श्री कृष्ण ने कर्मकांड पर सीधी चोट की, वेदवादियों को अप्रतिष्ठित किया
श्री कृष्ण ने कर्मकांड पर सीधी चोट की, वेदवादियों को अप्रतिष्ठित किया
करमुक्त चारागाह हों और शीघ्र नाशवान खाद्य पदार्थ यथा दूध दही छाछ आदि पर चुंगी न हो, इसके लिए कंस से विरोध था श्री कृष्ण का। कारण और भी हो सकते हैं, जैसा भक्तजन कहते हैं। लेकिन नगर में आपूर्ति ठप्प और अवज्ञा आन्दोलन के रूप में निषेधित क्षेत्र में जबरन गो चारण कराना, वह भी सत्ता के विरुद्ध सेना लेकर नहीं अपितु गोपालक समाज की सामुदायिक चेतना जागृत करके, कृष्ण चरित्र का वह रूप है जो उन्हें तात्कालिक सामाजिक-राजनैतिक परिवेश के सापेक्ष क्रान्तिकारी दर्शित करता है।
Thoughts of Shri Krishna towards women's freedom
नारी स्वातंत्र्य के प्रति विचार और व्यवहार में उनकी सामान निष्ठा दिखती है। स्त्री के हाथ में वरमाला का अधिकार हो, यह रुक्मणी हरण और सुभद्रा-अर्जुन परिणय से भी सिद्ध होता है।
श्रीराधा-कृष्ण का प्रणय और परिणय स्त्री के पुनर्विवाह के अधिकार (Woman remarriage rights) को मान्यता देता है। यद्यपि यह अधिकार सामान्य भारतीय महिलाओं को स्वतंत्रता के बाद हिन्दू विवाह अधिनियम पारित होने के उपरांत ही मिल सका था।
अकल्पनीय और अविश्वसनीय तो है परन्तु यह प्रसंग कि अपहरण के बाद मुक्त सोलह हजार लड़कियों के सामने समाज में उनकी स्वीकृति का प्रश्न आया। कोई उन्हें अपनाने को तैयार न था। कृष्ण ने उन्हें अपने नाम का सिंदूर भरने की अनुमति प्रदान कर दी। उस समाज के लिए यह अत्यंत साहसिक कदम उठाया था उन्होंने।
अभिमन्यु की मृत्यु के बाद सती होने पर आमादा उत्तरा को रोकना सती-प्रथा और आत्महत्या के प्रयास का विरोध दर्शित करता है।
Krishna had directly hit the ritual
कृष्ण ने कर्मकांड पर सीधी चोट की थी। उन्होंने भतरौड़ में ब्राह्मणों के यज्ञ में व्यवधान किया और नन्द-यशोदा को वैदिक देवता इंद्र की उपासना से रोक दिया। इंद्र के कोप का सामना बृजवासीयों के साथ मिलकर किया।
यज्ञ और बलिदान का विरोध करते रहे। अंततः कुरुक्षेत्र में गीतोपदेश में उन्होंने वेदवादियों को अप्रतिष्ठित किया।
प्रकृति के प्रति कृष्ण का प्रेम गज़ब का था। मोर पंख का मुकुट, बांस की बांसुरी आदि प्रतीक तो हैं ही, कालिया नाग के विष से यमुना जल को मुक्त कराने के लिए जान पर खेलना यह दर्शित करता है कि पर्यावरण उनकी प्राथमिकता में था।
ब्रज की लता पताओं में अपने होने का उद्घोष कर वैष्णव जन को ब्रज में पत्ता तक तोड़ने से रोकने की नीति - रीति उनके प्रकृति प्रेम की परिचायक है।
युद्ध टालने के लिए अंतिम क्षण में भी शांति-प्रस्ताव लेकर जाना और जहाँ तक खुद अपना प्रश्न है, प्रजा की शांति के लिए रणछोड़ कहलाने में भी संकोच न करना यह दर्शित करता है कि वह कुशल राजनयिक और शांतिकामी थे।
श्रेष्ठ नर्तक, संगीतकार, प्रेमी, रसिक, निर्मोही, त्यागी, राजनयिक, योद्धा और मजबूत केन्द्रीय सत्ता के विरोध में होना इस चरित्र के ऐसे गुण हैं जो पूर्ण पुरुष की कल्पना में फिट बैठते हैं।
लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।
कॉमरेड्स !
जरा कल्पना तो करो महाकाव्य काल के समाज (Society of epic period) की और वैदिक युग (Vedic era) से उपनिषदों के सृजनकाल में प्रवेश की जब कोई क्षत्रिय विद्वान उद्घोष करता है कि- जो व्यक्ति विद्या और विनय से सम्पन्न होकर ब्राह्मण गाय हाथी कुत्ता और चांडाल में समदृष्टि रखे वही पंडित है, तो यह कितने बड़े साहस की बात होगी ! यह धर्म सत्ता में हस्तक्षेप था। यह ब्रह्मसूक्त को चुनौती थी। यह सूतपुत्र कर्ण और शुद्र एकलव्य का आह्वान था। यह दर्शनशास्त्र का नया प्रस्थान बिन्दु था। यह कहने वाला चरित्र कृष्ण का था।
बेशक वह कार्लमार्क्स ही थे जिन्होंने क्रांति के दर्शन को वैज्ञानिक तरीके से प्रस्तुत किया लेकिन वर्ग संघर्ष की थ्योरी बताती है कि सदैव ये संघर्ष रहा। हम मार्क्स के पहले के वर्गीय संघर्ष के नायकों और मिथकीय चरित्रों के प्रति भी सकारात्मक दृष्टिकोण रखें।
मधुवन दत्त चतुर्वेदी
(संघी दूर रहें, उनके दायरे से बाहर की बहस है ये. Krishna Janmashtami 2019)


