विनिवेश यानी “देश बेचो अभियान” की बुलेट ट्रेन चल पड़ी है
विनिवेश यानी “देश बेचो अभियान” की बुलेट ट्रेन चल पड़ी है
रेल बजट-99 फीसद जन गण पर घात लगाकर हमला बाजार का
श्मशान और कब्रिस्तान का दायरा बेहिसाब बढ़ता जा रहा है और हमें सिर्फ अपनी सहूलियतों की चिंता है।
पलाश विश्वास
हमने इस बीच सरकारी महकमों और उपक्रमों के अफसरान और कर्मचारियों से कोलकाता, दिल्ली और मुंबई में बात की है। लिख तो रहे हैं लगातार।
मुंबई में रेलवे वालों से रेल बजट पेश होने के बाद रेलवे के निजीकरण के बारे में पूछा तो उनका कहना है कि मुंबई में निजीकरण की कोई चर्चा नहीं है। यही हाल कोलकाता और दिल्ली का है। हम सिर्फ अपने लिक्खाड़ प्रतिबद्ध मित्रों से बाकी गौण मुद्दों को छोड़ आर्थिक नरसंहार के मुद्दों पर फोकस करने का निवेदन कर रहे हैं। इससे जन जागरण हो या नहीं, किसी एक अंबेडकर, गांधी, नेल्सन मंडेला या मार्टिन लूथर किंग की दृष्टि के बंद दरवाजे खुलें तो भी हालात बदलने की पहल हो सकती है। इस उम्मीद के सिवाय जो हालात तेजी से बिगड़ते जा रहे हैं, उनमें किसी तरह का हस्तक्षेप अस्मिताओं के घटाटोप में असंभव है।
नमोमय देश के नई सरकार के रेल बजट से बहरहाल यह भी साफ हो ही गया कि रेलवे के अलावा इस पूरे देश का किस हद तक निजीकरण किया जाएगा और कहां तक आर्थिक सुधार लागू किए जाएंगे। लेकिन यह संपूर्ण निषिद्ध विषय है और इसी स्थायी गपनीयता प्रयोजन से सूचना निषेदध की गरज से रेलबजट जरिये निजीकरण का ऐलान धर्मयोद्धा प्रधानमंत्री ने कश्मीर से ही किया है।
नीतीश कुमार की प्रतिक्रिया से तस्वीर भले ही कुछ साफ नजर आती है लेकिन दृष्टि्ंध धर्माध देश के पढ़े लिखे लोग आयकर छूट का कयास लगा रहे हैं या मरणासम्ण ब्राजील फुटबाल के लिए मरसियापढ़ रहे हैं। बहरहाल पूर्व रेलमंत्री का यह बयान दिलचस्प है कि रेलवे का हेल्थ सही कर दो फिर बुलेट ट्रेन लाओ। अहमदाबाद और मुंबई के बीच क्या कमी है? वहां पहले से ट्रेनें उपलब्ध हैं, तो बुलेट ट्रेन का मतलब क्या? जो इलाके पहले से पिछड़े हैं जैसे छत्तीसगढ़, बिहार, असम, राजस्थान, मध्य प्रदेश वहां के बारे में रेल बजट में कुछ नहीं है।
मोदी सरकार के पहले रेल बजट में उम्मीद के मुताबिक यात्री सुविधाओं पर काफी जोर दिया गया है। केंद्रीय रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने मंगलवार को लोकसभा में बजट पेश करते हुए लोगों के लिए नई सुविधाओं के साथ ही पुरानी सुविधाओं को बेहतर बनाए जाने की घोषणा की। दरअसल ये सहूलियते निजीकरऩ की सार्थक दलीलें हैं और निजीकरण मार्फत ही प्राप्त होनी है ये सुविधाएं। इसी के तहत हाल में ही किराए भाड़े में अच्छी खासी बढ़ोतरी के बाद रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने अपने पहले रेल बजट में किराये-भाड़े का बोझ और नहीं बढ़ाया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि इस बार का रेल बजट देश की ग्रोथ बढ़ाने वाला रेल बजट है। नए बजट से यात्रियों के लिए सुविधाएं बढ़ेगी और रेल बजट से यात्रा और सुखद बनेगी। अब तक रेलवे पर ध्यान नहीं दिया गया जिसका खामियाजा रेलवे भुगत रहा है।
इस योगाभ्यास का मतलब भी वही पीपी माडल।
अब प्रचार सुनामी यह है कि यह रेलवे बजट भविष्यवादी, वृद्धि आधारित और आम आदमी के लिए है। प्रधानमंत्री के अनुसार रेल बजट में बेहतर सेवा, गति और सुरक्षा को ध्यान में रखा गया है।
