राम पुनियानी
कमल हासन की ताजा फिल्म ‘‘विश्वरूपम‘‘, विवादों के बीच फरवरी 2013 में पूरे देश में रिलीज हुयी। फिल्म को सेन्सर बोर्ड की मंजूरी मिलने के बावजूद, कमल हासन ने रिलीज के पहले कुछ लोगों को यह फिल्म दिखाई। जिन मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों को यह फिल्म दिखाई गई, उन्होंने उस पर ढेर सारी आपत्तियाँ उठायीं और यह माँग भी की कि फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाया जाये। बाद में ये संगठन फिल्म को प्रतिबंधित किये जाने की अपनी माँग को वापिस लेने के लिये तैयार हो गये परन्तु इस शर्त के साथ कि फिल्म के कुछ हिस्से काट दिये जायें। जाने-माने फिल्म अभिनेता-निर्माता कमल हासन ने फिल्म में से कथित आपत्तिजनक हिस्से हटा दिये। इसके पश्चात फिल्म देश भर के थियेटरों में रिलीज हुयी और उसे बाक्स आफिस पर अच्छा प्रतिसाद मिला।

फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग अनुचित और अकारण थी। निर्माता ने फिल्म से वे हिस्से हटाये, जिनमें आतंकी हमलों के पूर्व और पश्चात, पाश्र्व में कुरान की आयतें सुनाई देती हैं। फिल्म से ऐसा प्रतीत होता है मानो कुरान, आतंकवादियों की प्रेरणास्त्रोत है। हासन का कहना है कि फिल्म भारतीय मुसलमानों के प्रति उनकी आदराजंलि है परन्तु वह इस्लाम को हौव्वा बनाने के अमरीकी प्रयास को प्रतिबिंबित करती दिखती है। इस्लाम को आतंकवाद का पर्याय बताने का दुष्प्रचार अमरीकी मीडिया तो करता ही रहा है, हमारा मीडिया भी इस मामले में कोई बहुत पीछे नहीं है। संक्षेप में, फिल्म की कहानी यह है कि नायक, तालिबान के खिलाफ अमरीकी सैनिकों की मदद करता है और एक मुस्लिम संगठन की बम धमाके करने की साजिश को विफल करने में अमरीकियों का साथ देता है। फिल्म का नायक मुसलमान है जो रॉ के लिए काम करता है और अत्यन्त ईमानदार व निष्ठावान व्यक्ति है। वह विश्व को मुस्लिम संगठनों के आतंकवाद से बचाना चाहता है। कुछ लेखकों का कहना है कि यह फिल्म केवल एक मुसलमान को अच्छा और बाकी सभी को बुरा बताती है। फिल्म देखने से ऐसा लगता है कि मानो मुस्लिम संगठन और समूह, पूरी दुनिया में हिंसा और गड़बड़ी फैला रहे हैं और अमेरिका दुनिया का रक्षक है और उनसे मुकाबला कर रहा है। अमेरिकी एजेन्सियाँ, अमरीका और पूरी दुनिया में मुस्लिम संगठनों के कुत्सित इरादों को सफल नहीं होने दे रही हैं। फिल्म यह संदेश भी देती है कि मुस्लिम बच्चों को बचपन से ही हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है और कुरान उनका प्रशिक्षण मैन्युअल है।

