स्वामी दयानंद सरस्वती को मरणोपरांत पद्मभूषण?

गोस्वामी तुलसी की अगली बारी या सूर या कबीर या रसखान या मीराबाई की?

यकीन मानिये कि आखर पढ़ लेने की तमीज़ आते ही हमने सत्यार्थ प्रकाश ना पढ़ा होता तो यह टिप्पणी करने की जुर्रत न करता। वैसे पद्म पुरस्कारों का ऐलान होते ही अनुपम खेर को पद्म भूषण के बहाने बहस चल पड़ी थी।

पलाश विश्वास

अब हमारा शुरू से मानना रहा है कि नोबेल पुरस्कार भी राजनीतिक होता है तो पद्म सम्मान तो सत्ता वर्चस्व का दरबारी विमर्श है।

इसीलिए मजा लीजिये कि अनुपम खेर को पद्म भूषण, सईद जाफरी को मरणोपरांत पद्मश्री, धीरुभाई अंबानी को पद्म विभूषण और खेर साहेब की पांत में सानिया, साइनी के साथ मरणोपरांत खड़े स्वामी दयानंद सरस्वती

अब दुनिया वालों, हम पर रहम इतना करना कि मरने पर हमारी मौत पर न आंसू बहाना और मारे जाने पर हमें शहादत अता मत फरमाना कि हमारी याद पर किसी कुत्ते बिल्ली को पेशाब करने का मौका न मिल जाये।

कृपया याद रखें कि दुनिया में कुछ भी मौलिक नहीं होता। हम तो लाउडस्पीकर हैं और मूक वधिर मनुष्यता की आवाज प्रसारित करते हुए, उनसे लिया उन्हीं को वापस करके कायनात को अपना कर्ज अदा कर रहे हैं।

हमें चैन से मर जाने दें कि हम बेहद डर गये कि किसी खेमे ने अगर हमें खुदा न खास्ता महान मान लिया तो कहीं स्वामी दयानंद सरस्वती की तरह हमें कारपोरेट हस्तियों और रंग बिरंगी सेलिब्रिटियों के साथ धर्मांध राजनीतिक समीकरण के तहत हमारा यह अश्वेत अछूत वजूद नत्थी होकर शुद्ध न हो जाये क्योंकि हमारी सारी लड़ाई अशुद्ध देसी लोक की आवाजें दर्ज कराने की है और हम गंगा नहाकर पाप स्खलन करने वालों में से नहीं हैं।

इतिहास बदलने वालों को अक्सर ही पागल कुत्ता काट लेता है।

हम सिर्फ यह समझने में असमर्थ हैं कि इतने चाकचौबंद सुरक्षा इंतजाम में पागल कुत्ता कहां से रायसीना हिल्स में दाखिल हो गया और किस पागल कुत्ते के काटने पर स्वामी दयानंद सरस्वती को पुनरुज्जीवित करने की जरूरत आन पड़ी।

पृथ्वीराज चौहान के बाद तो हम इकलौते बिरंची बाबा को ही हिंदू ह्रदय सम्राट मान बैठे थे। अब स्वामी जी पधारे हैं तो किन-किन चरणचिन्हों में हम आत्मा फूकेंगे, पहेली यही है।

बहरहाल पागल कुत्ते दसों दिशाओं में अश्वमेधी घोड़े बनकर दौड़ रहे हैं। उनकी टापे हैं नहीं और न उनके खुर हैं, सिर्फ वे भौंकते हैं, काटने के दाँत होते तो न जाने कितने लाख करोड़ का सफाया हो गया रहता इस राजसूय यज्ञ आयोजन में भारततीर्थे कुरुक्षेत्रे।

विदेशी पूँजी, विदेशी हित के बाद अब बिदेशी फौजों की मौजूदगी में गणतंत्र महोत्सव

अरसा बाद टीवी पर परेड की झाँकियाँ देख लीं। मरने से पहले स्वर्गवास का अहसास हो गया। विदेशी पूँजी, विदेशी हित के बाद अब विदेशी फौजों की भी मौजूदगी अपने गणतंत्र महोत्सव के मौके पर राजपथ पर मनोहारी दृश्य। सत्तर साल बूढ़ी आजादी यकबयक जवान हो गयी कि सैन्यशक्ति से हमने दुनिया को जतला दिया कि हम भी महाशक्ति हैं।

