विनीत तिवारी?
जब अतिक्रमण हटाने के नाम पर झोपड़पट्टी उजाड़ी जाती है तो उस वक्त सरकारी कारिंदे झोपड़ियों से निकाल कर के कुछ ख़ास सामान सड़क के किनारे सजा देते हैं, ताकि जो लोग वहां से गुजरें वे देखें कि देखो इन ग़रीबों के घर में इनकी झोपड़ियों के भीतर फ्रीज-टीवी निकला। जबकि अधिकतर मामलों में यह सामग्री उन्हें उनके मालिकों ने दी होती है। मान लीजिए कोई काम वाली बाई है किसी के घर काम करती है। उस घर के मालिक नया tv खरीदना चाहते हैं। पुराना ना बाजार में अच्छे दाम पर बिकेगा ना किसी और काम आएगा। तो बाई को दे दिया। एहसान का एहसान हो गया और दान का दान हो गया। जब अतिक्रमण हटाने के नाम पर वह चीजें निकलती हैं उन गरीबों के घर से तो उन चीजों की सड़क किनारे नुमाइश लगाई जाती है, ताकि जो लोग वहां से गुजरे उनके भीतर हमदर्दी ना पैदा हो जाए। ताकि लोग सोचें कि यह लोग ग़रीब होने का नाटक करते हैं, यह असल में ग़रीब नहीं होते। इन्हें मज़ा आता है झोपड़पट्टी में नाले के किनारे गंदगी में रहने में और अच्छा ही हुआ जो सरकार ने इन लोगों की असलियत उजागर कर दी... ...और अपने रास्ते चले जाते हैं।
कुछ दिन पहले इसी तरह से कुछ भिखारियों के यहां नोटों की गड्डियाँ निकलने और जलने का समाचार भी अखबारों में और सोशल मीडिया में आया था। तब भी लोगों ने भिखारियों का मजाक उड़ाते हुए इस तरह की कई पोस्ट की थीं, जैसे लगता हो कि हर भिखारी करोड़पति हो चुका है और यह बहुत अच्छा कोई बिजनेस है। लेकिन अगर इतना ही अच्छा बिजनेस है तो क्यों सभी लोग भीख नहीं माँगने लगते? अगर 2-4 लोगों के साथ ऐसा हुआ भी है, जिन्होंने लोगों की संवेदनाओं या सहानुभूति का लाभ लेकर करोड़ों की संपत्ति बना ली तो उससे यह सभी के लिए सामान्य सच तो नहीं हो जाता। मैंने भी सुना है कि इंदौर में भी कोई भिखारी है उनके ऑटो चलते हैं किराये पर और फ्लैट हैं किराये पर। हो सकता है हों, लेकिन अधिकतर लोग जो भीख मांगते हैं 99 प्रतिशत से भी ज्यादा, वे गई गुजरी हालत की वजह से भीख मांगते हैं। लेकिन क्योंकि हम उनकी हालत के लिए ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि जब तक हमारी भीख माँगने की नौबत नहीं आती तब तक हम इसी सिस्टम को चलाये रखना चाहते हैं, जिसमें हम भीख देने वाले की हैसियत में रहें और वो भीख लेने वाले की। इसलिए हम उस सिस्टम को बदलना ही नहीं चाहते जो असमानता पैदा करता है। इसलिए हम अपना गुनाह छुपाने के लिए उन पर हँसते हैं, उनका मखौल बनाते हैं।
किसी ने एक तस्वीर फैलायी है रोहित वेमुला की जिसमें वह एक टेबल पर रखी बीयर के सामने बैठा हुआ है और तस्वीर के साथ में लिखा है कि देखिए यह वही रोहित हैं जिन्हें रुपये 25000 की स्कॉलरशिप मिलती थी और जिनके पास पीने के लिए पानी तक नहीं होता था इसलिए बेचारे ऑस्ट्रेलियन बीयर पिया करते थे।
मुझे नहीं पता कि रोहित वेमुला की यह बीयर पीती हुई तस्वीर सच है या नहीं है क्योंकि हाल ही में संघियों को नेहरू का सुभाष बोस के बारे में फ़र्जी ख़त बनाने के मामले में अपनी बेवकूफी की वजह से तमाम फटकार मिली है। लेकिन उन बेशर्मों को क्या शर्म। हो सकता है ये फोटो भी उनकी छेड़खानी से फ़र्जी बनाया हो। लेकिन अगर यह सच भी है तो इससे इस तथ्य पर क्या फर्क पड़ता है कि उस लड़के ने कुछ जायज सवालों को लेकर संघर्ष किया और उसके ख़िलाफ़ वाइस चांसलर ने केन्द्रीय मंत्री के दबाव में जो एक्शन लिया उसकी वजह से उसने आत्महत्या की।
पहले इस बात पर विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई कि वह दलित है या नहीं है, फिर इस बात पर कि उसने याकूब मेमन के समर्थन में प्रदर्शन किया था फिर इस बात पर कि उसने बीफ खाने के लिए वहां पार्टी आयोजित की थी। इस सबसे इस तथ्य पर तो फ़र्क़ नहीं पड़ता कि एक नौजवान लड़का जो होनहार था जिसने बगैर आरक्षण का लाभ लिए अपने आप को phd तक पहुंचाया था उसे हालात की वजह से इतने तनाव में आकर आत्महत्या करनी पड़ी।।

