विकास के पापा की राजनीति और विकास की जाति
विकास के पापा की राजनीति और विकास की जाति
दिव्यांशु पटेल
विजय के उल्लास की खासियत यह होती है कि यह उसके स्याह पक्षों को भी उजला करने की कोशिश करती है और इस प्रयास में सबसे ज्यादा वो लोग शामिल होते हैं जो कुछ दिन पहले तक खुद को तटस्थ कहते नहीं थक रहे थे। भारत के आम चुनावों में पहली बार एक पार्टी के बजाय व्यक्ति को मिली विजय के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हर तरफ एक ऐसा माहौल बनाने का प्रयास हो रहा है कि ये जीत विकास के मुद्दे पर मिली है और ये जातिवाद की राजनीति करने वालो के मुँह पर तमाचा है।
ये बातें परिणाम के दिन से ही विभिन्न विशेषज्ञों के द्वारा तकरीबन हर समाचार चैनल पर बोली और हर अख़बार में लिखी जा चुकी हैं। असल सवाल यहीं से उपजता है कि आखिर इतनी बेचैनी का सबब क्या है ? क्यूँ किसी पार्टी अथवा व्यक्ति विशेष के चुनाव प्रचार और उसके परिणाम की एक बेहद जटिल प्रक्रिया को लगातार दो खाँचों में बाँट कर समझाने की कोशिश हो रही है! यदि यह इतनी ही सरल और मासूम प्रक्रिया या रणनीति थी, जिस पर जनता ने भरोसा जताया है तो फिर दोबारा से उसी जनता को ये सब क्यूँ समझाया जा रहा है! दरअसल यह चुनाव भी जाति की परिधि में ही लड़ा गया, मगर नरेंद्र मोदी और संघ ने बेहद चालाकी से इसे धर्म का अमलीजामा पहना कर इसका स्वरूप पूरी तरह बदल दिया। इस रणनीति में सबसे पहले संघ द्वारा सामाजिक न्याय की अवधारणा को जातिवादी राजनीति के पर्याय के रूप में आम जनमानस के बीच प्रचारित किया गया और उसके कट्टर हिंदुत्व के चेहरे के रूप में मोदी और उनकी पिछड़ी जाति की पहचान को आगे करके समाज में जातिगत अस्मिताओं को इस कदर उभारा गया कि सामाजिक न्याय आंदोलन के बाद आये सामाजिक राजनैतिक परिवर्तन में जो जातियाँ सत्ता में अपनी वाजिब हिस्सेदारी न मिल पाने से मायूस बैठी थीं, उन्हें मोदी के रूप में एक नया अवसर दिखा न केवल सत्ता में हिस्सेदारी का बल्कि उन लोगों से बदला लेने का भी जिन्हें वो जिम्मेदार मान रही थीं। नरेंद्र मोदी की इस दोहरी रणनीति को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश है, जहाँ भाजपा सबसे ज्यादा कमजोर थी और वहीँ से उसे सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं।
मोदी ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की नेतृत्वजनित लाचारी को बखूबी समझते हुए सबसे पहले तो वहाँ अपने सबसे भरोसेमंद और विवादित छवि के अमित शाह को भेजा, जिसके बाद यूपी को भौगोलिक आधार पर चार से पाँच हिस्सों में बाँट कर, इलाके के हिसाब से सांप्रदायिक, जातीय वर्चस्व जैसे मुद्दों को लगातार हवा दी गयी। इन मुद्दों ने चुनाव से बहुत पहले ही सत्ता की हिस्सेदारी में "उपेक्षित" वर्गों में मोदी को एक महानायक के रूप में स्थापित कर दिया था। इस बात के पर्याप्त सबूत उपलब्ध हैं कि किस प्रकार से पश्चिमी यूपी में दलित वर्ग में सेंध लगाने के लिए पासी समुदाय के बीच उनके लड़ाकू जाति होने से सम्बंधित पर्चे मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बांटे गए। इसी तरह से पूर्वी यूपी में मजबूत मगर उपेक्षित कुर्मी समुदाय के बीच सरदार पटेल की मूर्ति के लिए लोहा लेने का कार्यक्रम असल में कुर्मियों को यह जताना था कि उनको हिस्सेदारी भाजपा में ही मिल सकती है। इसी तरह से अन्य छोटे-छोटे जातीय समूहों को उनके जातीय पहचान के आधार पर बाँट कर भाजपा के लिए वोट बैंक बनाया गया। इस पूरी प्रक्रिया को संघ द्वारा मंडल आंदोलन के बाद से ही चल रहे "गैर यादव पिछड़ा एवं गैर जाटव दलित" जातियों को दोबारा सामाजिक समरसता के नाम पर "हिंदुत्व" के बैनर तले लाने में सफल होने के रूप में देखा जाना चाहिए।
