राज्यी ताकतों के साथ बनते बढ़ते रहे परनिर्भरता व प्रभुत्व के सम्बन्धों का अन्त करना है। इस सबके लिए सजग व संगठित होकर संघर्ष करना होगा। वास्तविक राष्ट्र - स्वतंत्रता जन - स्वतंत्रता का पथ जन संघर्ष के इसी रणनीति से प्रशस्त होगा। यह एक बड़ा प्रश्न है हमारे मुल्क के आवाम के लिए ?
सुनील दत्ता


