मोदी हमारी सांस्कृतिक- राजनीतिक गंदगी का चमकता सितारा है...
सभ्यता, संस्कृति, कला आदि को पूरी तरह नष्ट करके किस तरह की गुजराती अस्मिता मोदी और संघ परिवार निर्मित करना चाहता है ?
अस्मिता की राजनीति आज स्वार्थ, उपयोगितावाद, कैरियरिज्म और संस्कृतिविहीनता के पथ पर चल पड़ी है। इसने सर्वसत्तावादी राजनीति का दामन पकड़ लिया है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
नरेन्द्र मोदी पर हाल ही में मैंने जो लेख लिखे हैं उन पर टिप्पणी करते हुए हमारे अनेक पाठक दोस्तों ने मांग की है कि मैं पश्चिम बंगाल के बारे में विस्तार से क्यों नहीं लिखता ? वे यह भी मांग कर रहे हैं कि मेरा वाम के साथ कनेक्शन है इसलिए वाम की आलोचना नहीं लिखता। इनमें से कोई भी बात सच नहीं है। प्रमाण मेरे पास नहीं बाजार में हैं, मैंने वाम की गलतियों पर सबसे तेज लिखा है लेकिन वाम अगर सही काम कर रहा है तो बेवजह आलोचना नहीं की है। मैं अपने जागरुक पाठक दोस्तों से वायदा करता हूँ कि आपको विस्तार के साथ बंगाल के सच से भी अवगत कराऊँगा। यहां सिर्फ बंगाल और गुजरात के अंतर पर प्रतिवाद की संस्कृति के संदर्भ में रोशनी ड़ाल रहा हूँ। बंगाल में ऐसे बुद्धिजीवी भी हैं जो बंगाल और गुजरात की मोदी और बुद्धदेव की नंदीग्राम की बर्बर घटना के बाद तुलना कर रहे हैं।
जो लोग गुजरात के साथ पश्चिम बंगाल की तुलना कर रहे हैं, मोदी के साथ बुद्धदेव की तुलना कर रहे हैं वे थोड़ा गंभीरता के साथ सोचें कि क्या गुजरात में एक भी विशाल बौद्धिक प्रतिवाद विगत पांच सालों में हो पाया है जैसा नंदीग्राम अथवा तसलीमा के मसले पर पश्चिम बंगाल में हुआ है। कम से कम पश्चिम बंगाल में सांस्कृतिक संरचनाएं अभी भ्रष्ट नहीं हुई हैं। गुजरात में विगत पांच सालों में "पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता" ने समस्त बौद्धिक ऊर्जा और गरिमा को नष्ट कर दिया है। गुजरात में कहीं पर भी व्यापक बौद्धिक प्रतिरोध नजर नहीं आता। लोग डरे हैं। शक्तिहीन हैं। प्रतिवाद करने में असमर्थ हैं। प्रतिवाद करने वालों को उत्पीड़ित किया जाता है। आज गुजरात में सांस्कृतिक प्रतिवाद संगठित करने का सामान्य माहौल नहीं है।
ध्यान रहे सांस्कृतिक और बौद्धिक सर्जना और प्रतिवाद का माहौल जब एक बार नष्ट कर दिया जाता है तो उसे दुबारानिर्मित करने में बहुत परिश्रम लगता है। गुजरात की उपलब्धि मोदी की सरकार नहीं है, सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। गुजरात के दंगे भी उतने परेशान नहीं करते जितना यह बात परेशान करने वाली है कि गुजरात में संस्कृति, कला, साहित्य आदि किसी भी किस्म के बौद्धिक प्रतिरोध और सर्जना की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को परेशान किया जा रहा है, विस्थापित किया जा रहा है, सृजन से रोका जा रहा है। यह सारा संवैधानिक तौर पर चुनी सरकार के बैनर तले हो रहा है। इसे ही वास्तव अर्थों में फासीवाद कहते हैं। सवाल किया जाना चाहिए सभ्यता, संस्कृति, कला आदि को पूरी तरह नष्ट करके किस तरह की गुजराती अस्मिता मोदी और संघ परिवार निर्मित करना चाहता है ? क्याअस्मिता के लिए संस्कृति जरूरत नहीं है ? जी हां, वास्तविकता यही है कि इन दिनों जो लोग अथवा संगठन अस्मिता के नगाड़े बजा रहे हैं उन्हें सिर्फ अस्मिता के कोलाहल ,हंगामे और सत्ता पसंद है, उन्हें संस्कृति पसंद नहीं है। वे आए दिन जरा-जरा सी बातों, नामसूचक शब्दों, जातिसूचक शब्दों पर इस कदर अपने भावव्यक्त करते