शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में बंगाल और असम में धार्मिक ध्रुवीकरण तेज
शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में बंगाल और असम में धार्मिक ध्रुवीकरण तेज
पलाश विश्वास
शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में ममता बनर्जी और इस विधेयक को लेकर बंगाल और असम में धार्मिक ध्रुवीकरण बेहद तेज
सबसे पहले यह साफ-साफ कह देना जरूरी है कि हम भारत ही नहीं, दुनिया भर के शरणार्थियों के हकहकू के लिए लामबंद हैं।
सबसे पहले यह साफ-साफ कह देना जरूरी है कि हम विभाजनपीड़ित शरणार्थियों की नागरिकता के लिए जारी देशव्यापी आंदोलन के साथ है।
सबसे पहले यह साफ-साफ कह देना जरूरी है कि विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के मसले को लेकर धार्मिक ध्रुवीकरण की दंगाई राजनीति का हम पुरजोर विरोध करते हैं।
विभाजनपीड़ितों की पहचान अस्मिताओं या धर्म का मसला नहीं है।
यह विशुद्ध तौर पर कानूनी और प्रशासनिक मामला है, जिसे जबर्दस्ती धार्मिक मसला बना दिया गया है और पूरी राजनीति इस धतकरम में शामिल है, जो विभाजनपीड़ितों के खिलाफ है।
कुछ दिनों पहले मैंने लिखा था कि इतने भयंकर हालात हैं कि अमन चैन के लिहाज से उनका खुलासा करना भी संभव नही है। पूरे बंगाल में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होने लगा है, वह गुजरात से कम खतरनाक नहीं है तो असम में भी गैरअसमिया तमाम समुदाओं के लिए जान माल का भारी खतरा पैदा हो गया है। गुजरात अब शांत है। लेकिन बंगाल और असम में भारी उथल पुथल होने लगा है।
मैंने लिखा था कि असम और बंगाल में हालात कश्मीर से ज्यादा संगीन है।
पहले मैं इस संवेदनशील मुद्दे पर चुप रहना बेहतर समझ रहा था, लेकिन हालात असम में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के खिलाफ अल्फाई आंदोलन और बंगाल में भी धार्मिक ध्रुवीकरण की वजह से बेहद तेजी से बेलगाम होते जा रहे हैं, इसलिए अंततः इस तरफ आपका ध्यान खींचना अनिवार्य हो गया है।
नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 को लेकर यह ध्रुवीकरण बेहद तेज हो गया है। हम शुरू से शरणार्थियों के साथ हैं। यह समस्या 2003 के नागरिकता संशोधन विधयक से पैदा हुई है, जो सर्वदलीय सहमति से संसद में पास हुआ।
जन्मजात नागरिकता का प्रावधान खत्म होने से जो पेचीदगियां पैंदा हो गयी हैं, उन्हें उस कानून में किसी भी तरह का संशोधन से खत्म करना नामुमकिन है।
1955 के नागरिकता कानून के तहत शरणार्थियों को जो नागरिकता का अधिकार दिया गया था, उसे छीन लेने की वजह से यह समस्या है।
यह कानून भाजपा ने पास कराया था, जिसका समर्थन बाकी दलों ने किया था। बाद में 2005 में डा. मनमोहनसिह की कांग्रेस सरकार ने इस कानून को संसोधित कर लागू कर दिया।
गौरतलब है कि मनमोहन सिह और जनरल शंकर राय चौधरी ने ही 2003 के नागरिकता संशोधन विधेयक में शरणार्थियों को नागरिकता का प्रावधान रखने का सुझाव दिया था, लेकिन जब उनकी सरकार ने उस कानून को संशोधित करके लागू किया तो वे शरणार्थियों की नागरिकता का मुद्दा सिरे से भूल गये।
अब वही भाजपा सत्ता में है और वह अपने बनाये उसी कानून में संशोधन करके मुसलमानों को छोड़कर तमाम शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधन 2016 विधेयक पास कराने की कोशिश में है और उसे शरणार्थी संगठनों का समर्थन हासिल है। लेकिन भाजपा को छोड़कर कोई राजनीतिक दल इस विधेयक के पक्ष में नहीं है।
दूसरी ओर, शरणार्थियों की नागरिकता के बजाय संघ परिवार मुसलमानों को नागरिकता के अधिकार से वंचित करने की तैयारी में है। जबकि तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों के साथ असम की सरकार के इस विधेयक को समर्थन के बावजूद असम के तमाम राजनीतिक दल और अल्फा, आसु जैसे संगठन इसके प्रबल विरोध में हैं।
आसु ने असम में इसके खिलाफ आंदोलन तेज कर दिया है। असम में गैर असमिया समुदायों के खिलाफ कभी भी फिर दंगे भड़क सकते हैं। भयंकर दंगे।
