विश्व नेता बनने को तैयार जर्मनी
विश्व नेता बनने को तैयार जर्मनी
इजरायल की ऐतिहासिक यात्रा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी-20 के शिखर सम्मेलन में भाग लेने जर्मनी के हैम्बर्ग पहुंच गए हैं। दुनिया के औद्योगिक देशों और आर्थिक क्षेत्र की उभरती हुई शक्तियों का यह क्लब मूल रूप से आर्थिक प्रशासन के एजेंडे के साथ स्थापित किया है. लेकिन अन्य मुद्दे तात्कालिक आवश्यकता के हिसाब से इसकी विषयवस्तु बन जाते हैं। इसके सदस्यों में अमेरिका तो है ही उसके अलावा भारत, चीन, रूस, अर्जेंटीना, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मेक्सिको, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया और तुर्की हैं। यूरोपियन यूनियन को भी एक राष्ट्र सदस्य का दर्जा दिया गया है। जी-20 में दुनिया की आबादी का करीब दो तिहाई हिस्सा शामिल है और विश्व की अर्थव्यवस्था का 80 प्रतिशत इसके सदस्य देशों में केन्द्रित है।
1999 में शुरू हुए इस संगठन की ताकत बहुत अधिक मानी जाती है। 2008 में पहली बार सदस्य देशों के नेताओं का शिखर सम्मेलन अमेरिका की राजधानी वाशिंटन डी सी में हुआ था तब से अलग-अलग देशों में यह सम्मेलन होता रहा है। जर्मनी में हो रहा मौजूदा सम्मेलन बहुत ही महत्वपूर्ण इस लिहाज़ से भी है कि मई में इटली में हुए जी-7 सम्मेलन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से अपने आपको अलग कर लिया था। उस सम्मेलन में उन्होंने भारत और चीन की आलोचना करके एक नया विवाद खड़ा कर दिया था, जबकि जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने उनसे सार्वजनिक रूप से असहमति जताई थी।
जी-20 सम्मेलन में भी जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच बड़ा मतभेद उभर सकता है क्योंकि जर्मनी ने साफ संकेत दे दिया है कि वह जलवायु परिवर्तन, मुक्त व्यापार और शरणार्थियों की समस्या को मुद्दा बनाने के लिए प्रतिबद्ध है जबकि अमेरिका के नए नेतृत्व ने कह दिया है कि वह अमेरिकी हित पर ही ध्यान देने वाला है। वैश्विक मुद्दे फिलहाल अमेरिकी राष्ट्रपति की प्राथमिकता सूची से बाहर हैं। इस बात की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस सम्मेलन में अमेरिका अलग-थलग पड़ सकता है और बाकी देशों में एकता मजबूत होगी।
अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप पहली बार रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन से आमने सामने मिल रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि उनका रूसी नेता के साथ आचरण किस तरह से दुनिया के सामने आता है। अभी पिछले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र के नए महासचिव अंतोनियो गुतरेस ने अमेरिकी प्रशासन के नेताओं को चेतावनी दे दी थी कि अगर अमेरिका अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की समस्याओं में उपयुक्त रुचि नहीं दिखाता तो इस बात की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह विश्व के नेता के रूप अपना मुकाम गंवा देगा।
कूटनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि इस सम्मेलन के बाद एंजेला मर्केल का विश्व नेता के रूप में कद बढ़ने वाला है, क्योंकि शिखर सम्मेलन के कुछ दिन पहले ही वे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग से वे जर्मनी में मिल चुकी हैं और जी-7 के वक्त अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत और चीन का नाम लेकर इन देशों को जो तकलीफ दी थी उस पर मरहम लगाने की अपनी मंशा का इज़हार भी कर दिया है। हालांकि यह सच है कि कार्बन के उत्सर्जन के मामले में चीन का पहले स्थान पर है और भारत तीसरे पर, लेकिन इनमें से किसी को भी डोनाल्ड ट्रंप घुड़की देने की हैसियत नहीं रखते। ऐसी हालत में ट्रंप की अलोकप्रियता के मद्देनज़र एंजेला मर्केल की स्थिति बहुत ही मजबूत है और पेरिस समझौते के हैम्बर्ग में स्थायी भाव बन जाने से अमेरिकी नेतृत्व शुरू से ही रक्षात्मक खेल खेलने के लिए बाध्य है।
ऐसा लगता है कि ट्रंप के राष्ट्रपति काल के दौरान अमेरिका उदारवादियों में अपने स्थान को रोज ही गंवा रहा है और यूरोप के नेता यूरोपीय गौरव को स्थापित करने के लिए तैयार लग रहे हैं। पेरिस समझौते से अमेरिका के अलग होने की जी-7 शिखर बैठक में उठाई गई बात पर यूरोप में बहुत ही है। आज के माहौल में यूरोप में उदार सोच रखने वालों में एंजेला मर्केल सबसे बड़ी नेता हैं। जी-20 के इस शिखर सम्मेलन में जर्मनी का उद्देश्य है कि वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था को सबके हित में इस्तेमाल किया जाय। इस सम्मेलन में विकास को प्रभावी और सम्भव बनाने के तरीकों पर गंभीर चर्चा होगी।
अफ्रीका की गरीबी को खत्म करने के लिए किये जाने वाले कार्यों से जो अवसर उपलब्ध हैं, उन पर यूरोपीय देशों की नज़र है। महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण और दुनिया भर में बढ़ रही बेकार नौजवानों की फौज के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना बड़ी प्राथमिकता है। बुनियादी ढाँचे के सुधार में पूंजी निवेश का मुद्दा बहुत ही संजीदगी से यूरोप के देश उठा रहे हैं। शिक्षा और कौशल विकास में बड़े लक्ष्य निर्धारित करना और उनको हासिल करने की दिशा में भी अहम चर्चा होगी।
हालांकि जर्मनी के नेता इस बात से बार-बार इन्कार कर रहे हैं कि जर्मन नेता अमेरिकी आधिपत्य को चुनौती देना चाहती हैं लेकिन कूटनीति की दुनिया में इन बयानों का शाब्दिक अर्थ न लेने की परम्परा है और आने वाले समय में ही तय होगा कि ट्रंप के आने के बाद अमेरिका की साख में जो कमी आना शुरू हुई थी वह और कहां तक गिरती है। जी-20 सम्मेलन अंतरराष्ट्रीय संबंधों के गतिशास्त्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। हैम्बर्ग के लिए जिस तरह का एजेंडा तय करने में जर्मनी ने सफलता पाई है वह उनको पूंजीवादी दुनिया का नेतृत्व करने के बड़े अवसर दे रहा है। अगर अमेरिका विश्व नेता के अपने मुकाम से खिसकता है तो निश्चित रूप से जर्मनी ही स्वाभाविक नेता बनेगा। यह संकेत साफ दिख रहा है।
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जलवायु परिवर्तन के अलावा मुक्त व्यापार भी इस सम्मेलन का बड़ा मुद्दा है। एंजेला मर्केल ने दावा किया है कि हैम्बर्ग में कोशिश की जायेगी कि मुक्त व्यापार के क्षेत्र में विस्तार से चर्चा हो और अधिकतम देशों के अधिकतम हित में कोई फैसला लिया जाए। उन्होंने साफ कहा कि नए अमेरिकी प्रशासन के रवैये के चलते यह बहुत कठिन काम होगा लेकिन जर्मनी की तरफ से कोशिश पूरी की जाएगी।
