वोटबैंक की राजनीति में उलझा आदिवासियों का मूलाधिकार
वोटबैंक की राजनीति में उलझा आदिवासियों का मूलाधिकार
शिव दास
लखनऊ। समाज के निचले पायदान पर जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों के संवैधानिक और मूलाधिकार को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा उदासीन रही हैं। उन्होंने उन्हें केवल वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें उनका हक देने में हमेशा पीछे रहीं हैं। इसमें कांग्रेस की भूमिका हमेशा संदेह के घेरे में रही है।
उत्तर प्रदेश में निवास करने वाली विभिन्न आदिवासी जातियां कांग्रेस के शासनकाल में संसद से पास हुए अनुसूचित जनजाति (उत्तर प्रदेश) कानून-1967 के लागू होने के समय से ही खुद को ठगा महसूस कर रही हैं। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उत्तर प्रदेश के सबसे निचले तबके यानी आदिवासी पर यह कानून जबरन थोप दिया था। इसकी वजह से वे आज तक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित हैं। इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश की पांच आदिवासी जातियों (भोटिया, भुक्सा, जन्नसारी, रांजी और थारू) को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल किया गया लेकिन कोल, कोरबा, मझवार, उरांव, मलार, बादी, कंवर, कंवराई, गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदि आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में ही रहने दिया गया। जबकि इन जातियों की सामाजिक स्थिति आज भी उक्त पांच आदिवासी जातियों के समान ही है। इन जातियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू कर दी।
उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट बैंक की गणित के हिसाब से अपना-अपना जाल बुना और उनके वोट बैंक का इस्तेमाल कर सत्ता हासिल की लेकिन उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित रखा। केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी (राजग) ने वर्ष 2002 में संसद में संविधान संशोधन का निर्णय लिया। इसमें उसके नुमाइंदों की सत्ता में बने रहने की लालच भी थी। तत्कालीन राजग सरकार ने उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईया, भुनिया आदिवासी जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने की कवायद शुरू की। इसके लिए उसने संसद में ’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) विधेयक-2002’ पेश किया। संसद ने इसे पारित कर दिया। हालांकि सियासी पृष्ठभूमि मंु इस कानून में कुछ विशेष जिलों के आदिवासियों को ही शामिल किया गया था। इस वजह से आदिवासी बहुल चंदौली जिले में इन जातियों के लोग आज भी अनसूचित जाति वर्ग में ही हैं जबकि उत्तर प्रदेश की सत्ता को पहली बार इस जिले से नक्सलवाद का लाल सलाम हिंसा के रूप में मिला। फिलहाल ’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा (सुधार) अधिनियम-2002’ के संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इसे अधिसूचित कर दिया। केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय ने 8 जनवरी 2003 को भारत सरकार का राजपत्र (भाग-2, खंड-1) जारी किया। इसके तहत गोंड़ (राजगोंड़, धूरिया, पठारी, नायक और ओझा) जाति को उत्तर प्रदेश के 13 जनपदों महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और सोनभद्र में अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल कर दिया। साथ में खरवार, खैरवार को देवरिया, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी और सोनभद्र में, सहरिया को ललितपुर में, परहिया, बैगा, अगरिया, पठारी, भुईया, भुनिया को सोनभद्र में, पंखा, पनिका को सोनभद्र और मिर्जापुर में एवं चेरो को सोनभद्र और वाराणसी में अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया।
उत्तर प्रदेश में ’अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आज्ञा(सुधार) अधिनियम-2002’ कानून ने एक बार फिर आदिवासी समुदाय के दुखते रग पर हाथ रख दिया। इसके तहत अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुआ आदिवासी समुदाय सत्ता में अपने भागीदारी के संवैधानिक अधिकार से ही वंचित हो गया। इस कानून के लागू होने से वे त्रिस्तरीय पंचायतों, विधानमंडलों और संसद में अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व करने से ही वंचित हो गए क्योंकि राज्य में उनकी आबादी बढ़ने के अनुपात में इन सदनों में उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं की गईं। 3 मई, 2002 से 29 अगस्त, 2003 तक राज्य की सत्ता में तीसरी बार काबिज रही बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी आदिवासियों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार की अनदेखी की। मायावती अनुसूचित जाति वर्ग से अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल हुई आदिवासियों की संख्या का रैपिड सर्वे कराकर उनके लिए विभिन्न सदनों में आबादी के आधार पर सीट आरक्षित करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार, परिसीमन आयोग और चुनाव आयोग को भेज सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने इन विसंगतियों के साथ कानून को राज्य में लागू कर दिया। इससे एक बार फिर आदिवासियों के समानुपातिक प्रतिनिधित्व का संवैधानिक अधिकार कानूनी और सियासी पचड़े में उलझ गया।
समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की अगुआई में 29 अगस्त, 2003 को राज्य में सरकार बनी। तत्कालीन सपा सरकार में मंत्री और दुद्धी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से करीब 27 साल तक विधायक रहे विजय सिंह गोंड़ त्रिस्तरीय पंचायतों समेत विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने से वंचित हो गए। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। दूसरी तरफ आदिवासी बहुल सोनभद्र के आदिवासियों में अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए जागरूकता बढ़ी और वो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक कूंच कर गए, लेकिन 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग और 13 मई, 2007 में राज्य की सत्ता में आई मायावती सरकार ने उनकी आवाज को एक बार फिर नजर अंदाज कर दिया। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश का आदिवासी समुदाय अपने हक के लिए जिला प्रशासन से लेकर उच्चतम न्यायालय तक अपनी आवाज पहुंचाता रहा।
मौके की नजाकत को भांपते हुए पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ ने कांग्रेस का दामन थामने का निर्णय लिया। उन्होंने इसकी पृष्ठभूमि भी तैयार कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने बेटे विजय प्रताप की ओर से 2011 के आखिरी महीने में उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका संख्या-540/2011 दाखिल करवाई। केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के हक में रिपोर्ट दी। उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय निर्वाचन आयोग, भारत सरकार और उत्तर प्रदेश को तलब किया। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 10 जनवरी, 2012 को आदिवासियों के हक में फैसला दिया। हालांकि उसने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने और सीटों के आरक्षण की प्रक्रिया में तीन महीने का समय लगने की वजह से उस समय आदिवासियों के हक में सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। अब निर्वाचन आयोग ने उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए विधानसभा की दो सीटें दुद्धी और ओबरा आरक्षित कर दी हैं।