हैं कि उन्हें प्रेमचंद, एमएफ हुसैन, नामवरसिंह, माधुरी दीक्षित, आमिर खान जैसे व्यक्तित्वों का अपमान करने में शर्म नहीं आती। अस्मिता की राजनीति आज स्वार्थ, उपयोगितावाद, कैरियरिज्म और संस्कृतिविहीनता के पथ पर चल पड़ी है। इसने सर्वसत्तावादी राजनीति का दामन पकड़ लिया है। सर्वसत्तावाद और फासीवाद एक-दूसरे के साथ भारत में अन्तर्क्रियाएं कर रहेहैं और संस्कृति पर हमले कर रहे हैं। सर्वसत्तावाद के हमलों को संस्कृतिकर्मियोंने समाजवादी समाजों में भी झेला है और फासीवाद के दौर में भी झेला है।
मोदी का गुजराती अस्मिता का नारा फासीवादी नारा है। यह प्रत्यक्ष हिंसाचार की संस्कृति और राजनीति का नारा है। मीडिया को घटिया चीजों से प्यार होता है और वह उनके उत्पादन और पुनर्रूत्पादन में अहर्निश व्यस्त रहता है। मीडिया को अपनी रेटिंग की चिन्ता होती है। उसे विवेक, संस्कृति, समाज आदि किसी की भी चिन्ता नहीं होती। यदि रेटिंग में छलांग मोदी के बहाने लग सकती है तो मोदी को उछालो और यदि गुजराती अस्मिता के बहाने लग सकती है तो उसे उछालो।
मीडिया की रेटिंग हमेशा सबसे घटिया किस्म की चीजों अथवा सास्कृतिकगंदगी के प्रदर्शन पर बढ़ती है। सांस्कृतिक गंदगी सबका ध्यान खींचती है और मोदी हमारी सांस्कृतिक- राजनीतिक गंदगी का चमकता सितारा है। ऐसे ही अनेक नायक मीडिया केपास हैं जो समय-समय पर पर्दे पर आते रहते हैं। दर्शकों को वे चीजें और बातेंज्यादा ज्यादा आकर्षित करती हैं जिन्हें समझने के लिए बुद्धि खर्च न करनी पड़े। जिनकी देखभाल न करनी पड़े। हमें वे ही चीजें देखने में अच्छी लगती हैं जिन्हेंदेखकर थोड़ा सा मजा आ जाए और बात खत्म। क्षणिक आनंद हमारा मूल लक्ष्य है। इस क्षणिक आनंद वाली मानसिकता ने हमारी राजनीति को भी घेर लिया है। राजनीति में जो चलरहा है उसके प्रति भी हमारा क्षणिक सरोकार है। चुनाव हुए हम भूल गए। घटना हुई हमभूल गए। वोट डाला और भूल गए। क्षणिक अनुभूति वस्तुत: खोखली अनुभूति होती है।
सवाल उठता है क्या "पांच करोड़ की गुजराती अस्मिता" जैसी कोई चीज है ? असल में ऐसी कोई वास्तविकता नहीं है। फिर मोदी को सफलता क्यों मिली कि लोग उसके इस नारे में विश्वास करने लगे ? इस प्रसंग में यह तथ्य ध्यान में रखें कि मौजूदा दौर शब्दों का अपने यथार्थ से संबंध कट चुका है। आज सभी किस्म की धारणाएं और अवधारणाएं सामान्यीकरण और सरलीकरण के जरिए पहुँच रही हैं। इसके कारण वास्तव का हमारी जिन्दगी से अहसास ही खत्म हो गया है, हम जिसका अहसास करते हैं वह वास्तव नहीं कृत्रिम होता है। कृत्रिम भावनाओं, कृत्रिम धारणाओं और कृत्रिम राजनीति को देखते-देखते हम इस कदर अभ्यस्त हो गए हैं कि असली क्या है इसे भूल गए हैं। हमारे इर्द-गिर्द कृत्रिम का ही अनुकरण हो रहा है। संघ परिवार की अस्मिता की राजनीति, कृत्रिम राजनीति है, उसका देश और गुजरात की वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है।
जिस तरह किसी संत-मंहत और सन्यासी के हजारों-करोड़ों भक्त भारत में मिलेंगे, उसके पीछे खड़ी अनुगामी भक्त मंडली मिलेगी, ठीक वैसी ही अनुगामी जनता पश्चिम बंगाल में तैयार करने में लाल को सांगठनिक सफलता मिली है।
