कृष्ण प्रताप सिंह

समाजवादी पार्टी में पहले चाचा-भतीजे, फिर बाप-बेटे और भाई-भाई के बीच कलह और सुलह के ऊंट कभी इस तो कभी उस करवट बैठकर राजनीति के पंडितों को अब तक इतनी बार गलत सिद्ध कर चुके हैं कि उनमें से कई को इन करवटों से जुड़ी संभावनाओं पर विचार करना तक बहुत रिस्की लगता है। दरअसल, जब तक ये पंडित किसी एक संभावना को अपने निष्कर्षों के खांचे में फिट करते हैं, दूसरी बेहद अप्रत्याशित संभावना उनके सामने खड़ी होकर उन्हें मुंह चिढ़ाने लगती है।

ऐसे में शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ हो कि उसके संस्थापक व संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने अपनी सोमवार की प्रेस कांफ्रेंस में नई पार्टी या मोर्चे के ऐलान की उम्मीद लगाये इन पंडितों को एक बार फिर गच्चा दे दिया! इस प्रेस कांफ्रेंस में कहते हैं कि आखिरी क्षणों में मुलायम ने अपना फैसला बदल दिया और चार पेज के प्रेस नोट का वह हिस्सा पढ़ा ही नहीं, जिसमें नई पार्टी के ऐलान का जिक्र था।

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लोहिया के समाजवाद के रास्ते कारपोरेट समाजवाद से होकर परिवारवाद के चरम तक पहुंची सपा

इसमें भी अचरज की कोई बात नहीं कि समय रहते इसका पता लगा पाने में विफल रहे राजनीतिक पंडितों को मुलायम के इस नये खेल के बाद एक बार फिर उनका डबल व ट्रिपल गेमों का महारथी होना, उनके समाजवाद का परिवारवाद में बदलना और परिवारवाद का भाई व बेटे के बीच फंसना याद आ रहा है।

कारपोरेट पालिटिक्‍स का दौर है, घटियापन और बढ़ेगा

लेकिन यहां यह सब बताने का उद्देश्य इन पंडितों की खिल्ली उड़ाना नहीं है। इनके बार-बार गलत सिद्ध होने का सबसे बड़ा कारण तो शेष देश की तरह ही इस प्रदेश की राजनीति का भी आंतरिक लोकतंत्र से महरूम, विचारहीन और गैरराजनीतिक हो जाना है। सपा इस राजनीति की प्रवर्तक न सही, उसके पापपंक में रोज-रोज नहाने की अभ्यस्त तो है ही। हम जानते हैं कि जब तक पार्टियां खुलकर सामने आतीं व खालिस राजनीति करती हैं, साथ ही किन्हीं विचारों व सिद्धांतों से बंधी रहती हैं, उनकी कार्रवाइयों की बाबत अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होता। इसके उलट वे अस्मिताओं, पहचानों और विरासतों वगैरह का घालमेल करने लगती हैं तो गिरोहों में बदल जातीं और सरगनाओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के हवाले होकर वे लगातार अबूझ व रहस्यमय होती जाती हैं। तब उनके फैसले व्यक्तियों द्वारा लिये जाने लगते हैं और समर्थकों की वफादारी भी तब विचारों के बजाय व्यक्तियों के प्रति हो जाती है।

लोहिया के समाजवाद के रास्ते कारपोरेट समाजवाद के होकर परिवारवाद के चरम तक पहुंची सपा या मुलायम, शिवपाल व अखिलेश की यात्रा ऐसी ही वफादारियों के विकास की कथा है, जिसमें आज वे सब के सब कमोबेश एक जैसे लाचार या विकल्पहीन दिखाई देते हैं।

वरना खुद को समाजवादी कहने वाली पार्टी के संस्थापक को उसके दुर्दिन में भी अपने पुत्रमोह के संरक्षण में ही अपनी सारी शक्ति क्यों लगानी पड़ती?

मुलायम ने बदला पाला, शिवपाल के नहीं अखिलेश के साथ रहेंगे


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असल मुश्किल क्या है इस बाप की

इस बाप की असल मुश्किल यह है कि वह बेटे के 'राजनीतिक' उन्नयन पर भीतर ही भीतर खुश होने को अभिशप्त है-साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं की शैली में!

प्रसंगवश, इस शैली के तहत वह बेटे पर ताजा समझकर जो भी आरोप लगा रहा है, उसमें भी कुछ नया नहीं है।

शिवपाल के नाम से अखिलेश को इतना गुस्सा क्यों आता है ?