इस पर तुर्रा यह कि विश्वयुद्ध के विदेशी स्मारक इंडिया गेड की जगह वहीं फिर भव्य रमामंदिर की तर्ज पर देशी असली स्मारक तानने का अभूतपूर्व निर्णय। हमें अपने चर्म चक्षु से उस स्मारक का दर्शन भले हो न हो, वह बनकर रहेगा और तब तक शायद हिंदू राष्ट्र का भव्य राममंदिर भी बन जाये। इस बंपर में खास ऐतराज भी नहीं है क्योंकि बांग्लादेश विजय की स्मृति में इंदिराम्मा ने अमर ज्योति पर श्रद्धांजलि की परंपरा डाली तो विश्व विजेता बिरंची बाबा टायटैनिक महाजिन्न के राजसूय का स्मारक भी बनना चाहिए।

दफ्तर में ही अपने पच्चीस साल के पुरातन सहकर्मी गुरुघंटाल जयनारायण ने यक्ष प्रश्न दाग दिया माननीय ओम थानवी का ताजा स्टेटस को पढ़कर कि इस ससुरे पद्म सम्मान को लोग कहां लगाते हैं, खाते हैं कि पीते हैं। पहले से सम्मानित प्रतिष्ठित लोगों पर राष्ट्र का ठप्पा लगाना क्यों जरूरी होता है।

इस पर गुरुजी ने लंबा चौड़ा प्रवचन दे डाला जिसे जस का तस दोहराना जरूरी भी नहीं है। सिर्फ इतना बता दें कि जयनारायण प्रसाद भारत के किंवदंती फुटबॉलर थे जो ओलंपिक सेमीफाइनल तक पहुंचने वाली टीम में पीके बनर्जी और चुन्नी गोस्वामी के साथ ओलंपियन हैं और भुक्तभोगी जयनारायण का कहना है कि पद्म पुरस्कार उन्हें भी मिला, जिसका उन्हें दो कौड़ी का फायदा न हुआ।

जाहिर सी बात है कि मेवालाल दलित थे और बंगाल और भारत को गर्वित करने के बावजूद उनका सामाजिक स्टेटस हम जैसे स्थाई सबएडीटर जितना भी नहीं था। खेल छोड़ने के बाद उनके सामने भूखों मरने की नौबत आ गयी।

बकौल जयनारायण किसी कुत्ते ने भी उनका हालचाल नहीं पूछा। परिवार साथ न दिया होता तो वे लावारिस मर जाते और बंगाल या बाकी भारत में उस टीम की जयजयकार के मध्य मेवालाल का नाम कोई लेती नहीं है।

तो अब नेताजी को भी भारत रत्न देर सवेर मिलना तय

बहरहाल हमें इस विवाद में पड़ना नहीं है कि कैसे किस किसको कौन सा सममान किस समीकरण के तहत मिला और पद्म सम्मान या दूसरे पुरस्कारों की कसौटी क्या है और वरीयता कैसी तय होती है।

मसलन नेताजी को मरणोपरांत भारत रत्न देने की सिफारिश थी। अब नेताजी फाइलें प्रकासित करने के बाद भारत सरकार ने उनकी मृत्यु हो गयी है, ऐसा मानने के लिए उनके परिजनों को मना लिया। तो नेताजी को भारत रत्न अब देर सवेर मिलना तय है।

जब सचिन तेंदुलकर क्रिकेट खेलकर सर्वश्रेष्ठ बिकाऊ आइकन हैं तो अंबेडकर के हवाले गाँधी ने नहीं, देश को आजाद कराया नेताजी ने, यह फरमान जारी होने के बाद एक अदद भारत रत्न तो बनता है।

हम सिर्फ स्तंभित है कि इतनी प्रलयंकर केसरिया मीडिया ब्लिट्ज के बाद गाँधी हत्या का यह अभिनव उपक्रम अब तक नजर्ंदाज क्यों है और अगर बाबासाहेब ने सचमुच ऐसा कह भी दिया है तो उनका वह उद्धरण अंबेडकरी फौज के हाथ अब तक क्यों नहीं लगा, जबकि मीडिया को झख मारकर ब्रेकिंग न्यूज डालकर केसरिया जनता को बताना पड़ रहा है कि देश को आजाद गाँधी ने नहीं, बल्कि नेताजी ने कराया।

नेहरू वंश के सफाये के बाद इस झटके से कांग्रेस कैसे निपटेगी, इस बारे में वे हमारे विचार तो सुनने नहीं जा रही है तो यह अपना उच्च विचार जाया नहीं करने वाले हैं।

वैसे हमारी सेवा इस केसरिया परिदृश्य में जारी रहने की कोई संभावना नहीं है। खाने-पीने-जीने का फिर कोई सहारा भी नहीं है। सर पर छत नहीं है और फिर मुझे कोई रखेगा नहीं। ऐसे फालतू आदमी के लिए राजनीति में पुनर्वास सबसे बढ़िया विकल्प है और देश को हमेशा बूढ़े नेतृत्व की जरूरत होती है। फिर इतना तो पिछले चालीस साल से कमाया है कि देश के किसी भी कोने से हम चुनाव लड़ सकते हैं। दिल्ली से कोलकाता तक। चाहे तो अपराजेय दीदी का मुकाबला भी कर सकते हैं।