कितने लोगों की नौकरियां छिनी जा रही हैं और कितनों की आजीविका, पिछले तेइस सालों में इसका कोई हिसाब किताब मिला नहीं है। कितने लोग जल जमीन जंगल आजीविका नागरिकता मनावाधिकार और नागरिक अधिकारों से बेदखल हो गये,किसी के पास यह हिसाब नहीं है। ममता दीदी ने करोड़ नौकरियां देने का वायदा किया था। क्या हुआ सबको मालूम है।
रेल बजट में नई रेलगाड़ियों, नई परियोजनाओं, बुलेट ट्रेनों के साथ रेलवे में इक्कीस हजार नौकरियों का झुनझुना बजाने के अलावा विनिवेश, निवेश, विनियंत्रण, विनियमन और निजीकरण की कोई चर्ची कहीं नहीं है। आम जनता को तो यह मालूम नहीं है कि यह पीपीपी माडल किस सौंदर्य प्रसादन का नाम है और इसे लगाना है, खाना है या पीना है।
बहरहाल यह गुजरात माडल है। मुक्त बाजार का माडल यानी निनानब्वे फीसद जनता पर घात लगाकर बाजार का हमला। मुक्त बाजार की एंबुश मार्केटिंग है यह और पूंजी का राजसूयवैदिकी महायज्ञ। धर्म राजनीति और पूंजी के त्रिभुज से रसायनिक युद्ध है यह जन गण और गणतंत्र के विरुद्ध। जबकि खबर कुछ इस तरह लिखी जा रही है कि रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने मोदी सरकार का पहला रेल बजट बुलेट ट्रेन और सेमी बुलेट ट्रेन की सौगात से किया। साथ ही भारतीय रेलवे की स्थिति को सुधारने के लिए निजी निवेश को आमंत्रित करने की बात की।
यानी पीपीपी माडल महाअमृत है और इसे चाखने से ही श्रद्धालु जनता को मोक्ष मिल जायेगा और सारी भव बाधाएं दूर हो जायेंगी।
श्रमकानूनों में सुधार के बारे में किसी की कोई धारणा नहीं है।
मीडिया के मित्रों ने श्रमसुधारों के बारे में आज एक बड़े अंग्रेजी अखबार में लीड छपने के बाद इस पर अभी आपस में चर्चा शुरु की है, कब लिखेंगे, बता नहीं सकते।
सरकारी उपक्रम ओएनजीसी के सेल आफ पर 35 हजार करोड़ का सौदा फाइनल है। कोल इंडिया को बेचने की पूरी तैयारी है। दूसरी कंपनियों और सस्थानों का सौदा भी तय समझिये। तेल गैस, कोयला, इस्पात, खनन, ऊर्जा, औषधि, बैंकिंग, रेलवे, पोर्ट में आगजनी के बाद रक्षा और आंतरिक सुरक्षा से राष्ट्रद्रोह के बाद यह जंगल की आग खेतों, खलिहानों, घाटियों, नदियों और समुंदर को भी जलाकर खाक करने वाली है। लेकिन देश के लोग आंखों पर पट्टी डाले, कानों में रुई ठूंसे बुलेट ट्रेन की धर्मोन्मादी अनंत शपर के ख्वाबगाह में है और कत्लगाहों की कोई खबर उन्हें है नहीं। श्मशान और कब्रिस्तान का दायरा बेहिसाब बढ़ता जा रहा है और हमें सिर्फ अपनी सहूलियतों की चिंता है।
इसी बीच सरकार ने सरकारी उपक्रमों की पूंजी का चालीस फीसद हिस्सा म्युच्यल फंड में डालना तय कर लिया है।
सेबी के नियम ऐसे बन रहे हैं कि विदेशी पूंजी विनियमन और विनियत्रण के मारफत पूरा देश और देश के सारे संसाधन विदेशी लूटेरों के हवाले कर दिये जाये।
रेलमंत्री ने एक पंक्ति में बता दिया है कि परिचालन को छोड़कर रेलवे में सर्वत्र निजी पूंजी का स्वागत है।
इसके बावजूद खुद रेलवे वालों को माजरा समझ में नहीं आ रहा है। रेलवे के परिचालन में कितने लोग लगे हैं और बाकी रेलवे में कितने लोग, इसका भी अंदाजा किसी को नहीं है।
यह बजट इस मायने में अभूतपूर्व है कि बजट सीधे प्रधानमंत्री की निगरानी में बन रहा है और उसमें योजना आयोग की कोई भूमिका नहीं है।
वित्त मंत्री की भूमिका कितनी है और कारपोरेट लाबिइंग की कितनी बदली परिभाषाओं, आंकड़ों,रेटिंग और साढ़ों की उछलकूद में उसका भी सही सही अंदाजा लगाना मुश्किल है।
