फासीवाद की चुनौती : विकल्पहीनता का संकट
मनोज कुमार झा
नरेंद्र मोदी (आरएसएस) के सत्ता में आने के साथ देश पर फासीवाद का ख़तरा बढ़ गया है। मोदी सरकार की नीतियों से पूरे देश में अराजक स्थितियां बनती चली जा रही हैं। सरकार ऐसे-ऐसे मुद्दे को सामने ला रही है, जिनका कोई जनता की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन इन मुद्दों के माध्यम से सरकार अपनी नाकामी छुपाने की कोशिश करना चाहती है। कभी राष्ट्रवाद का मुद्दा उठाया जाता है तो कभी भारत माता की जय का। खास बात ये है कि सरकार और आरएसएस के लोग एक साथ ही कही तरह की बातें बोलते हैं, ताकि जनता गुमराह रहे। ये छल-छद्म की राजनीति कर रहे हैं, जिसमें इन्हें महारत हासिल है।
दो साल होने को आए, मोदी सरकार ने एक भी वादा पूरा नहीं किया है। जनता के सामने जो सबसे बड़ी समस्याएं है, उनके निदान के प्रति मोदी सरकार पूरी तरह उदासीन है। दूसरी तरफ, यह सरकार ऐसे मुद्दों के हवा दे रही है, जिनमें इसके विरोधी भी फंस जा रहे हैं। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शोध-छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद खड़ा हुआ आंदोलन और जेएनयू में वहां छात्र संघ के अध्यक्ष एवं अन्य छात्र नेताओं की गिरफ्तारी से जुड़ा प्रकरण।

जिस तरह ये आंदोलन चला, उससे सरकार का क्या बिगड़ना था, पूरा आंदोलन ही दिशाहीन हो गया। कन्हैया को एक तरह से कांग्रेस और लेफ्ट के नायक के रूप में पेश किया गया। शशि थरूर जैसे कांग्रेसी नेता ने जेएनयू जाकर कन्हैया को आज का भगत सिंह घोषित किया। इसे हास्यास्पद ही कहा जा सकता है। ऐसी भी खबरें आईं कि असम चुनाव, बंगाल चुनाव जो अभी होने वाले हैं, उनमें कन्हैया का इस्तेमाल किया जाएगा। जेएनयू आंदोलन से निकला कन्हैया जाकर राहुल गांधी से भी मिल आया। पूरा लेफ्ट कन्हैया के पीछे एकजुट हो गया, यानी नेताओं का अकाल कांग्रेस ही नहीं, लेफ्ट के पास भी है। उसे और कांग्रेस को एक ‘भगत सिंह’ मिल गया।

जाहिर है, जब हालत ऐसी हो तो मोदी जी और संघ की सत्ता का मुकाबला कर पाना न कांग्रेस के लिए संभव है और न ही लेफ्ट पार्टियों के लिए।
ये अलग बात है कि हर मोर्चे पर असफल होने के कारण मोदी सरकार के खिलाफ जो जन अंसतोष उभर रहा है, वह अगले तीन वर्षों में इतना बढ़ जाएगा कि चुनावों में भाजपा को जीत मिल पानी मुश्किल है। अभी तो जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, उनमें मोदी सरकार के पसीने छूट सकते हैं।

