महान क्रन्तिकारी शहीद अशफ़ाक़ुल्लाह खान के समाजवाद/कम्युनिज़्म के बारे में विचार
ज़ालिम अंग्रेज़ी राज से मुल्क को आज़ाद कराने की लड़ाई में महान क्रंतिकारी, अशफ़ाक़ुल्लाह खान को 19 दिसंबर 1927 को शहादत नसीब हुई। वे चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह के साथियों में से थे।
अशफ़ाक़ुल्लाह खान को राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेंदर लाहिरी के साथ 9 अगस्त 1925 को काकोरी रेलवे स्टेशन (उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर और लखनऊ के बीच एक स्टेशन ) के पास रेल गाड़ी से सरकारी ख़ज़ाना लूटने के जुर्म में फांसी की सज़ा सुनाई गई थी।
याद रहे सरकारी ख़ज़ाने को लूटने के पीछे उद्देश्य हथियार व गोला-बारूद खरीदना नहीं था, बल्कि एक छापा-खाना स्थापित करना था ताकि

समाजवादी साहित्य छाप कर नौजवानों, मज़दूरों, किसानों और बुद्धजीविओं के बीच प्रसारित किया जा सके।
आज़ादी से पहले के क्रांतिकारी आंदोलन से हमदर्दी रखने वाले और इस के शोधकर्ताओं में से अनेक इस सच्चाई को जानकर ताज्जुब कर सकते हैं कि अशफ़ाक़ुल्लाह खान सब से पहले क्रांतिकारी थे जिन्हों ने क्रांतिकारी आंदोलन को समाजवादी व कम्युनिस्ट दिशा अपनाने के लिए प्रेरित किया।
उनका यह मानना था कि समाजवाद और कम्युनिज़्म अपनाकर ही अंग्रेज़ों का मुक़ाबला किया जा सकता है और देश को सही और वास्तविक आज़ादी दिलाई जा सकती है। लेकिन उन्हें देश में मौजूद समाजवादी व कम्युनिस्ट कार्याकर्ताओं से कई शिकायतें भी थीं जिन का उन्हों ने बेबाकी से ज़िक्र किया।
फांसी के फंदे को चूमने से कुछ घंटे पहले 'देश-वासियों के नाम' एक संदेश वे जेल से बाहर भेजने में सफ़ल हुवे।

उनके संदेश का निम्नलिखित अंश एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है।
"कम्युनिस्ट ग्रुप से अशफ़ाक़ की गुज़ारिश है कि तुम इस ग़ैर-मुल्क की तहरीक को लेकर जब हिन्दुस्तान में आए हो तो तुम अपने को ग़ैर-मुल्की ही तस्सवुर करते हो, देसी चीज़ों से नफ़रत, विदेशी पोशाक और तर्ज़-ए- मआशरत (जीने का अंदाज़) के दिलदादा हो इस से काम नहीं चलेगा, अपने असली रंग में आ जाओ। देश के लिए जियो, देश के लिए मरो। मैं तुम से काफ़ी तौर पर मुत्तफ़िक़ (सहमत) हूँ और कहूं गा कि मेरा दिल ग़रीब किसानों के लिए और दुखिया मज़दूरों के लिए हमेशा दुखी रहा है।
मैं ने अपने आयाम-ए-फ़रारी (पुलिस से छुपकर रहने वाला काल) में भी अक्सर इनके हालात देखकर रोया किया हूँ कियों की मुझे इन के साथ दिन गुज़रने का मौक़ा मिला है। मुझ से पूछो तो मैं कहूंगा कि मेरा बस हो तो में दुनिया की हर चीज़ इन के लिए वक़्फ़ (सुरक्षित) कर दूँ। हमारे शहरों की रौनक़ इन के दम से है। हमारे कारख़ाने इन की वजह से आबाद और कम कर रहे हैं। हमारे पम्पों से इन के हाथ ही पानी निकलते हैं, ग़रज़ की दुनिया का हर एक काम इन की वजह से हुआ करता है।
ग़रीब किसान बरसात के मूसलाधार पानी और जेठ-बैसाख की तपती दोपहर में भी खेतों पर जमा होते हैं और जंगल में मंडराते हुवे हमारी खुराख का समान पैदा करते हैं। यह बिल्कुल सच है की वह जो पैदा करते हैं, जो वह बनाते हैं, उनमें उनका हिस्सा नहीं होता, हमेशा दुखी और मुफ़लिस-उल-हाल (दरिद्र) रहते हैं।