भक्त जनता भारत में हमेशा से महान रही है। भक्त को हमारे यहां के भक्ति आंदोलन के कवियों ने भगवान से भी बड़ा दरजा दिया है। हमने कभी भक्त के दोषों की नहीं भक्त की भक्ति को महान बताया है और उसके सभी दोषों को माफ किया है। भक्त बनाने के इस सांस्कृतिक- धार्मिक मॉडल को रैनेसां में सबसे पहले नए सांचे में ढाला गया, नए किस्म की भक्ति परंपरा के सांचे में ढाला गया, इस कार्य में भक्ति का नवीकरण हुआ अनुगामी भाव का भी नवीकरण हुआ। भक्त, भक्ति और एकजुटता के आलोक में जो नयी नेटवर्किंग रैनेसां के प्रभाववश तैयार हुई उसके साथ आधुनिक संगठन संरचनाओं, संस्थानों आदि के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई।
कालान्तर में आजादी के बाद धीरे-धीरे रैनेसां के दौर में उपजी नये किस्म की भक्ति भावना को सचेत रूप से राजनीति में क्रमश: शामिल किया गया और मार्क्सवाद की नयी विचारधारा के आलोक में उसे पेश किया गया। मार्क्सवाद के साथ रैनेसां के मेलबंधन के रास्ते तलाशे गए, रैनेसां को मार्क्सवादी संगठन की विचारधारा के साथ जोड़ा गया, रैनेसां के अनुगामी बनाने के मंत्र को तेजी सेआत्मसात किया गया। यही वह प्रस्थान-बिंदु है जहां से पश्चिम बंगाल का कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी असली ऊर्जा लेता रहा है। रैनेसां के अंदर भक्ति का पुराना मंत्र शामिल था,कुछ संशोधनों के साथ। किंतु इसमें एक धागा था जो समूची बंगाली जाति को बांधे था वह धागा था भक्ति का। आधुनिक भक्ति का। समाज सुधार संगठनों के पीछे चलो, उनके अनुयायी बनो, चाहे जो करो।
"अनुयायी बनो चाहे जो करो" यह नारा रैनेसांयुगीन सुधारवादी धार्मिक संगठनों ने बंगाल में दिया था। कम्युनिस्टों ने ठीक इसी नारे को आत्मसात करके पश्चिम बंगाल में धीरे-धीरे अपनी सांगठनिक संरचनाओं का निर्माण किया है।
रैनेसांकालीन भक्ति पुरानेभक्ति-आंदोलन से बुनियादी तौर पर भिन्न है। पुरानी भक्ति "चाहे जो करो" की अनुमति नहीं देती, चाहे जो करो वाले लोग पुरानी भक्ति में नहीं मिलेंगे, वहां भक्ति की संरचनाएं भी नहीं मिलेंगी। पुरानी भक्ति राजनीतिमुक्त थी। राजनीति से परे थी। इसके विपरीत रैनेसांकालीन भक्ति ने पुरानी भक्ति से विचार पर जोर देने वाला तत्व और आंखें बंद करके उपासना करने का भाव लिया, आधुनिक पूंजीवाद से स्वतंत्रता और अनुगामी भावबोधलिया। इस प्रक्रिया में ही यह नारा निकला "भक्त बनो और कुछ भी करो।" पुराना भक्ति आंदोलन कंठीबंद, चेलापंथी नहीं था। वहां भक्ति और सिर्फ भक्ति थी, वहां स्वतंत्रताबोध नहीं था।
नया रैनेसां कंठीबंद भक्तों की पूरी जमात तैयार करने में लग गया। उदीयमान पूंजीवाद, साम्राज्यवाद आदि के सबसे बड़े अनुगामी और विरोधी इसी रैनेसां केगर्भ से पैदा हुए। नई पूंजीवादी संरचनाओं के सर्जक इसी आंदोलन के गर्भ से पैदाहुए। नए पूंजीवादी विचारों के प्रचारक इसी रैनेसां के आन्दोलन के द्वारा तैयार किए गए। ये वे लोग थे जो पुराने उजड़े सामंती परिवारों से आए थे। इन लोगों ने आरंभ मेंएकल परिवार पर कम परिवार पर ज्यादा जोर दिया, स्त्री के महिमामंडन का महाख्यान तैयार किया, आधुनिकता का महाख्यान तैयार किया, यही वह वर्ग है जो कालान्तर में लाल का महाख्यानतैयार करने में लग गया, लाल को इस अर्थ में रैनेसां से बहुत कुछ सीखने को मिला, बहुत कुछ ऐसा भी था जो आधुनिक पूंजीवादी था।
जिस स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रथम जयघोष का श्रेयरैनेसां के बंगाली बुद्धिजीवियों को जाता है उनकी विरासत के साथ वाम ने अपने को जोड़ा।उनसे स्वतंत्रता और अनुगामिता को ग्रहण किया और उसे अपनी सांगठनिक पूंजी में तब्दील किया। कालान्तर में सन् 1977 में सत्ता में आने के बाद लाल ने एक नया तत्व अपनी रणनीति में जोड़ा जिसे सोवियत संघ, चीन आदि के अनुभवों से सीखा गया, इसके तहत जनता को निष्क्रिय दर्शक बनाने की कला का कौशलपूर्ण ढंग से विकास किया गया। वाम ने विगत तैंतीस साल के शासन में इस कला का क्रमश: विकासकिया, निष्क्रिय दर्शक जनता को रैनेसां की अनुगामिता के सहमेल के साथ दिलो-दिमाग में सांगठनिक संरचनाओं के जरिए जेहन में उतारा गया है। यह बेहद मुश्किल और जटिल काम है।
