प्रवीण कुमार सिंह
जयबहादुर सिंह का जन्म 20 जनवरी 1909 के जनवरी माह में आजमगढ़ के सूरजपुर गॉंव में एक जमींदार परिवार में हुआ था। पिता नरसिंह नारायण सिंह जमींदार होने के बावजूद भी मृदु व सरल स्वभाव के थे।
जयबहादुर सिंह तीन भाईयों में सबसे छोटे थे। उनकी प्राथमिक षिक्षा गॉंव में हुई। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के जयबहादुर सिंह ने आगे की पढ़ाई के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। वहां मदनमोहन मालवीय के साथ छूआछूत खत्म करने आदि सामाजिक कार्यो में लगे रहे। वे अपने मिलनसार स्वभाव के कारण छात्रों में लोकप्रिय थे।
1930 के दशक में आजादी का आंदोलन अपने उरोज पर था। भगत सिंह की शहादत ने नौजवानों के अन्दर हलचल पैदा कर दी थी। तरूण जयबहादुर पर भी इसका असर पड़ा। उ. प्र. में इलाहाबाद आजादी के आंदोलन का प्रमुख केन्द्र था। एक तरफ नरमपंथी कांग्रेंस था, तो दूसरी तरफ गरम दल के क्रांतिकारी। उसी दौरान चन्द्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क में पुलिस से मुकाबला करते हुए शहीद हो गये थे।
इन घटनाओं ने जयबहादुर सिंह के मन को उद्वेलित कर दिया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपना दाखिला करा लिये। तब तक वे देश के लिए कुछ कर गुजरने का मन बना चुके थे। अब जयबहादुर सिंह के दिल में साफ था कि मुल्क को गुलाम बनाये अंग्रेजों को सात समुन्दर पार भेजना है।
जयबहादुर सिंह को इलाहाबाद आने पर क्रान्तिकारी संगठन एच एस आर ए (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) के नये नेता झारखंण्डे राय के बारे में पता लगा, जो जयबहादुर सिंह के पड़ोसी गॉंव अमिला के थे।
मई 1936 में जयबहादुर सिंह प्रतिज्ञा-पत्र पर अपने खून से हस्ताक्षर करके बाकायदा क्रांतिकारी गुट के सदस्य बन गये। अब जयबहादुर सिंह क्रांन्तिकारी जयबहादुर सिंह बन चुके थे और पूरे जोश व हिम्मत से संगठन के काम में जुट गये थे।
संगठन चलाने के लिए धन की बहुत जरूरत थी। हथियार आदि खरीदना था, जिसके लिए सरकारी खजाना लूटे जाने का कार्यक्रम बना। जयबहादुर सिंह के नेतृत्व में ट्रेन से जा रहे सरकारी खजाने को पिपरीडीह और दुल्लहपुर स्टेशन के बीच नियत स्थान पर ट्रेन रोक कर लूट लिया गया।
इनके साथ झारखण्डे राय (बाद में मंत्री व सांसद बनें), मुक्तिनाथ उपाध्याय, कृष्णदेव राय, जामिन अली आदि थे। इससे ब्रिटिश हुकूमत सकते में आ गयी, क्योंकि यह काकोरी काण्ड की पुनरावृत्ति थी।
पुलिस सभी अभियुक्तों को गिरफ्तार करने लगी लेकिन जयबहादुर सिंह नहीं पकड़े गये। जिससे अंग्रेजों ने जयबहादुर सिंह का पैतृक घर फूँक दिया।
इस सफलता को देखते हुए विंध्याचल के पास जंगल में ट्रेन से जा रहा सरकारी खजाना को लूटने की योजना बनी। जिसके लिए जयबहादुर सिंह वाराणसी से ट्रेन द्वारा इलाहाबाद के लिए जा रहे थे। जिसके बारे पुलिस को कही से सुराग लग गया और रामबाग में गिरफ्तार कर लिए गये। इस केस का मुकदमा गाजीपुर जिला न्यायालय में चला। जिसके लिए जयबहादुर सिंह को 9 वर्ष 6 माह कठोर कारावास की सजा हुई।
जयबहादुर सिंह के जेल में रहने के बावजूद भी ब्रिटिश हुकूमत को शंका था कि वे कभी भी गड़बड़ी फैला सकते हैं। इसलिए उन्हें फतेहगढ़ सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया। यहीं मशहूर वामपंथी नेता एसजी सरदेसाई भी बंद थे। सरदेसाई के संपर्क में आकर जयबहादुर सिंह मार्क्सवाद से प्रभावित हुए और मार्क्सवादी पुस्तकों का अध्ययन करने लगे।
अब जयबहादुर सिंह क्रान्तिकारी के साथ-साथ कम्युनिस्ट बन गये।
अंग्रेज शोषकों के साथ-साथ शोषित किसान-मजदूरों को भीतरी शोषण से मुक्त कराने के लिए संघर्ष छेड़ दिया।
सन् 1946 के अप्रैल माह में जूल से छूटने के बाद जयबहादुर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। पूर्वी उत्तर प्रदेश को कार्यक्षेत्र बनाकर किसान-मजदूरों को संगठित कर हरी, बेगारी नजराना और बेदखली के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। इसके पहले अपने परिवार द्वारा आम जनता से लिए जाने वाला नजराना को बन्द कराया। जो पूरे क्षेत्र में चर्चा का पर्याय बन गया।
उनके आंदोलन से जमीदारों में गुस्सा फैल गया क्योंकि जयबहादुर सिंह जमीदार के लड़के थे।
जयबहादुर सिंह अपने संघर्ष के बदौलत थोड़े दिनों में ही पूरे क्षेत्र में लोकप्रिय हो गये और किसान-मजदूरों के मसीहा के रूप में जानें जाने लगे।
स्वतंत्रता के बाद जय बहादुर सिंह का शोषित पीड़ित जनता के लिए संघर्ष तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत को रास नहीं आया, जिससे जय बहादुर सिंह को भारत सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
जहां जय बहादुर सिंह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जेल गये वहीं आजादी के बाद भी जेल से नाता नहीं टूटा और कई बार जेल गये।
जय बहादुर सिंह सन् 1958 में आजमगढ़-बलिया स्थानीय निकाय क्षेत्र से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से एमएलसी चुने गये। फिर 1962 के आमचुनाव में घोसी लोकसभा क्षेत्र से सांसद का चुनाव जीते। तब से आजीवन एमपी रहे।
जय बहादुर सिंह हिन्दी सहित सभी भाषाओं के पक्षधर थे। उर्दू भाषा के साथ हो रहे पक्षपात से वे व्यथित थे। उनका मानना था कि आजादी के संघर्ष में उर्दू के शायरों, लेखको और कवियों ने अपनी रचनाएं रच कर आजादी के संघर्ष को गति दी। उर्दू के साथ हो रहे भेदभाव नीति के विरोध में और उर्दू को दूसरी राज्य भाषा बनाने के मांग को लेकर खराब स्वास्थ्य होने से चिकित्सको के सलाह को दरकिनार करते हुए 1967 में लखनऊ विधानसभा के सामने भूख हड़ताल पर बैठे, जो उनके लिए जानलेवा साबित हुआ।
अन्ततः दिल्ली में 9 अगस्त 1967 को अचानक तबीयत खराब हुई और डाक्टर के आते-आते दम तोड़ दिया। जीवन पर्यन्त संघर्ष करने वाला क्रांतिकारी इस दुनिया को अलविदा कह के चला गया। जयबहादुर सिंह को शहीदे उर्दू के खिताब से नवाजा गया।