मैं इत्तेफ़ाक़ करता हूँ कि इन तमाम बातों के ज़िम्मेदार हमारे गोरे आक़ा और उनके एजेंट हैं।
मगर इनका इलाज क्या है कि उनको उस हालत पर की वह महसूस करने लगें की वह क्या हैं। इस का वाहिद (केवल) ज़रिया यह है कि तुम उन जैसी वज़ा-क़िता (जीवन-शैली) इख़्तियार करो और जेन्टलमैनी छोड़ कर देहात का चक्कर लगाओ। कारखानों में डेरे डालो और उनकी हालात स्टडी करो और उनमें अहसास पैदा करो। तुम रूसी दादी कैथरीन की सुहाने-उमरी (जीवनी) पढ़ो और वहां के नौजवानों की क़ुर्बानियाँ देखो।

तुम कॉलर-टाई पहनकर लीडर ज़रूर बन सकते हो लेकिन किसानों और मज़दूरों के लिए फ़ायदेमंद नहीं हो सकते।
<यह सच है कि शहीद अशफ़ाक़ुल्लाह खान के सुझाओं और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के अपने अनुभवों ने उन्हें देश के मज़दूरों, किसानों व ग़रीब वर्गों के साथ आत्मसात करने के लिए प्रेरित किया। इस की लाखों-लाखों मिसालें हैँ।>
मेरे दिल में तुम्हारी इज़्ज़त है और मैं मरते हुए भी तुम्हारे सियासी मक़सद से बिल्कुल मुत्तफ़िक़ हूँ। मैं हिन्दोस्तां की ऐसी आज़ादी का ख्वाहिशमन्द था जिसमें ग़रीब खुश और आराम से रहते। ख़ुदा! मेरे बाद वह दिन जल्द आए, जबकि छत्तर-मंज़िल लखनऊ में लोकोवर्कशॉप के अब्दुल्लाह मिस्त्री और धनिया चमार, किसान भी मिस्टर ख़ालिक़-उज़-ज़मां और जगत नारायण मुल्ला व राजा साहेब महमूदाबाद के सामने कुर्सी पर बैठे नज़र आएं।
मेरे कॉमरेडों, मेरे रेवोलुशनरी भाईयों, तुम से मैं क्या कहूं, तुमको क्या लिखूं। बस यह तुम्हारे लिए क्या कुछ कम मुसर्रत (ख़ुशी) की बात होगी, जब सुनोगे कि तुम्हारा एक भाई हँसता हुआ फांसी पर चला गया और मरते-मरते खुश था। मैं ख़ूब जानता हूँ कि जो स्प्रिट (जज़्बा) तुम्हारा तबक़ा (कम्युनिस्ट ग्रूप) रखता है। ...क्योंकि मुझको भी फ़ख़्र (गर्व) है और अब बहुत ज़्यादा फ़ख़्र है कि एक सच्चा रेवोलूशनरी हो कर मर रहा हूँ।"
<भारतीय क्रांतिकारी इतिहास के प्रमुख संयोजक सुधीर विद्यार्थी (फ़ोन: 09837259693) की पुस्तक 'अशफ़ाक़ुल्लाह और उनका युग' (राजकमल प्रकाशन दिल्ली) से साभार। लिपिकरण व प्रस्तुति शम्सुल इस्लाम>