जीने का सबसे आसान तरीका यह है और इसमें भविष्य न केवल उज्जवल है बल्कि सुरक्षित भी है चाहे हारे या जीते।

अव्वल तो हमें कोई दल अपने दलदल में खींचने का जोखिम उठायेगा नहीं। फिर ताउम्र लड़ने का जो मजा है, उससे हम हरगिज बेदखल भी नहीं होना चाहते और भारतीय जनता की फटीचरी में जिस माफिया गिरोह का सबसे बड़ा कृतित्व है, उसमें दाखिल होकर हम खुदकशी भी करना न चाहेंगे।

अब हम प्रगतिशील हों या न हों, अंबेडकरी हों या न हों, धर्मनिरपेक्ष हों या न हों, केसरिया जनता या लाल या नीली जनता माने न माने, हम सिर्फ अपने समय को संबोधित कर रहे हैं। जनता की पीड़ा, जीवन यंत्रनणाओं, उनके सपनों और आकांक्षाओं की गूंज में ही हमारा वजूद है, वरना हम तो हुए हवा हवाई।

हम लोग इतने नासमझ नहीं होते तो यह देस पागल कुत्तों और छुट्टा साँढ़ों के हवाले नहीं होता।

हमारे कहे लिखे से किसी का कुछ बनता बिगड़ता भी नहीं है। मजे लेते रहें। आपको मजा आ जाये तो बहुत है। हम लोग इतने नासमझ नहीं होते तो यह देस पागल कुत्तों और छुट्टा साँढ़ों के हवाले नहीं होता। जाहिर है कि हमारा लिखा बोला समझने के लिए नहीं है।

जाति उन्मूलन का एजंडा ही भारत का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो

वाम आवाम से कुछ ज्यादा ही प्रेम होने की वजह से उन्हें भले हम बार-बार आगाह करते रहे हैं कि भारत के बहुजन ही सर्वहारा हैं और जाति उन्मूलन का एजंडा ही भारत का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो है।

तो हमारे वाम या अंबेडकरी साथियों ने जब हमारी एक नहीं सुनी तो कांग्रेसी सुनेंगे, इसकी आशंका है नहीं।

बहरहाल इक सवाल तो बनता है कि गाँधी या नेताजी ने देश आजाद करा लिया तो सन सत्तावन से देश के कोने-कोने से जो लोग लुगाई अपनी जान इस मुल्क के लिए कुर्बान करते रहे, उन्हें हम शहीद मानते हैं या नहीं।

फिर उनने क्या उखाड़ा है या फिर क्या बोया है।

भारतीय इतिहास में उन असंख्य लोगों का क्या चूँ-चूँ का मुरब्बा बनता है, हम न गाँधी हैं और न नेताजी और न अंबेडकर, लेकिन हम बाहैसियत इस मरघट के निमित्तमात्र नागिरक को यह सवाल करने का हक है या नहीं, बतायें तो कर दूँ वरना क्या पता इसी सवाल के लिए हमें भी आप राष्ट्रद्रोही हिंदूद्रोही करार दें।

बाशौक करें लेकिन उसमें हमारा सबसे बड़ा अहित इतिहास में दर्ज होने का खतरा है क्योंकि हम तुच्छ प्राणी हैं और नेताजी, गाँधी, अंबेडकर या दयानंद सरस्वती बनना हमें बेहद महंगा सौदा लगता है क्योंकि हम जहरीले साँपों से भले कबहुँ न डरे हों लेकिन छुट्टा साँढ़ों और पागल कुत्तों से हम बहुतै डरै हैं।

बंगाल में पिछले लोकसभा चुनाव में विशुद्ध ध्रुवीकरण से दीदी की एकतरफा जीत तय करने के अलावा निरादार सत्रह फीसद वौट बटोरे थे और अब शारदा फर्जीवाड़ा मामला रफा-दफा है तो भाजपाई चुनाव युद्ध में बाजीराव पेशवा के सिपाहसालार मरणोपरांत नेताजी हैं।

अब नेताजी की फाइलों से कुछ बना हो या नहीं, यह नजारा देखना बहुत दिलचस्प होगा कि जिस मजहबी सियासत से सबसे ज्यादा नफरत नेताजी को थी, उसके हाथों खिलौना बनकर उनकी गति क्या होती है।