विक्रेताओं और हत्यारों के बीच और बाहर गाँधीजी
विक्रेताओं और हत्यारों के बीच और बाहर गाँधीजी
मूल चन्द्र गौतम
आज तक ग़ालिब, गाँधी और नेहरु को हंसराज रहबर से ज्यादा आलोचनात्मक गालियाँ किसी ने नहीं दी होंगी। तीनों को उन्होंने बेनकाब किया। यह सब उनकी सत्ताधारियों के प्रति दबी– खुली निष्ठा के प्रति घृणा का परिणाम था। रहबर ने लेखक होने के नाते कभी सत्ताधारियों से अपने लिए कुछ इनाम –इकराम और विशेषाधिकार नहीं माँगा, इसलिए उनकी इस घृणा की जो नैतिक आभा थी वह धूमिल नहीं हुई।
भारत की आजादी के संघर्ष में गांधीजी के योगदान और शैली से असहमत लोगों के लिए भी वे इतने घृणित नहीं थे कि कोई उनकी हत्या कर देता। यह काम अंग्रेजों के लिए तो और भी मामूली था। वे चाहते तो उन्हें कभी और कहीं भी ठिकाने लगा दिया जाता। इसी कारण रहबर उन्हें अंग्रेजी सत्ता का सेफ्टी बाल्व कहते थे। यह आम भारतीय जनता को हिंसा और खून खराबे से बचाने की उनकी रणनीति थी जिसे अति क्रांतिकारियों द्वारा उनकी कमजोरी और समझौतावादी नीति समझा गया। इसी कारण वैचारिक तौर कभी गांधीवाद की शव परीक्षा की गयी और कभी हत्या।
गाँधी जी भारत की आजादी मिलने के तौर– तरीकों से कतई सहमत नहीं थे। उन्हें विभाजित भारत बिलकुल स्वीकार नहीं था लेकिन उत्तराधिकारियों की सत्ता लोलुपता ने उन्हें मजबूर कर दिया था कि बेबस हो जाएँ। आखिरी साँस तक वे इस रक्त पिपासु आजादी के दुष्परिणामों से देश और देशवासियों को बचाने की भरसक कोशिश करते रहे और अंत में तथाकथित राष्ट्रवादी घृणा की पराकाष्ठा– हत्या के शिकार हो गये। शहीद –बलिदान जैसे शब्द इस मामले में भावुक और निरर्थक हैं।
हत्या के बाद गाँधी और उनके अहिंसावादी दर्शन का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब प्रचार– प्रसार हुआ और उनकी विरासत और वसीयत भी चतुर लोगों ने चतुराई से अपने नाम करा ली लेकिन भारतीय जनता का उनके प्रति लगाव बना रहा। चीन युद्ध से जैसे पूरे देश और नेताओं का खोखले आदर्शों से मोहभंग हुआ फिर भी वंश और परिवार के प्रति मोह बना रहा और हत्यारों-आंतरिक कुचक्रियों को सत्ता हासिल करने का मौका नहीं मिल पाया। सुजात और कुजात गाँधीवादी आपस में लड़ते रहे, एक दूसरे को कोसते –काटते रहे।
आपातकाल के बाद कुजात गांधीवादियों और हत्यारों को सत्ता हासिल करने का मौका मिला जो इन्हीं अंतर्विरोधों के कारण जल्दी ही बिखर भी गया। अब फिर गाँधी के विक्रेताओं के अकूत भ्रष्टाचार से उकताई जनता ने सिर्फ हत्यारों को मौका दिया है कि शायद यही उनके सच्चे वारिस साबित हों और उनकी सही नीतियों को लागू करें। गाँधी को खुल्लमखुल्ला बापू और राष्ट्रपिता न मानने वाले व्यापारियों से उनकी नीति और नैतिकता के पालन की उम्मीद करना फिजूल है लेकिन जोखिम तो उठाना ही होगा। शास्त्र से बात न बने तो शस्त्र तो है ही। भारतीय जनता इन्हें भी हिन्द महासागर में डुबाने की सामर्थ्य रखती है।


