संघीय नेपाल क्या बला है?
संघीय नेपाल क्या बला है?
पवन पटेल
पिछले 6-7 सालों से नेपाल में संघीयता एक बड़ी बहस के रूप में उभर कर आई है। इसका कारण क्या है? 2008 नेपाल में गणतंत्र की स्थापना होने और राजतंत्र के पतन के बाद से इस बहस ने देश व्यापी रूप अख्तियार किया है। इसी संघीयता की बहस के कारण संविधान सभा कई साल कोमा में रहने के बाद भी अंततः नेपाल को संघीय गणतंत्र नेपाल में परिणति कर सकने और 60 साल से बहु प्रतीक्षित नया संविधान देने में असफल हो गई और अंततः 2012 में इसका विघटन हो गया। 2013 में इस पूरे संविधान के प्रकरण और संघीय गणतंत्र नेपाल को बनाने के लिए अलोकतांत्रिक रास्ते से 55 लाख जनता को मताधिकार से वंचित करते हुए दूसरी संविधान सभा का खेल रचाया गया, पर फिर से वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरित्तार्थ होती नजर आ रही है। देशव्यापी रूप में इन चर्चाओं का बाजार गर्म है, कि नेपाल में फिर एक बार तथाकथित दूसरी संविधान सभा अपने नियत समय अवधि में शायद ही नया संविधान जारी कर पाने में सफल हो सके। कैश माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री बाबुराम भट्टराई पहले ही इस तरह के संकेत दे चुके हैं, और फिर से इस संविधान सभा का कार्यकाल बढ़ाये जाने पर बहस शुरू हो गयी है।
नेपाली समाज में संघीयता की बहस को लाने का श्रेय केंद्रीय रूप से नेपाल के माओवादी आन्दोलन को है। एक दशक तक चले इस अखिल नेपाल व्यापी आन्दोलन के कारण ही जन मानस में वह चेतना उपजी, जिसके चलते आज संघीयता नेपाली राजनीति में एक मुख्य बुनियादी सवाल बन कर उभरी है। माओवादी आन्दोलन संघीयता के मूल प्रस्थान बिंदु को एकात्मक हिन्दू सामंती व्यवस्था के नाभिनाल से जुड़े ब्राह्मणवाद के खिलाफ और इस सामंती व्यवस्था को बनाये रखने वाली दलाल पूंजीवाद के नियामकों के खिलाफ संघर्ष से जोड़ता है। यह अलग बात है कि राजनीतिक-वैचारिक भटकावों और माओवादी शीर्ष नेतृत्व के आत्म समर्पण के चलते नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) इस प्रस्थापना को आगे नहीं ले जा सकी और नयी संविधान सभा के निर्वाचन को ही नेपाली समाज के आमूल-चूल परिवर्तन समझकर बुर्जुवा लोकतंत्र में समाहित हो गए। हाँ यह अलग बात है कि एक दशक तक चले माओवादी आन्दोलन ने उत्पीड़ित जातियों/ जन जातियों को उनकी पहचान दिलाने के सवाल को उनकी आजीविका यानि गास-बॉस-कपास के सवाल के साथ जोड़कर मजबूती से इस वर्ग चेतना को स्थपित किया। जबकि माओवादी पार्टी के शांति वार्ता में आ जाने के बाद जब उसका ब्राह्मणवादी नेतृत्व संघीयता और लैंड रिफार्म के सवाल पर हिन्दू सामंती राज्यसत्ता के साथ बंदरबांट करने को उतारू हुआ तो ब्राह्मणवादी सत्ताधारी वर्ग ने पहाड़ी बनाम मधेश का कार्ड खेलते हुए संघीयता के मात्र अस्मितावादी पक्ष (आइडेंटिटी) को लेकर तराई के इलाके के मधेश आन्दोलन प्रायोजित किया।
विश्व के एकमात्र हिन्दू राष्ट्र में हाल तक अस्तित्व में रहे इस देश को सदियों तक पहाड़ की ऊँची हिन्दू जातियां ही राज करती रही हैं। 2006 के मधेस आन्दोलन ने संघीयता के अस्मितावादी सवाल को तो विमर्ष में ला दिया है, पर नेपाल कि आर्थिक-राजनीतिक बुनावट ही कुछ ऐसी है, कि मात्र अस्मितावादी/पहचानवादी विमर्ष से काम नहीं चल सकता। अभी का सत्ताधारी वर्ग के तीन स्तंभों यानि जमींदारों के हितों की पोषक नेपाली कांग्रेस और एनजीओवादी तथाकथित नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) एक तरफ अभी भी सनातन ब्राह्मणवाद के पोषक हैं, और प्रचंड/ बाबूराम कंपनी के कैश माओवादी संघीयता के पहचानवादी विमर्ष तक ही खड़े होते हैं।
(पवन पटेल ने नेपाल के माओवादी आन्दोलन पर हाल ही में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के समाज शास्त्र विभाग से पीएचडी पूरी की है। लेखक नेपाल राजनीति में भारतीय हस्तक्षेप के खिलाफ बने भारत-नेपाल जनएकता मंच के महासचिव भी रह चुके हैं।)
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