शुभ्रा शर्मा
हिंदी गद्य के विकास का अहम पड़ाव है- भारतेंदु युग। भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ-साथ उनके समकालीन बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र की भी इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन तीनों ने न केवल अपनी लेखनी से हिंदी गद्य को नयी दिशा प्रदान की बल्कि अपने-अपने शहर में ऐसे युग-प्रवर्तक पत्र भी निकाले, जिनसे बहुत सरे और लोगों को भी गद्य लेखन की प्रेरणा मिली।
भारतेंदु जी ने 15 अगस्त 1868 को काशी से कवि वचन सुधा का प्रकाशन आरम्भ किया, जो भिन्न-भिन्न कलेवरों में 1885 तक चला। इसके अलावा उन्होंने हरिश्चंद्र पत्रिका और बालाबोधिनी भी निकालीं।
बालकृष्ण भट्ट जी ने 1877 में प्रयाग से हिंदी प्रदीप प्रकाशित किया और तमाम कठिनाइयों तथा आर्थिक संकटों के बावजूद उसे 33 वर्षों तक जलाये रखा।
प्रताप नारायण मिश्र जी ने 1883 में कानपुर से मासिक पत्र ब्राह्मण निकलना शुरू किया और उसे लगभग 14 वर्ष चलाया।
अंग्रेज़ों की चालबाजियों और अत्याचारों के विरुद्ध नाना साहेब पेशवा, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में लड़ी गयी आज़ादी की पहली लड़ाई ने भारत की आत्मा को झकझोर दिया था। लेकिन 1857 के इस तथाकथित सैनिक विद्रोह के बाद मलिका विक्टोरिया ने शासन की बागडोर ईस्ट इंडिया कंपनी से खुद अपने हाथों में ले ली। उनके क़ैसर-ए-हिन्द बनने की घोषणा प्रयाग में ही की गयी थी। शायद इसीलिए प्रयागवासियों को यह टीस और ज़्यादा सालती थी। इसी पृष्ठभूमि में पं० बालकृष्ण भट्ट ने अपना हिंदी प्रदीप प्रज्ज्वलित किया। पहले अंक की प्रस्तावना में भारतेंदु जी ने यह कवित्त लिखा
शुभ सरस देश सनेह पूरित, प्रकट ह्वै आनँद भरे
बचि दुसह दुर्जन वायु सों, मणिद्वीप सम थिर, नहि टरे।
सूझे विवेक-विचार उन्नति कुमति सब यामे जरे
हिंदी प्रदीप प्रकाशि मूरखतादि भारत तम हरे।
भारतेंदु जी पुष्टिमार्गीय थे और वल्लभाचार्य की शब्दावली में पूजा का दीप जलाया नहीं जाता, प्रगटाया जाता है। इसी आशय से भारतेंदु जी कहते हैं कि शुभ, सरस और देश के स्नेह से परिपूर्ण हिंदी प्रदीप जो आज प्रगटाया जा रहा है, यह सबके मन में आनंद भरे। यह दुर्जनों के द्वेष की आँधी से बचा रहे और मणिदीप की भाँति निरंतर स्थिर भाव से जलता रहे। इसके प्रकाश से हमें उन्नति के पथ पर बढ़ने की विवेक-बुद्धि प्राप्त हो और आपसी फूट तथा अन्धविश्वास सरीखी हमारी कुमति इसमें जलकर भस्म हो जायें।
स्पष्ट है कि हिंदी प्रदीप को प्रज्ज्वलित करने वालों के मन में हिंदी के विकास के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना जगाने का भी लक्ष्य था। इसी संकल्प के साथ पं० बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप को प्रकाशमान रखने के लिए अथक परिश्रम किया। जीवन में जो कुछ अर्जित किया, इसी पुण्य कार्य में समर्पित कर दिया।