इसमें कोई दो मत नहीं कि फिल्म के दोनों मुख्य कलाकारों कमल हासन और राहुल बोस की धर्मनिरपेक्षता के प्रति असंदिग्ध निष्ठा है। परन्तु फिल्म की पटकथा अत्यन्त सतही प्रतीत होती है और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का केवल एक पक्ष प्रस्तुत करती है। आतंकवाद के मुद्दे पर पहले भी अनेक फिल्में बन चुकी हैं। इनमें से कई ने ऊपरी सतह को खुरचकर, आतंकवाद के पीछे के असली, जटिल कारणों को समझने का प्रयास किया है बजाए इसके कि आतंकवाद को केवल इस्लाम से जोड़ दिया जाए। न्यूयार्क, माय नेम इज़ खान, तेरे बिन लादेन आदि फिल्में अमरीकी दुष्प्रचार की धुंध से दूर, ‘‘सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं‘‘ की सुनियोजित ढंग से निर्मित की गई धारणा को तोड़ने का सफल प्रयास हैं। इसके विपरीत, यह फिल्म ऐसा चित्रण करती है मानो आतंकी हमेशा अपने साथ कुरान की एक प्रति रखते हैं, नियमित रूप से नमाज पढ़ते हैं और आतंकी हमले करते समय अल्लाहो अकबर के नारे लगाते हैं।

यह समझना मुश्किल है कि कमल हासन जैसे गम्भीर फिल्म निर्माता, अमेरिका द्वारा फैलाए गए इस मिथक के जाल में कैसे फंस गए कि आतंकवाद का सम्बन्ध इस्लाम की शिक्षाओं से है। हासन का दावा है कि उनकी पटकथा 3000 से अधिक सच्ची घटनाओं पर आधारित है। फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि हासन को जिन भी लोगों ने इन घटनाओं की जानकारी दी है, उनकी समझ बहुत उथली है। जिन्हें सच्ची घटनायें बताया जा रहा है वे, दरअसल, दुनिया की एकमात्र विश्वशक्ति-अमेरिका-के प्रचारतन्त्र की उपज हैं। फिल्म पूरी गम्भीरता से घोषित करती है कि अमरीकी, महिलाओं और बच्चों को नहीं मारते! शायद पटकथा लेखक महोदय ने अफगानिस्तान और ईराक पर अमरीकी हमलों में मारे गये लोगों की सूचियां नहीं देखीं हैं।

फिल्म में मुल्ला उमर से मिलता-जुलता एक पात्र है-उमर। उसे और अन्य तालिबानियों को कुरान से प्रेरित बताया गया है। पटकथा कहती है कि फिल्म का नायक दुनिया को नष्ट कर देने पर आमादा बुरे मुसलमानों के बीच एक मात्र अच्छा मुसलमान है। एक तरह से यह फिल्म प्रभुत्वशालियों की सोच को सच के रूप में प्रस्तुत करती है। कार्ल मार्क्स का कहना था कि प्रभुत्वशाली विचार अक्सर शासक वर्ग के विचार होते हैं। इसमें थोड़ा परिवर्तन कर यह कहा जा सकता है कि प्रभुत्वशाली वर्ग और शक्तियां, सामाजिक सोच को इस प्रकार गढ़ देती हैं कि सच सामने आ ही नहीं पाता। वे पूरे आत्मविश्वास के साथ और ‘सुबूतों‘ की बिना पर, झूठ पर सच का मुलम्मा चढ़ा देती हैं। लगभग यही बात अमरीकी मानवाधिकार कार्यकर्ता नोएम चोमोस्की ने ‘सहमति का उत्पादन‘ के अपने सिद्धान्त में कही हैं। अमरीकी साम्राज्य अपने संकीर्ण राजनैतिक हितों की रक्षा के लिए अन्य देशों पर आक्रमण करने के पहले, उस आक्रमण के लिए आमजनों की सहमति का उत्पादन करता है।

