द्विभाषी फिल्म गांधी टु हिटलर की पटकथा विवाद में आ गई है। देश के युवा अंग्रेजी लेखक मनोज खान उर्फ फ्रैंक हुजूर ने आरोप लगाया है कि यह फिल्म वर्ष 1998 में उनके लिखे नाटक हिटलर इन लव विद मैडोना की भावाभिव्यक्ति है।

फ्रैंक कहते हैं कि यह नाटक उनके लेखकीय करियर की पहली रचना थी और उसका दर्जा उनके लिए जिंदगी के पहले प्यार जैसा है। फ्रैंक का आरोप तथ्यों के इस आईने में जरा संगीन हो जाता है कि गांधी टु हिटलर बनाने वाले वही लोग हैं, जिन्होंने वर्ष 1998 में उनके नाटक को मंचित किया था। उन्हें अफसोस इस बात का है कि फिल्म बनाते समय उनको क्रेडिट देने का आश्वासन देने के बावजूद फिल्म निर्माताओं ने ऐसा नहीं किया।

पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान पर अभी हाल में एक चर्चित पुस्तक इमरान वर्सेस इमरान : द अनटोल्ड स्टोरी (Imran Versus Imran: The Untold Story) लिखने वाले फ्रैंक (Frank Huzur) बीते हफ्ते लखनऊ में थे। वे कहते हैं कि सवाल यह नहीं है कि मेरे नाटक की कहानी से भाव लेकर निर्माताओं ने फिल्म बनाई। सवाल यह है कि उनके अपने ही लोगों ने उनके साथ धोखा किया, जिससे उनकी भावनाएं आहत हुईं। वे इसे भावना का मामला अधिक मानते हैं।

फ्रैंक वर्ष 1998 में दिल्ली विश्वविालय के छात्र थे, तभी उन्होंने अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत की और अपनी पहली कृति का नाम रखा- हिटलर इन लव विद मैडोना। यह नाटक लाक्षणिक है और इसमें हिटलर के बहाने समकालीन भारतीय राजनीतिक प्रसंगोंे, विशेषकर अयोध्याकांड के कथित आयोजकों का भी जिक्र है। दिल्ली में इसका मंचन शुरू होते ही इस पर प्रशासन ने रोक लगा दी थी।

यहां यह जिक्र करना जरूरी है कि उस समय केंद्र में राजग की सरकार थी और लालकृष्ण आडवाणी केंद्रीय गृह मंत्री थे।

नाटक पर रोक लगने के बाद अंग्रेजी अखबारों में इसकी खास तौर पर चर्चा हुई और कइयों ने रोक के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया जताई। फ्रैंक मूलत: लेखक हैं इसलिए उन्होंने अपने नाटक के प्रभावशाली मंचन के लिए तजुर्बेकार निर्देशक-कलाकार की तलाश की। उसी समय उनकी मुलाकात नलिन रंजन सिंह और अमर्त्य बनर्जी से हुई। नलिन रंजन सिंह ने फ्रैंक के नाटक का निर्देशन किया और वही नलिन सिंह हालिया प्रदर्शित फिल्म गांधी टु हिटलर के पटकथा लेखक हैं।

फ्रैंक बताते हैं कि दिल्ली विश्वविालय छोड़ने के बाद उन लोगों की मुलाकात भी बंद हो गई थी। काफी अरसे बाद वर्ष 2009 में बड़े दिलचस्प ढंग से दोनों की फिर से मुलाकात हुई और बातों ही बातों में नलिन ने उनसे कहा कि वह गांधी टु हिटलर नामक एक फिल्म बनाने जा रहा है और चाहता है कि फ्रैंक भी उसमें मदद करें। फ्रैंक उन दिनों मुंबई में थे। उन्होंने नलिन सिंह से कहा कि कहानी तो मूलत: उनके नाटक से ही अभिप्रेरित है इसलिए पटकथा लेखक होने के नाते नलिन फिल्म के कृतज्ञता ज्ञापन में उनका भी नाम दें। उस वक्त तो नलिन ने हां कर लिया, लेकिन बाद में वे अपने वादे से साफ मुकर गए।

वर्ष 1998 में लिखे अपने इस नाटक को फ्रैंक अपना वर्जिन या मेडेन यानी अक्षत यौवना जैसी रचना बताते हैं। उन्होंने बाद में उसे प्रकाशित भी कराया। बिहार विधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष जाबिर हुसैन को पुस्तक का लोकार्पण करना था। सब कुछ तय था लेकिन ऐन मौके पर कुछ हुआ और उन्होंने पुस्तक का लोकार्पण करने से इनकार कर दिया। नाटक की लगभग 2500 प्रतियां पटना के एक प्रकाशक के गोदाम में कोमा की हालत में पड़ी हैं।

वे कहते हैं कि हिटलर यदि एक बेहद जाना-सुना और चर्चित चरित्र है, लेकिन उन्होंने अपने नाटक में जिस कथावस्तु को प्रस्तुत किया, वह एक अनछुआ पहलू था। इसी अनछुए पहलू और लगभग अप्रसारित नाटक को नलिन सिंह ने उड़ा लिया और उसे फिल्म के अपेक्षाकृत विस्तृत फलक पर प्रस्तुत कर दिया, जिसमें फ्रैंक का जिक्र तक नहीं हुआ!

यह पूछने पर कि क्या इस पर वे कोई विधिक कार्यवाही करेंगे, फ्रैंक ने कहा कि उनके लिए यह कानून से अधिक भावना और विश्वासघात का मामला है। वे महज इतना चाहते हैं कि लोग इस तथ्य और कथ्य के वास्तविक जनक को जानें। वे भावुक होकर कहते हैं कि किसी लेखक की सर्वप्रथम रचना के साथ यदि इस तरह की धोखाधड़ी हो जाए तो इसकी तकलीफ को कोई लेखक या फिर सहृदय पाठक ही समझ सकता है।

फ्रैंक के इस अक्षत नाटक को अब अमेरिका का एक प्रकाशक प्रकाशित करने जा रहा है और उन्हें लगता है कि इससे नाटक को विस्तृत चर्चा मिलेगी।

यहां यह जिक्रकरना प्रासंगिक होगा कि इसी साल 29 जुलाई को मुंबई में प्रदर्शित फिल्म गांधी टु हिटलर को फिल्म समीक्षकों ने एक सिरे से नकार दिया है और हिंदी-अंग्रेजी में एक साथ बनी इस फिल्म की भद्द पिट चुकी है।

सुनील अमर

गुमनाम हिटलर और जर्मनी का अराजक लोकतंत्र | Why don't we know Hitler? hastakshep | हस्तक्षेप

Gandhi to Hitler script in controversy