नई सरकार का कोई मुख्य आर्थिक सलाहकार भी नहीं है।
पहलीबार व्यय सचिव और राजस्व सचिव बजट तैयार में खास भूमिका निभा रहे हैं और आर्थिक समीक्षा भी खानापूरी है।
जिस अंदाज में रेलवे के निजीकरण को अंजाम दिया गया और ओएनजीसी का बंटाधार पाइनल हो गया, जनता को सूचना हो या नहीं, शेयर बाजार में हड़कंप मच गया।
सरकारी उपक्रमों और कंपनियों के तमाम शेयरों का सफाया शुरु हो गया है क्योंकि बाजार में उनके शेयर खरीदने वाले लोगों को मालूम हो गया कि बजट अब बूम बूम प्राइवेटाइजेशन है और विनिवेश की बुलेट ट्रेन चल पड़ी है।
हम शुरू से कह रहे हैं कि दाम और भाड़ा बढ़ना कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं है।
परिवर्तन है विनियमन और विनियंत्रण का।
परिवर्तन है रक्षा समेत सारे संवेदनशील सेकटरों में शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का।
परिवर्तन है निजीकरण और श्रम कानूनों को खत्म करके श्रमिक तबके की आजीविका छीनने और निजी पूंजी के जरिये पीपीपी माडल मार्फत कृषि जीवी जनगण का नरसंहार का।
बुलेट ट्रेन इसका जीता जागता प्रतीक है।
एक बुलेट ट्रेन पर साठ हजार करोड़ रुपये खर्च होने हैं।
विमानभाड़े से दोगुणी रकम का भाड़ा चुकाने वाले देश के एक फीसद मलाईदार सत्ता वर्ग के अलावा कौन है, किसी को नहीं मालूम।
मुकम्मल रेलबजट में कुल राशि अंतरिम चुनावी रेल बजट से कम है और तमाम पुरानी योजनाएं शुरु न होने के बहाने खारिज है।
मेट्रो और बुलेट ट्रेन परियोजनाओं पर जिसका वर्चस्व होगा, ओएनजीसी की हत्या से फायदा उसी को होगा।
रेलवे निर्माण विनिर्माण कंपनियों में हड़कंप इस भावी एकाधिकार से भी मचा है।
रेलवे की पुरानी परियोजनाएं नई बेशकीमती बुलेट ट्रेन सरीखी परियोजनाओं में निजी देशी विदेशी पूंजी के इंतजार में खारिज की जा रही हैं तो विकास के लंबित लाखों करोड़ की परियोजनाओं को तमाम कायदा कानून के निजी पूंजी के हक में हरी झंडी दे दी जा रही है।
जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता, मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों से बेदखली के लिए राष्ट्र की युद्ध घोषणा भी निजी पूंजी के हक में है।
बजट सत्र की पूरी प्राविधि और प्रक्रिया,संसदीय राजनीति कुल मिलाकर नब्वे फीसद जनता के खिलाफ घात लगाकर हमला है। क्योंकि जनता को इस एकाधिकारवादी जसंहारक हमले के बारे में कोई खबर ही नहीं है। अब जनांदोलन से बड़ा कार्यभार तो मूक वधिर बहुसंख्य जनगण को हकीकत बता देने की है, जिसकी हिम्मत पढ़ा लिखा तबका कर नहीं रहा है।
लोग प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, विनियमन और विनियंत्रण का विरोध नहीं कर रहे हैं।
विनिवेश के खिलाफ कोई आवाज बुलंद नहीं हो रही है।
रेलवे भाड़े को फ्यूल सरचार्ज से जोड़ दिया गया है और तेल गैस की कीमतें विनिंत्रित हैं, जो बाजार दरों से संबद्ध होने के कारण बिना सरकारी हस्तक्षेप के बदलती रहती हैं।
इस तरह बिना रेलवे भाड़े को विनियंत्रित किये फ्यूल चार्ज के जरिये रेलभाड़े को भी डीरेगुलेट डीकंट्रोल कर दिया।
जैसे मुंबई मेट्रो के किराये रिलायंस ने तय किये हैं, उसी तरह रेलभाड़ा और तमाम सेवाओं की कीमतें निजी पूंजी के पीपीपी माडल जरिये देशी विदेशी निजी कंपनियां करेंगी।
रेल भाड़ा के खिलाफ राजनीतिक नौटंकी में ये मुद्दे सिरे से अनुपस्थित हैं।