पर सवाल ये है कि जब मजबूत विपक्ष ही नहीं है तो आम जनता के सामने स्थिति सांप-छछूंदर वाली ही है। भाजपा जाएगी तो आएगा कौन ? कांग्रेस, और कांग्रेस के पीछे लेफ्ट।
भूलना नहीं होगा कि कांग्रेस अब तक सबसे भ्रष्टतम पार्टी रही है। यूपीए-1 और यूपीए-2 के शासन के दौर में जितने घोटाले हुए, उतने कभी नहीं हुए। लेफ्ट पार्टियां इसी कांग्रेस की सहयोगी थीं। अमेरिका से परमाणु समझौते के सवाल पर जब लेफ्ट ने कांग्रेस को समर्थन देना बंद कर दिया तो भी इससे यूपीए सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। हां, लेफ्ट पार्टियां अवश्य राजनीति के बियाबान में चली गईं। पश्चिम बंगाल में अपनी जनविरोधी नीतियों के कारण, सिंगूर और नंदीग्राम में दमन के कारण उन्हें सत्ता भी गंवानी पड़ी। अब देश की सत्ता संघ के पास चले जाने के कारण कांग्रेस और उसके पुराने विश्वस्त सहयोगी वामदलों को दिन में ही तारे दिख रहे हैं। यही वजह है कि इन्होंने फिर से एक होने की घोषणा कर दी है। कन्हैया को आगे कर के ये देश के युवाओं में अपना प्रभाव बनाना चाहते हैं, लेकिन इन्हें सफलता नहीं मिल पाएगी, यह भी स्पष्ट है। इसे देश के वोटर इतने मूर्ख नहीं हैं कि कन्हैया के नाम पर वोट देंगे। ये कांग्रेस और उसकी पिछलग्गू वामपंथियों की महज खामख्याली है।
देश की जनता विकल्पहीनता की समस्या से जूझ रही है। विकल्पहीनता के कारण वोटर कभी इसे तो कभी उसे जिताते रहे हैं। आगे चुनाव में अगर जनता कांग्रेस-लेफ्ट को देश की सत्ता सौंप देती है, तो इससे भी कुछ नहीं होने वाला। तब तक तो संघ जहां तक संभव हो सकेगा, देश को निचोड़ कर धन विदेशों में भेज देगा। दूसरी बात, जब तक ठोस विकल्प नहीं उभरेगा, संघ इतनी आसानी से हार भी नहीं मानेगा।
यह बात भूली नहीं जा सकती कि कांग्रेस और लेफ्ट की जनविरोधी नीतियों, लूट, कुप्रशासन और सांप्रदायिक प्रश्नों पर ढुलमुल रवैये के कारण ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश की सत्ता पर काबिज़ होने का मौका मिला। अगर कांग्रेस ने संघ के खिलाफ सही संघर्ष चलाया होता और लेफ्ट पार्टियों ने भी ऐसा किया होता तो संघ सत्ता में आसानी से नहीं आ पाता। लेकिन कांग्रेस देश को लूटने में लगी रही। सांप्रदायिकता के सवाल पर कांग्रेस की नीति हमेशा ढुलमुल रही।
यह भी नहीं भूला जा सकता कि इसी कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिखों का कत्लेआम कराया था। इसलिए कांग्रेस को सेक्युलर नहीं माना जा सकता। सांप्रदायिकता के सवाल पर लेफ्ट की नीति भी ढुलमुल रही है। लेफ्ट ने भी सांप्रदायिकता की जड़ों को समझने की कोशिश नहीं की। इनकी सांप्रदायिकता की समझ बड़ी उथली रही। इनके लिए धर्मनिरपेक्षता ‘रघुपतिराघव राजाराम’ तक सीमित होकर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण भर रह गई। इसका फायदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उठाया।

जनता तो एक के बाद किसी दूसरे को मौका देगी ही। पर कांग्रेस अगर इस भुलावे में है कि लेफ्ट के सहयोग से वह फिर केंद्र की सत्ता में आ जाएगी, तो शायद ये संभव नहीं है। उसके पास नेतृत्व का अभाव है। राहुल गांधी फिसड्डी साबित हुए हैं।
मोदी (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ) सरकार जोरदार चाल चलते हुए कांग्रेस शासित राज्यों में विधायकों को खरीद कर अपनी सरकारें बनाने की कोशिश कर रही है और अगर इसमें सफलता नहीं मिल पाती तो फिर वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर देती है। संघ का इतिहास साजिशों का इतिहास रहा है। साजिशें रचने में कांग्रेसी इनका मुकाबला नहीं कर सकते। हाल के वर्षों में विचारहीन युवाओं की भारी तादाद वोटरों के रूप में सामने आई है। यह निम्नमध्यवर्गीय युवा संघ का समर्थक है और फासीवाद के प्रति इसका आकर्षण बढ़ रहा है, इस सच को स्वीकार करना होगा। इस युवा वर्ग की वोट की राजनीति में भूमिका बढ़ गई है।
संघ की सत्ता का विकल्प तब बन सकता था जब लेफ्ट पार्टियों के नेता अपनी चुनावी जोड़-तोड़ की नीतियां छोड़ते और अपने एयरकंडीशंड ऑफिसों से बाहर निकल कर सोचते कि उनका उद्देश्य सत्ता-परिवर्तन है या समाज-व्यवस्था में परिवर्तन। लेकिन सत्ता की राजनीति में पूरी तरह रचे-बसे ये नेता ऐसा कभी नहीं सोच सकते। चुनाव जीत कर सत्ता तक पहुंचना ही उनका एकमात्र उद्देश्य है। इसमें उन्हें सफलता नहीं मिलने वाली। आरएसएस ने अपनी जड़ें जमा ली हैं।
संघ की सत्ता का जवाब एक बड़ा जनान्दोलन ही हो सकता है, जिसे खड़ा करने में वामदलों की कोई रुचि नहीं है। इसलिए देश का भविष्य क्या होगा, यह अनिश्चित है और ख़तरे में है।