दरअसल, मुख्यमंत्री के रूप में अपने समूचे कार्यकाल में अखिलेश ने जितने भी गम्भीर आरोप लगे, उनमें से ज्यादातर मुलायम ही लगाते रहे हैं। तब उनके विरोधी कहते थे कि बेटे को विपक्ष की सीधी आलोचना से बचाने के लिए वे खुद बाप के बजाय विपक्ष के नेता बन गये हैं। सच्चाई यह है कि जिस पुत्रमोह ने मुलायम को अभी भी जकड़ रखा है, वे उससे सबसे ज्यादा 2012 में पीड़ित हुए थे, जब उन्होंने शिवपाल यादव जैसे 'आज्ञाकारी' भाई व आजम खां जैसे वरिष्ठ 'वफादार' साथी की उपेक्षा कर अखिलेश की ताजपोशी कराई थी। अलबत्ता, बाद में वे 'शुभचिंतक बाप और नालायक बेटे' की ग्रंथि से पीड़ित रहने लगे थे और अभी भी हैं। सपा राज में प्रदेश में कानून व्यवस्था का मामला हो या मंत्रियों व अधिकारियों से काम लेने के तरीके , वे लगातार अखिलेश के विपक्षी दलों से कहीं ज्यादा बड़े आलोचक बने रहे।

यह इस दौर की सबसे बड़ी अफवाह है कि राजनीति ‘विकास’ के लिए की जाती है

मुजफ्फरनगर में दंगों के बाद तो उन्होंने अखिलेश सरकार की ऐसी फजीहत की थी कि विपक्षी भाजपा को भी दांतों तले उंगली दबानी पड़ी थी। सात नवम्बर, 2013 को मैनपुरी में एक रैली को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था, 'सत्ता अखिलेश जैसी मुलायमियत से नहीं, मेरे जैसे इकबाल से संभलती है। 1990 में मैं सख्ती नहीं बरतता तो कारसेवक बाबरी मस्जिद ढहा देते। अखिलेश को दंगाइयों से वैसी ही सख्ती करनी चाहिए।'

इतना ही नहीं, चेताया भी था-

'याद रखो कि तुम जनता को मूर्ख नहीं बना सकते। पद मिला है तो उसकी जिम्मेदारियां निभाओ वरना वह एक पल में उखाड़कर फेंक देगी।'

अंतत: उनकी 'शुभचिंतक बाप' की ग्रंथि ने उनसे यह तक कहलवा दिया था कि

'अखिलेश, प्रदेश के लोगों ने तुम्हें सिर्फ इसलिए मुख्यमंत्री स्वीकार कर लिया, क्योंकि तुम मेरे बेटे हो। वरना तुम्हारी हैसियत क्या है?'

2014 में लोकसभा चुनाव में सपा की करारी हार पर उन्होंने अखिलेश को खूब जली-कटी सुनायी थी-

'मैंने शिवपाल की सुनी होती तो पार्टी कम से कम तीस पैंतीस सीटें तो जीत ही जाती। तब मैं प्रधानमंत्री भी बन सकता था।'

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अभी तक 'अपमान की आग' में झुलस रहे हैं मुलायम

एक बार उन्होंने अखिलेश से सार्वजनिक तौर पर कह दिया था, 'मुख्यमंत्री महोदय! तुम्हारे आधे से ज्यादा मंत्री रुपये बनाने में लगे हैं और तुम उन्हें रोक नहीं पा रहे।।' लेकिन अखिलेश ने भ्रष्ट मंत्रियों की बर्खास्तगी शुरू की तो मुलायम ही उनके बड़े संरक्षक बनकर सामने आये। सबसे बड़े गायत्री प्रसाद प्रजापति के, जो इन दिनों जेल में हैं। आगे चलकर उनकी नसीहतें इतनी ज्यादा हो गई थीं कि अखिलेश ने उन्हें गम्भीरता से लेना ही बंद कर दिया था।

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उन्होंने चेतावनी दी कि

'अखिलेश, नाराज शिवपाल ने पार्टी छोड़ी तो आधे नेता व कार्यकर्ता उसके साथ चले जायेंगे, मैं भी उसी का साथ दूंगा और तुम्हारे पास कुछ बचेगा ही नहीं।'

तो अखिलेश ने ऐसा तख्तापलट किया कि खुद मुलायम के ही पास कुछ नहीं रह गया और वे अभी तक 'अपमान की आग' में झुलस रहे हैं। डबल और ट्रिपल गेमों के चक्कर में अपने एक ओर कुआं और दूसरी ओर खाई खोद लेने के बाद यह झुलसना एक तरह से अब उनकी नियति बन गई है, जो निश्चित ही राजनीति से उनकी सम्मानजनक विदाई के भी आड़े आयेगी। एक समय धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े सिपहसालार रहे मुलायम का यह हश्र भी उनके अबूझ फैसलों से कम अप्रत्याशित नहीं है।