सिंगरौली लौट आया हूँ। कभी पहाड़ों के ऊपर तो कभी उनके बीच से बलखाती निकलती पटना-सिंगरौली लिंक ट्रेन। बीच-बीच में डैम का रूप ले चुकी नदियों और उनके ऊपर बने पुल तो कभी पहाड़ों के पेड़ से भी ऊँची रेल पटरी से गुजरती ट्रेन। जंगल में उदास खड़ी चट्टान और थोड़ी दूर-दूर पर खड़े अपने-अपने अकेलेपन के साथ पेड़।

ट्रेन की खिड़की से झाँकती मेरी आँखें और बीच-बीच में कैमरे का क्लिक। दूसरी तरफ मेरे हाथों में नाजियों द्वारा तबाह-बर्बाद कर दिये गये कस्बे लिदीत्से पर निर्मल वर्मा का यात्रा संस्मरण - मानो लिदीत्से पर किये गये उस नाजी अत्याचार को फोटो खींच रहे हों वर्मा। तय करना मुश्किल इन पहाड़, जंगल, नदी को देखता रहूँ, जो शायद कुछ सालों बाद मानव सभ्यता के विकास के नाम पर बर्बाद कर दिये जायेंगे या फिर नाजियों के द्वारा जलाये गये बच्चों की स्कूल जाती तस्वीर और मार दी गयी औरत के नीले स्कार्फ के संस्मरण पढ़ता रहूँ। आखिर क्या अन्तर है उस जर्मनी के नाजी अत्याचार और इस दुनिया के महान लोकतन्त्र वाले देश में जहाँ जल-जंगल-जमीन-जन की रोज विकास के नाम पर हत्या की जा रही है?

लोगों से सुनता हूँ कि कुछ साल पहले तक सिंगरौली जैसे इलाकों में जब ट्रेन किसी रेल फाटक से गुजरती थी तो पहले ट्रेन का ड्राइवर उतर कर फाटक बन्द करता था फिर फाटक गुजर जाने पर कोई सवारी या गार्ड उतर फाटक बंद कर देता और ट्रेन आगे बढ़ती। छोटे-छोटे स्टेशनों पर लोग उधर से गुजरने वाली इक्का-दुक्का एक्सप्रेस ट्रेनों को हाथ देकर रोकते, अपने सम्बंधियों के आने तक ट्रेन रोकने का अनुरोध करते, या फिर पूरा सामान उतारने तक ट्रेन को रोके रखने को कहते लोग।

ट्रेन के ड्राइवर भी जानते कि आने-जाने के लिये यही ट्रेन सहारा है इसलिये आराम से चलते। कोई हड़बड़ी नहीं। वैसे भी यहाँ के लोगों में भागमभाग कम ही देखता हूँ। जब से यहाँ आया हूँ भूल जाता हूँ कि कौन सा दिन है, क्या तारीख है, क्या महीना, क्या समय। समय मानो खुद दो-तीन दिन पीछे चल रहा हो।

हमारी सरकारें इन सुस्त पड़ गयी ज़िन्दगी की रफ्तार को विकास के सहारे भगाना चाहती हैं। ऐसा भागमभाग, ऐसी दौड़ जो अँधेरी गली में जाकर खत्म होती है।

रास्ते में ऐसे-ऐसे स्टेशन गुजरते हैं जहाँ आपको रिसीव करने के लिये ऑटो, कार, बाइक सब प्लेटफॉर्म पर ही खड़े मिल जायेंगे। ट्रेन के दरवाजे से नीचे उतर सीधा ऑटो में चले जाईये। एक स्टेशऩ पर टीशन मास्टर साब गंजी बनियान में ट्रेन को हरी झंडी हिलाते दिखते हैं तो दूसरे स्टेशन पर ऊँघता हुआ फाटक मैन ट्रेन गुजर जाने के बाद हड़बड़ाता हुआ पीछे से हरी झंडी दिखा रहा है।