फौजियों को भी शराब न दी जाए, ऐसा क़ानून बनवाये ये देशभक्त सरकार।
और क्या कर रहा है उस फोटो में वो लड़का? बलात्कार कर रहा है? हत्या कर रहा है? या चोरी डाका डाल रहा है? सामने बीयर की बोतल है। हो सकता है वो उसके लिए रखी हो जिसने फोटो खींचा हो। हो सकता है वो पीता भी हो तो क्या गुनाह हो गया। अनेक सम्माननीय राष्ट्रीय नेता भी पीते खाते थे। अगर शराब पीना गुनाह है तो सारी शराब फैक्टरियों में ताला डलवाइए। फौजियों को भी शराब न दी जाए, ऐसा क़ानून बनवाये ये देशभक्त सरकार। लेकिन ऐसा हरगिज़ नहीं करेंगे ये। आख़िर काँग्रेस हो या भाजपा, दोनों के पास रोकड़ा तो वहीं से आता है। बीफ वाले मामले में जस्टिस सच्चर साहब की बात का विरोध करने के लिए कोई संघी आगे आया क्या अभी तक! आएगा भी नहीं, क्योंकि वो तथ्यों के आधार पर कह रहे हैं कि बीफ़ के कारोबार में नब्बे फ़ीसदी हिंदू शामिल हैं और निशाना बनाया जा रहा है मुसलमानों को।
क्या पता रोहित शराब पी भी रहा था या नहीं, क्या पता शौक में कभी एक बार पी भी हो, क्या पता केवल तस्वीर खिंचवाने के लिए किसी के साथ बैठ गया हो, क्या पता तस्वीर झूठी हो या क्या पता पीता हो या क्या पता उसे कोई पिला रहा हो। इससे उसके दुःखद संघर्षपूर्ण जीवन पर दाग़ नहीं लग जाता न ही उसकी दुःखद मृत्यु का दंश कम हो जाता है। उसने शराब पीकर किसी पर बीएमडब्ल्यू नहीं चढ़ाई न किसी बार में गोलियाँ चलाकर किसी का क़त्ल किया। उसने शराब पीकर बगैर शराब पिए देश में इस झूठ से नफरत को और गाढ़ा तो नहीं किया कि कसाब जेल में बिरयानी माँगा या खाया करता था। रोहित को शराब के साथ दिखाकर उसकी छबि ख़राब करने वाले की बीमार मानसिकता ही उजागर होती है जिसके लिए शराब की भी कोई ज़रुरत नहीं है।

कल अगर मोदी और अमित शाह को भी अदालत गुजरात नरसंहार का दोषी पाकर फाँसी की सज़ा सुना दे, तो उसका भी विरोध करेंगे।
रोहित वेमुला की आत्महत्या के पीछे कहीं न कहीं हमारा ये समाज और तंत्र जिम्मेदार है, इसे हम नहीं मानना चाहते। इसीलिए लोग कहीं उसके चरित्र पर कीचड़ उछालेंगे, कहीं कहेंगे कि उसको ₹25000 मिलते थे इतना ग़रीब था कि ऑस्ट्रेलियन बीयर पीता था। ये नहीं कहेंगे कि उसे सात महीनों से स्कॉलरशिप नहीं मिली थी। कहेंगे कि याकूब मेमन का उसने समर्थन किया था। तो क्या इस वजह से उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी? तो क्या उसे याकूब मेमन या किसी का भी समर्थन या विरोध करने का अधिकार नहीं था? यह एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है तो इसके भीतर हम जिसे सही समझते हैं वह बात कहने का हक़ है या नहीं है? और वैसे भी उसने फांसी की सज़ा का विरोध किया था। अनेक बुद्धजीवियों, राजनेताओं ने किया था। बंगाल के ऑटो शंकर की भी और अफ़ज़ल गुरू की भी। कल अगर मोदी और अमित शाह को भी अदालत गुजरात में हुए नरसंहार का दोषी पाकर फाँसी की सज़ा सुना दे तो उसका भी विरोध करेंगे। सभ्य समाज में फाँसी स्वीकार्य नहीं है। और अपनी बात कहने के लिए क्या कर रहे हैं इसके लिए हम? किसी को जेल से छुड़ा कर के तो नहीं ले जा रहे। चिट्ठी लिख रहे हैं भारत के राष्ट्रपति को अनुरोध कर रहे हैं कि फांसी की सज़ा बंद की जाए, सड़क पर प्रदर्शन कर रहे हैं कि फांसी की सज़ा बंद की जाए।
बहुत से लोग यह मानते थे कि याकूब मेमन असली अपराधी नहीं है असली अपराधी कोई और है और याकूब मेमन को फंसाया गया है। अगर ऐसा मानने वालों ने, जिनमें बहुत सारे लोग शामिल थे, जिन्होंने अपील का ख़त लिखा, उनमें से अगर वह भी था तो क्या इसके लिए उसकी स्कॉलरशिप रोका जाना कैसे मुनासिब था? और फिर इस मामले में स्मृति ईरानी के झूठ पर झूठ झूठ पर झूठ। क्या यह भी मुनासिब था?