सामाजिक आंदोलनों से उपजी जिन पार्टियों पर जातिवाद के चरम का आरोप लगा कर उनके ख़राब प्रदर्शन की व्याख्या इस समय बुद्धिजीवी जगत में चल रही है, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि चुनाव से पूर्व किस तरह भाजपा द्वारा जाति आधारित गठबंधन करने पड़े थे। यहाँ तक कि सामाजिक कार्यकर्ता व बुद्धिजीवी उदितराज को भी भाजपा द्वारा दलित नेता के रूप में ही प्रचारित किया गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश व तराई की तमाम सीटों पर जाति आधारित द्वेष सबसे ज्यादा भाजपा फैलाया गया। तराई की एक सीट पर तो बसपा के एक कद्दावर नेता के जाति विशेष से न होने तक की अफवाह बहुत ही संगठित तरीके से फैलाई गयी, जिसके साक्ष्य मौजूद हैं। मोदी की जीत और मोदी का विकास अगर जाति से परे होते तो शायद उन्हें बनारस के सीट जीतने के लिए कुर्मी नेता अनुप्रिया पटेल को इतना आगे करके प्रचार नहीं करना पड़ता।
मोदी की बनारस में जीत विकास की नहीं बल्कि जाति की जीत थी और तभी उनके खिलाफ लड़े अरविन्द केजरीवाल नैतिक जीत में मोदी से बहुत आगे नजर आते हैं, जिन्होंने किसी भी प्रकार के जाति अथवा धर्म आधारित समर्थन को विनम्रता से मना कर दिया था, इसके बावजूद बनारस में उन्हें दो लाख के करीब वोट मिले जिसमें अधिकांश वोट मुस्लिम आबादी के थे। हमे यह ध्यान रखना होगा कि आखिर वह कौन सी ताकतें हैं जो अपने संपन्न राज्य में एक बहुत बड़ी आबादी को हाशिये पर डाल कर आगे बढ़ने वाले मुख्यमंत्री को मॉडल का दर्जा देती हैं, वही दूसरी तरफ एक बहुत ही पिछड़े राज्य में समावेशी विकास की अवधारणा को व्यावहारिक रूप से लागू करने वाले मुख्यमंत्री को जातिवादी का ख़िताब दे दिया जाता है ! जब नीतीश कुमार अपने राज्य में एक महादलित को सत्ता सौंपते हैं तो उसे रबर स्टाम्प मुख्यमंत्री कहा जाता है और जब नरेंद्र मोदी गुजरात में अति शक्तिशाली पटेल समुदाय को सत्ता सौंपते हैं तो उसे देश भर के पटेल समुदाय में वादा निभाने के रूप में प्रचारित करके आगे के चुनावों का बंदोबस्त किया जाता है।
जब देश में पहला फार्मूला वन का रेसिंग ट्रैक एक दलित मुख्यमंत्री बुद्ध के नाम पर बनवाती है तो पैसे की बर्बादी का आरोप लगता है और जब मोदी उसी प्रदेश में बुद्ध के नाम पर हवाई सपने दिखाते हैं तो उन्हें विकास पुरुष कहा जाता है। इन ताकतों की पहचान में ही नरेंद्र मोदी के विकास की जाति छिपी हुई है, जो अपने उच्च वर्णीय हितों की रक्षा के लिए कॉर्पोरेट जगत का अकूत पैसा एक ऐसे व्यक्ति के प्रचार में खर्च देती है जिसे अपनी सुविधा के अनुसार इस्तेमाल किया जा सके। अपने कार्यकाल के इन छह महीनो में केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने कार्पोरेट हितों को प्राथमिकता देते हुए लगातार ऐसे फैसले किये हैं जिनका उन वादों से कोई सरोकार नहीं है जो चुनाव प्रचार के दौरान श्री मोदी के द्वारा किये गए थे, उल्टा दूसरे दलों पर जातिवाद की राजनीति का आरोप लगाने वाली भाजपा के शीर्ष नेताओं ने खुलेआम हरियाणा और महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों में जातीय आधार पर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी देकर समाज को जाति के आधार पर बाँटा। यदि यह चुनाव जाति और क्षेत्रीय अस्मिताओं के खात्मे का चुनाव होता तो जयललिता, ममता और नवीन पटनायक को आशातीत सफलता कदापि न मिलती, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सत्ता में हिस्सेदारी की माँग को नजरअंदाज करने वाले मायावती और मुलायम को उनका आधारभूत वोटर भी छोड़ देता, मगर ऐसा नहीं हुआ है। इस बात का सबूत उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों में समाजवादी पार्टी को मिली सफलता है, जिसमें जनता ने भाजपा द्वारा प्रचंड सांप्रदायिक प्रचार और लव जिहाद जैसे हास्यास्पद मुद्दे उछालने के बावजूद विधान सभा के लिए समाजवादी पार्टी में भरोसा जताया। इसलिए अब वक़्त है कि बाँटो और राज करो की नीति को आत्मसात कर लेने वाले संघ के इन कारगुजारियों को सामाजिक बदलाव की विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले नेता जनता के बीच में जाकर बेनकाब करें, सत्ता में सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करें और नरेंद्र मोदी व संघ के विकास की जाति के शिगूफे को सामाजिक न्याय के विकास से टक्कर दें !