जंगल-पहाड़-नदी एक खूबसूरत लैंडस्केप बना रहे हैं। बीच-बीच में दूर कहीं बस्ती के नाम पर दो-तीन घरों का आभास भी हो रहा है, जो पहाड़ों की ओट में दिखते-छुपते चल रहे हैं। मानो ये सब हकीकत नहीं एक कैनवास हो जिसके भीतर मैं पहुँच गया हूँ।

ट्रेन की खिड़की से देखते-देखते मैं दरवाजे पर खड़ा हो जाता हूँ। मन करता है उतर जाऊँ इन्हीं पहाड़ियों-जंगलों में। अपना अतीत, भविष्य सब कुछ भूलकर यहीं का हो रहूँ लेकिन रेनुकूट आते-आते सब कुछ वैसा ही नहीं रह जाता। प्लांट्स, उनके साये में बनी झुग्गियों में ज़िन्दगी और चिमनी से उठता धुँआ मानो पूरे कैनवास पर धुँधलका सा छा जाता है। मन अजीब होने लगता है।

आसमान में बादल और चिमनियों के धुँए का फर्क करना मुश्किल है। अब रास्ते में प्लांट्स के साथ-साथ बिजली के बड़े-बड़े तार, ग्रेनामाइट से उड़ाये गये या क्षत-विक्षत कर दिये गये पहाड़ों के चट्टान सब मिलकर एक विद्रुप रेखाचित्र लगने लगते हैं। बीच-बीच में आदिवासी महिलाएं माथे पर लकड़ियों का गट्ठर उठाए एक पगडंडी बना चलती दिखती हैं। इस इलाके के आदिवासियों-मूलवासियों की स्थिति ये बताने के लिये काफी होती है कि विकास ने कितना और कितनी बार इन्हें छला है।

हाँ, एक बात और।...

अविनाश कुमार चंचल लेखक मूलतः पत्रकार  हैं। वह सामाजिक व पर्यावरण कार्यकर्ता हैं अविनाश कुमार चंचल लेखक मूलतः पत्रकार हैं। वह सामाजिक व पर्यावरण कार्यकर्ता हैं

एक घुमावदार रास्ते पर मैं खिड़की से झाँक कर देखता हूँ तो खुद को ट्रेन के सबसे पिछले बोगी में पाता हूँ। मैं दौड़ कर दरवाजे तक जाता हूँ। लगभग पटना से बारह बोगियों को लेकर चली ट्रेन रेनुकुट आते-आते तीन बोगियों की बन जाती है- बाद में एक साथ वाले यात्री ने बताया। हमारी ट्रेन की रफ्तार धीमी हो गयी है और कोयले लदी मालगाड़ियाँ तेजी से पास करायी जाने लगी हैं।

युवा आदिवासी कवि अनुज लुगुन की एक कविता की पंक्तियाँ याद आती है, जिसमें वो बताते हैं कि कैसे उनका पहाड़ ट्रकों पर लद शहर की ओर जा रहे हैं। यहाँ भी कुछ वैसा ही है। यहाँ के लोगों की ज़िन्दगी को तबाह कर उनके पहाड़ खोद कोयले को रेल डब्बों में भर कहीं दूर भेजा जा रहा है।

धीरे-धीरे हमारी ट्रेन सिंगरौली पहुँचने को होती है। सिंगरौली वो फिल्म जिसमें कोयला खनन करने वाली पावर प्लांट्स विलेन बने हुये हैं और वो खैरवार, वैगा जैसे समुदाय के आदिवासी हीरो नजर आते हैं जो लगातार अपनी जमीन-जंगल को खोकर भी जी रहे हैं औऱ बचे हुये जंगल-जमीन को बचाने के लिये अनवरत संघर्षरत हैं। आज से नहीं आजादी के बाद से ही।

इस भागते-दौड़ते अर्थव्यवस्था वाले कॉरपोरेटी लोकतन्त्र से लड़कर जीतना महत्वपूर्ण तो है ही लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है लड़ने की ललक, अपने अधिकार-रोटी-रोजी को बचाने की आकुलता। जो हारने के बाद भी इन्हें इस फिल्म का हीरो बनाते हैं।

अविनाश कुमार चंचल

लेखक मूलतः पत्रकार हैं। वह सामाजिक व पर्यावरण कार्यकर्ता हैं

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