जब इस तर्क का कोई जवाब न दे पाये तो नागपुर की संघ फैक्ट्री से एक नया तीर चलाया गया कि कहाँ है जातिवाद? कहते हैं कि सुबह से शाम एक आम इंसान की दिनचर्या को देखिये, कितनी बार हम किसी से उसकी जाति पूछते हैं। दूध वाले को, सब्जी वाले को, सफाई वाले को, बस वाले को सबको तो भैया बहनजी कहते हैं, फिर बेकार ही जातिवाद का शोर मचाया हुआ है? मैं कहता हूँ पूछिये सुबह से शाम तक जिनसे मिलें उनकी जाति का सर्वे कीजिये और देखिये कि काम वालों की जाति क्या है, दुकान वालों की जाति क्या है, आपके बराबर की हैसियत वालों की जाति क्या है, आपके ऊपर के कर्मचारियों की जाति क्या है,आपसे नीचे के कर्मचारियों की जाति क्या है, पूछिए ना। और तब सच सामने आएगा। जिस आरक्षण की इतनी आलोचना होती है वह अगर वाकई लागू हुआ होता तो क्या अभी तक निम्न कोटि के समझे जाने वाले कामों में एससी, एसटी, ओबीसी का ही संकेन्द्रण होता?
सोये हुए को जगाया जा सकता है किंतु जो सोने का अभिनय कर रहा हो, उसे कैसे जगाया जाए। यदि कोई कहे कि भारत में स्त्रियों पर अत्याचार नहीं होते तो क्या कहा जाए। वे हज़ारों स्त्रियाँ ख़ुद बख़ुद शौक से स्टोव पर जाकर बैठ गई होंगी जो आग में जल मरीं। उसी तरह ये दलितों को शौक होगा जो 90 प्रतिशत से ज़्यादा दलित अभी तक नारकीय परिस्थितियों में रहते हैं। और इसमें भी जातिवाद की क्या ग़लती कि इतना आरक्षण आदि देने के बाद भी न सरकारी ओहदों में कहीं आ सके न प्राइवेट नौकरियों में जा सके। और तो छोड़ दीजिए, इन वाट्सअप्प समूहों में तो उनके आने पर कोई पाबंदी ही नहीं है, फिर भी उनमे भी नहीं आ सके। देखिये सभी 100 सदस्यों में तोमर, तिवारी, शर्मा, वर्मा, चतुर्वेदी चौहान ही मिलेंगे। अब दलित हैं ही नहीं तो क्या करें। ऐसे नाकारा निकम्मे लोग अगर ऑनर किलिंग में मार दिये जाते हैं तो हमारी बला से। हमने तो अपने बच्चे-बच्चियों को यही संस्कार दिये हैं कि जाति धर्म का भेदभाव न करो और अब तो वो सब दलितों मुस्लिमों के यहाँ शादी ब्याह को भी तैयार होने लगे हैं।

धन्य है वर्तमान को, यथार्थ को नकारने वाली यह दृष्टि।
हम लोग किस तरह से अपने आप को गलत सवालो में उलझा देते हैं, एक मुद्दे की असल जड़ पकड़ने के बजाए किस तरह हम गलत सवालों के इर्द-गिर्द घूमते हैं, क्योंकि यह समाज में हमारी स्थिति पर सवाल नहीं उठाने देते।
साज़िशें कर सत्ता में बने रहने वाले यही चाहते हैं कि हम सब ग़लत सवालों में ही उलझे रहें।