ऐसा लगता है कि अमेरिका से रिश्तों के बारे में पूंजीवादी देशों में बड़े पैमाने पर विचार विमर्श चल रहा है। पिछले अस्सी वर्षों से अमेरिका और पूंजीवादी यूरोप के हित आपस में जुड़े हुए थे लेकिन अब उनकी फिर से व्याख्या की जा रही है। यूरोप के बाहर भी अमेरिकी राष्ट्रपति की क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा की प्रवृत्ति अमेरिका को अलग-थलग करने में भूमिका अदा कर रही है। अमेरिका का हर दृष्टि से सबसे करीबी देश कनाडा भी अब नए अमेरिकी नेतृत्व से खिंचता दिख रहा है। अभी पिछले हफ्ते वहां की संसद में विदेशमंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड ने बयान दिया कि अमेरिका जिस तरह से खुद ही अपने विश्व नेता के कद को कम करने पर आमादा है उस से तो साफ लगता है कि हमको (कनाडा) भी अपना स्पष्ट और संप्रभुता का रास्ता खुद ही तय करना होगा।
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भारत का जी-20 देशों में बहुत महत्व है। इसकी विकासमान अर्थव्यवस्था को दुनिया विकसित देशों की राजधानियों में पूंजीनिवेश के अच्छे मुकाम के रूप में देखा जाता है। पिछले साल सितम्बर के शिखर सम्मेलन में भारत ने चीन को लगभग हर मुद्दे पर समर्थन दिया था और यह उम्मीद जताई थी कि चीन भी उसी तरह से भारत को महत्व देगा लेकिन पिछले दस महीने की घटनाओं को देखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि भारत ने भविष्य का जो भी आकलन किया था, वह गड़बड़ा गया है।
चीन का रुख भारत के प्रति दोस्ताना नहीं है। जबकि भारत के प्रधानमंत्री ने पूरी कोशिश की। चीन के सबसे बड़े नेता को भारत बुलाया, बहुत ही गर्मजोशी से उनका अतिथि सत्कार किया, हर तरह के व्यापारिक संबंधों को विकसित करने की कोशिश की लेकिन चीन की तरफ से वह गर्मजोशी देखने को नहीं मिली। बल्कि उलटा ही काम हो रहा है।
पाकिस्तान स्थित आतंकवादी मसूद अजहर को जब संयुक्त राष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने का अवसर आया तो चीन ने वीटो कर दिया। भारत के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण कैलाश मानसरोवर यात्रा को बहुत ही असभ्य तरीके से बंद करवाया, सिक्किम और भूटान के मुद्दों को लगभग रोज ही उठा रहा है।
दो सालों में हमारे इस लोकतंत्र को डिक्टेटरशिप में बदल देगा हिंदुत्व के नाम पर ध्रुवीकरण
हिन्द महासागर में अपने विमान वाहक जहाजों को स्थापित करके चीन ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत चाहे जितना अपनापन दिखाए उसकी कूटनीति उसके राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रख कर ही की जायेगी, उसमें व्यक्तिगत संबंधों की कोई भूमिका नहीं होती। इस हालत में भारत को हैम्बर्ग में अपने एजेंडे को नए सिरे से तैयार करना पड़ा है। जी-20 के इस सम्मेलन में भारत की नई प्राथमिकता बिल्कुल स्पष्ट है।
भारत चाहता है कि बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश हो, सबके विकास के अवसर उपलब्ध कराये जाएं, ऊर्जा के विकास में बड़ा कार्यक्रम चले, आतंकवाद और काले धन पर लगाम लगाई जा सके। भारतीय टैक्स व्यवस्था में भारी सुधार की घोषणा करने के बाद भारत में विदेशी निवेश के अवसर बढ़े हैं। उद्योग लगाने में अब यहां ज्यादा सहूलियत रहेंगी, ऐसा भारत का दावा है लेकिन देश में जिस तरह से कानून को बार-बार हाथ में लेने और राज्य सरकारों की अपराधियों को न पकड़ पाने की घटनाएं दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गईं हैं, वह चिंता का सबब है।
मांस बन्दी से सांस बन्दी की ओर.... योगी व मोदी जी की भलाई में ही हिन्दूराष्ट्र की भलाई है
गौरक्षा के नाम पर देश में फैल रहे आतंक से बाकी दुनिया में देश की छवि कोई बहुत अच्छी नहीं बन रही है। जाहिर है प्रधानमंत्री सारी दिक्कतों को दरकिनार कर देश की एक बेहतरीन छवि पेश करने की कोशिश करेंगे।
06-07-2017