राजनीतिक दल इस कानून के तहत मुसलमानों को भी नागरिकता देने की मांग कर रहे हैं जिसके लिए संघ परिवार या एसम के राजनीतिक दल या संगठन तैयार नहीं हैं।
असम में तो किसी भी गैरअसमिया के नागरिक और मानवाधिकार को मानने के लिए अल्फा और आसु तैयार नहीं है, भाजपा की सरकार में राजकाज उन्हीं का है।
वामपंथी दलों के साथ तृणमूल कांग्रेस इस विधेयक का शुरु से विरोध करती रही है।
अब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और पश्चिम बंगाल सरकार इस विधेयक का आधिकारिक विरोध करते हुए उसे वापस लेने की मांग कर रही है।
शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।
तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है, 2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तकनीकी मुद्दों के तहत मुसलमान वोट बैंक को साध लेने की होड़ में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता का मामला तो लटक ही गया है और इससे असम और बंगाल में कश्मीर से भी भयंकर हालात पैदा हो रहे हैं।
पहले शरणार्थी वामदलों के साथ थे। मरीचझांपी नरसंहार के बाद परिवर्तन काल में शरणार्थी तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में हो गये और शरणार्थियों में देशबर में कहीं भी वामदलों का समर्थन नहीं है।
धर्मनिरपेक्ष राजनीति के इस विधेयक के तकनीकी विरोध के साथ शरणार्थी अब पूरे देश में संघ परिवार के खेमे में चले जायेंगे। बंगाल में 2021 में संघ परिवार के राजकाज की तैयारी जोरों पर है।
गौरतलब है कि दंडकारण्य और बाकी भारत से विभाजनपीड़ितों को बंगाल बुलाकर उनके वोटबैंक के सहारे कांग्रेस को बंगाल में सत्ता से बेदखल करने का आंदोलन कामरेड ज्योति बसु और राम चटर्जी के नेतृत्व में वामदलों ने शुरु किया था। मध्य भारत के पांच बड़े शरणार्थी शिविरों को उन्होंने इस आंदोलन का आधार बनाया था। शरणार्थियों के मामले में बंगाल की वामपंथी भूमिका से पहले ही मोहभंग हो जाने की वजह से शरणार्थियों के नेता पुलिनबाबू ने तब इस आंदोलन का पुरजोर विरोध किया था, जिस वजह से वाम असर में सिर्फ दंडकारण्य के शरणार्थी ही वाम आवाहन पर सुंदरवन के मरीचझांपी पहुंचे तब तक कांग्रेस को वोटबैंक तोड़कर मुसलमानों के समर्थन से ज्योति बसु बंगाल के मुख्यमंत्री बन चुके थे और वामदलों के लिए शरणार्थी वोट बैंक की जरुरत खत्म हो चुकी थी।
जनवरी 1979 में इसीलिए मरीचझांपी नरसंहार हो गया और बंगाल और बाकी देश में वामपंथियों के खिलाफ हो गये तमाम शरणार्थी।
बहुत संभव है कि लोकसभा में भारी बहुमत और राज्यसभा में जोड़ तोड़ के दम पर संघ परिवार यह कानून पास करा लें लेकिन 1955 के नागरिकता कानून को बहाल किये बिना संशोधनों के साथ 2003 के कानून को लागू करने में कानूनी अड़चनें भी कम नहीं होंगी और इस नये कानून से नागरिकता का मामला सुलझने वाला नहीं है।
शरणार्थी समस्या सुलझने के आसार नहीं है लेकिन इस प्रस्तावित नागरिकता संशोधन के विरोध और विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के साथ मुसलमान वोट बैंक की राजनीति जुड़ जाने से जो धार्मिक ध्रुवीकरण बेहद तेज हो गया है, उससे बंगाल और असम में पंजाब, गुजरात और कश्मीर से भयानत नतीजे होने का अंदेशा है।
जहां तक हमारा निजी मत है, हम 2003 के नागरिकता संशोदन कानून को सिरे से रद्द करके 1955 के नागरिकता कानून को बहाल करने की मांग करते रहे हैं। 1955 के कानून को लेकर कोई विरोध नही रहा है। इसीके मद्देनजर हमने अभी तक इस मुद्दे परकुछ लिखा नहीं है और न ही संसदीय समिति को अपना पक्ष बताया है, क्योंकि संसदीय समिति में शामिल सदस्य अपनी-अपनी राजनीति कर रहे हैं और सुनवाई सिर्फ इस विधेयक को लेकर राजनीतिक समीकरण साधने का बहाना है।
वे हमारे अपने लोग हैं जिनके लिए मेरे दिवंगत पिता पुलिनबाबू ने तजिंदगी सीमाओं के आर-पार सर्वहारा बहुजनों को अंबेडकरी मिशन के तहत एकताबद्ध करने की कोशिश में दौड़ते रहे हैं। जब बंगाल में कम्युनिस्ट नेता बंगाल से बाहर शरणार्थियों के पुनर्वास का पुरजोर विरोध कर रहे थे, तब पुलिनबाबू कम्युनिस्टों के शरणार्थी आंदोलन में बने रहकर शरणार्थियों को बंगाल से बाहर दंडकारण्य या अंडमान में एकसाथ बसाकर उन्हें पूर्वी बंगाल जैसा होमलैंड देने की मांग कर रहे थे।