भट्ट जी का जन्म 3 जून 1843 को प्रयाग में हुआ था। उनके पिता बेनीप्रसाद व्यवसायी थे और माँ पार्वती देवी प्रबुद्ध महिला थीं। वे चाहती थीं कि उनका बेटा पढ़-लिखकर विद्वान बने इसलिए उसे अपने पिता पं० अनंतराम मिश्र के पास भेज दिया। बालकृष्ण की प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई, लेकिन 1857 के बाद अंगेज़ों के बढ़ते प्रभुत्व को देखते हुए उन्हें मिशन स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने भेज दिया गया। दसवीं कक्षा के बाद माँ की असामयिक मृत्यु के कारण मिशन स्कूल की पढ़ाई जारी न रह सकी और वे फिर से संस्कृत व्याकरण, साहित्य तथा ज्योतिष अध्ययन में गये। उनके बड़े भाई बालमुकुंद धनी व्यवसायी थे लेकिन बालकृष्ण जी ने कभी उनके आगे हाथ नहीं फैलाया। उनके नाना ने प्रयाग में उनके लिए एक छोटा-सा मकान खरीद दिया था। उसी में सपरिवार रहते थे। आजीविका के लिए छोटा-मोटा व्यापार भी किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। कुछ दिन अपने पुराने मिशन स्कूल में पढ़ाया। फिर एक अन्य पाठशाला में प्रधान पंडित नियुक्त हुए पर कहीं भी टिके नहीं। 1885 से 1908 तक कायस्थ पाठशाला में संस्कृत के प्रोफेसर रहे। इस दौरान लोकमान्य तिलक की विचारधारा से प्रभावित हुए। तिलक जी को जेल भेजे जाने पर आहत होकर एक जन-सभा में कुछ ऐसी आग उगल आये कि कायस्थ पाठशाला की नौकरी भी छूट गयी।
इसी बीच,1877 में प्रयाग के कुछ शिक्षित युवाओं ने 'हिंदी प्रवर्द्धिनी' नाम की एक संस्था बनायी और निश्चय किया कि पाँच-पाँच रूपये का चंदा जमा कर एक मासिक पत्र प्रकाशित किया जाये। इस तरह 'हिंदी प्रदीप' का जन्म हुआ, लेकिन एक वर्ष के अंदर ही वर्नाक्युलर प्रेस ऎक्ट पास होने पर कई लोगों ने हाथ खींच लिए। अकेले भट्ट जी ने घाटा सहकर भी 33 वर्षों तक इस प्रदीप को जगाये रखा। अप्रैल 1909 में सरकार ने प्रदीप के लिए तीन हज़ार रूपये की ज़मानत माँगी। लाख कोशिशों के बावजूद भट्ट जी ज़मानत नहीं दे सके और प्रदीप बंद हो गया।
भट्ट जी के जीवन का तो मानो आसरा ही टूट गया। जैसे जीने की इच्छा ही मर गयी। परिवार पालने लिए कालाकाँकर, काशी और जम्मू में संपादक की नौकरियाँ करते और छोड़ते रहे। कहीं भी उनका मन नहीं रमा। आखिर 20 जुलाई 1914 को उनका जीवन प्रदीप भी बुझ गया। हिंदी गद्य के इस पुरोधा की सौंवी पुण्य तिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि।
डॉ. शुभ्रा शर्मा ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की. पटना विश्वविद्यालय में इतिहास के लेक्चरर के रूप में जीवन की शुरुआत की और आजकल आकाशवाणी में कार्यरत हैं. साहित्य, संगीत और पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका नाम है. बनारस में इनके बचपन का घर, हरि पदम, काशी की संस्कृति के जानकारों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था. काशी, शंकर और बनारसी तहजीब के शायर, नजीर बनारसी, की गोद में पलीं बढीं, शुभ्रा शर्मा के पिता कृष्ण चन्द्र शर्मा “भिक्खु” एक बड़े साहित्यकार थे. डॉ शुभ्रा शर्मा खुद भी एक लेखिका हैं लेकिन इनका अधिकतर लेखन अभी पांडुलिपि के रूप में इनकी डायरियों में छुपा हुआ है.