ऐसा नहीं है कि आतंकवाद के विषय में गम्भीर शोध का अभाव है। कई विद्वानों ने सामूहिक सामाजिक सोच के तंग दायरे से निकलकर छुपे हुये सच को सामने लाने का सराहनीय प्रयास किया है। इस सिलसिले में कम से कम दो विद्वतापूर्ण पुस्तकों का नाम लिया जा सकता है। पहली है मेहमूद ममदानी की गुड मुस्लिम बेड मुस्लिम व दूसरी तारिक अली की क्लेश ऑफ फंडामेंटिलज्मस । ये दोनों पुस्तकें आतंकी समूहों और संगठनों के असली प्रेरणास्त्रोतों और उद्धेश्यों पर प्रकाश डालती हैं। बिन लादेन और अल्कायदा, पश्चिम एशिया की तेल सम्पदा पर कब्जा करने के अमरीकी प्रयास से उभरे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों की यह सोच है कि कच्चा तेल इतनी महत्वपूर्ण वस्तु है कि उसे अरब देशों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। पश्चिम एशिया के हालिया इतिहास पर नजर डालने से यह साफ हो जाएगा कि सीआईए ने किस प्रकार मदरसों को प्रोत्साहन दिया और इन मदरसों ने इस्लाम के सलाफी संस्करण का इस्तेमाल कर मुस्लिम युवकों के दिलो दिमाग में किस तरह जहर भरा और उन्हें आतंकी लड़ाके बनाया। मुजाहिदीन, तालिबान और अल्कायदा इसी प्रक्रिया से उपजे हैं। अमेरिका ने अफगानिस्तान पर काबिज रूसियों को खदेड़ने के लिए इनका इस्तेमाल किया। बाद में अल्कायदा ने अपनी बंदूकों के मुंह पश्चिमी शक्तियों की ओर मोड़ दिये और वह एक भस्मासुर बन गया। ‘‘इस्लामिक आतंकवाद‘‘ की परिकल्पना अमेरिकी मीडिया ने 9/11, 2001 के बाद की। और इसका उद्धेश्य था इस्लाम और मुसलमानों को आतंकवाद से जोड़ना। और यहां हम उन ‘‘षड़यंत्रों‘‘ आदि की चर्चा नहीं कर रहे हैं जिनके बारे में कई फिल्मों और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर बहुत कुछ कहा गया है।

यह सचमुच त्रासद है कि सोशल मीडिया की बढ़ती पैठ और पश्चिम एशिया के हालिया इतिहास पर किए गए कई गहन अध्ययनों व गम्भीर शोधकार्यों के बाद भी, हमारी सोच अमरीकी मीडिया निर्धारित कर रहा है। कमल हासन की फिल्म भी अमरीकी मीडिया के इसी जाल में फंसी दिखती है। यहां तक कि फिल्म में मालेगांव और देश के अन्य कई शहरों में हुए बम धमाकों के लिए अल्कायदा जैसे संगठनों को दोषी बताया गया है। शायद फिल्म निर्माता यह भूल गए कि साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, स्वामी असीमानंद और उनके जैसे कई कार्यकर्ताओं के इन दंगों के पीछे होने के सुबूत सामने आ चुके हैं और ये सभी देश की विभिन्न जेलों की हवा खा रहे हैं। क्या कारण है कि फिल्म निर्माता इतने सतही विश्लेषण के आधार पर फिल्में बना रहे हैं और ये फिल्में जनता में व्याप्त गलत अवधारणाओं को और मजबूत कर रही हैं।

यह भी साफ है कि अमेरिका, प्रभुत्वशाली सामाजिक समूह और अमरीकी मीडिया कितने शक्तिशाली हैं कि वे विश्वरूपम जैसी फिल्मों की पठकथा भी तय कर रहे हैं। विश्वरूपम जैसी फिल्मों के निर्माताओं को यह अधिकार है कि उनकी फिल्में बिना किसी कांट-छांट के रिलीज हों। परन्तु हमें उनके अनुसंधान की घटिया गुणवत्ता और प्रतिगामी मूल्यों के प्रति उनके प्रेम से शर्मिंदगी महसूस होती है। ऐसी फिल्में इस्लाम को हौव्वा बनाती हैं और पश्चिमी देशों की तेल उत्पादक क्षेत्रों व पूरी दुनिया पर कब्जा करने की मुहिम में सहायक बनती हैं। ऐसी फिल्में साम्प्रदायिक सोच को भी प्रोत्साहन देती हैं। ।

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)