केवड़ातला महाश्मशान पर इस मांग को लेकर पुलिनबाबू ने आमरण अनशन शुरु किया तो उनका कामरेड ज्योतिबसु समेत तमाम कम्युनिस्ट नेताओं से टकराव हो गया। उन्हें ओड़ीशा उनके साथियों के साथ भेज दिया गया लेकिन जब उनका आंदोलन वहां भी जारी रहा तो उन्हें नैनीताल की तराई के जंगल में भेज दिया गया। वहां भी कम्युनिस्ट नेता की हैसियत से उन्होंने ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन का नेतृत्व किया। आंदोलन के सैन्य दमन के बाद तेलंगना के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने उस आंदोलन से नाता तोड़ दिया। फिर उन्होंने कम्युनिस्टों पर कभी भरोसा नहीं किया।
वैचारिक वाद विवाद में बिना उलझे पुलिनबाबू हर हाल में शरणार्थियों की नागरिकता, उनके आरक्षण और उनके मातृभाषी के अधिकार के लिए लड़ते रहे। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भी वे ढाका में शरणार्थी समस्या के स्थाई हल के लिए पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के एकीकरण की मांग करते हुए जेल गये।
1971 के बाद वीरेंद्र विश्वास ने भी पद्मा नदी के इस पार बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के लिए होम लैंड आंदोलन शुरु किया था। मरीचझापी आंदोलन में भी वे नरसंहार के शिकार शरणार्थियों के साथ खड़े थे।
तबसे आजतक विभाजनपीड़ित बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता, आरक्षण और मातृभाषा के अधिकार को लेकर आंदोलन जारी है लेकिन किसी भी स्तर पर इसकी सुनवाई नहीं हो रही है। सीमापार से लगातार जारी शरणार्थी सैलाब की वजह से दिनोंदिन यह समस्या जटिल होती रही है। भारत सरकार ने बांग्लादेश में अल्पसंक्यक उत्पीड़न रोकने के लिए कोई पहल 1947 से अब तक नही की है। 2003 के कानून के बाद सन1947 के विभाजन के तुरंत बाद भारत आ चुके विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीन जाने से यह समस्या बेहद जटिल हो गयी है।
1971 से हिंदुओं के साथ बड़े पैमाने पर असम, त्रिपुरा, बिहार और बंगाल में जो बांग्लादेशी मुसलमान आ गये, उसके खिलाफ असम और त्रिपुरा में हुए खून खराबे के बावजूद इस समस्या को सुलझाने के बजाय राजीतिक दल अपना अपना वोटबैंक मजबूत करने के मकसद से राजनीति करते रहे, शरणार्थी समस्या सुलझाने की कोशिश ही नहीं हुई।
1960 के दशक में बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ असम में हुए दंगो के बाद से लगातार पुलिन बाबू शरणार्थियों की नागरिकता की मांग करते रहे लेकिन वे शरणार्थियों का कोई राष्ट्रव्यापी संगठन बना नहीं सके। वे 1960 में असम के दंगाग्रस्त इलाकों में शरणार्तियों के साथ थे।
अस्सी के दशक में भी बिना बंगाल के समर्थन के विदेशी हटाओ के बहाने असम से गैर असमिया समुदायों को खदेडने के खिलाफ वे शरणार्थियों की नागरिकता के सवाल को मुख्य मुद्दा मानते रहे हैं।
शरणार्थी समस्या सुलझाने के मकसद से अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर वे 1969 में भारतीय जनसंघ में शामिल भी हुए तो सालभर में उन्हें मालूम हो गया कि संघियों की कोई दिलचस्पी शरणार्थियों को नागरिकता देने में नहीं है।
हमें अनुभवों से अच्छी तरह मालूम है कि शरणार्थियों को बलि का बकरा बनाने की राजनीति की क्या दशा और दिशा है। लेकिन राजनीति यही रही तो हम शरणार्थी आंदोलन के केसरियाकरण को रोकने की स्थिति में कतई नही हैं। जो अंततः बंगाल में केसरियाकरण का एजंडा भी कामयाब बना सकता है। वामपंथी इसे रोक नही सकते।
बाकी राजनीतिक दलों के विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के खिलाफ लामबंद हो जाने के बाद असम और बंगाल में ही नहीं बाकी देश में भी इस मुद्दे पर धार्मिक ध्रुवीकरण का सिलसिला तेज होने का अंदेशा है।
कानूनी और तकनीकी मुद्दों को सुलझाकर तुरंत विभाजनपीड़ितों की नागरिकता देने की सर्वदलीय पहल हो तो यह धार्मिक ध्रुवीकरण रोका जा सकता है।