कम्युनिस्ट विचारधारा ने निष्क्रिय दर्शक और अनुगामी जनता के निर्माण की कला पूंजीवाद से सीखी है। यह मूलत: पूंजीवादी कला है इसका मार्क्सवाद से कोई लेना-देना नहीं है। सोवियत संघ, चीन आदि समाजवादी देशों ने इस कला को प्रथम विश्वयुद्ध के पूंजीवादी प्रचार अभियान के अनुभवों से सीखा था। पूंजीवाद ने इसी कला को विज्ञापन औरजनसंपर्क की कला में तब्दील कर दिया, जबकि समाजवादी सोवियत संघ आदि देशों ने क्रांतिकारी अनुगामिता मेंरूपान्तरित कर दिया। पश्चिम बंगाल में सक्रिय वाम संगठन बड़े ही कौशल के साथ जनसंपर्क और विज्ञापन की प्रचार रणनीतियों का अनुगामी बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं।
जनसंपर्क और विज्ञापन की रणनीतियों के आधार पर किया गया प्रचार अभियान जनता को अपनी ओर आकर्षित करने में तब ही सफल होता है जब उस प्रचार अभियान को नीचे ले जाने वाली संरचनाएं उपलब्ध हों। वाम के पास ऐसी सांगठनिक संरचनाएं हैं जो प्रतिदिन अहर्निश विचारों की मार्केटिंग करती रहती हैं। ग्राहक पर कड़ी नजर रखती हैं, उसका प्रोफाइल रखती हैं, उसके मूवमेंट पर नजर रखती हैं। विज्ञापन रणनीति का मूल मंत्र है आक्रामकता। आक्रामक प्रचार और येन केन प्रकारेण ध्यान खींचना, बांधे रखना। ये सारे मंत्र वाम के पास हैं।
मार्केटिंग का सबसे बढ़िया तरीका है माल को हर हाल में बेचना, सबको बेचना, पक्के ग्राहक बनाना, ऐसे ग्राहक बनाना जो खरीदें किंतु सोचें नहीं, भोग करें किंतु भागें नहीं। जो भागना चाहे उसे पाने की कोशिश करो। साम,दाम,दंड,भेद का इस्तेमाल करो। पटाओ और अनुयायी बनाओ। कोई भी आंदोलन हो, कितना भी बड़ा आंदोलन हो, कितना ही बड़ा जनोन्माद पैदा हो, कितनी ही बड़ी गलती हो, जनता को फुसलाना और अनुगामी बनाना, उसके दिलोदिमाग को हर हालत में काबू में करना ही वाम की रणनीति रही है। वाम कभी विपक्ष के सामने नहीं झुकता किंतु जनता के बीच साम, दाम, दंड, भेद की कला का इस्तेमाल करता है। यह समूची विज्ञापन, जनसंपर्क और मार्क्सवादी सांगठनिक संरचनाओं के सहमेल से बनी रणनीति है।
विज्ञापन और जनसंपर्क की कला पालतू बनाने की कला है, यह आलोचनात्मक मनुष्य नहीं बनाती, बल्कि धूर्त मनुष्य बनाती है। ऐसा मनुष्य बनाती है जो कभी भी अपना ब्राण्ड बदल लेता है बगैर किसी कारण के ब्राण्ड बदल लेता है। बगैर किसी कारण के जब कोई ब्राण्ड बदल लेता है तो पहले वाला ब्राण्ड अपने ग्राहक को पुन: पाने की कोशिश करता है, प्रलोभन देता है,कमीशन देता है, अतिरिक्त माल भी देता है। वह सिर्फ यही चाहता है कि उसका पुराना ग्राहक लौट आए।
ब्राण्ड कल्चर के आधार पर माकपा ने अपने नेताओं की इमेज निर्मित की है। इस प्रक्रिया में सब कुछ तय है, भाषण भी तय है, फूल भी तय हैं, जनता भी तय है। आखिरकार ब्राण्ड प्रमोशन के आधार पर जुटायी गयी जनता सिर्फ अनुगामी होती है। यही अनुगामी जनता वाम की ताकत है। यह मूलत: अनालोचनात्मक जनता है। यह वाम की गलतियों का लंबे समय तक प्रतिवाद नहीं करती थी, (सन् 2007 के बाद इसने प्रतिवाद करना आरंभ किया है) ब्राण्ड संस्कृति की यही ताकत है। ब्राण्ड काभोक्ता अनालोचनात्मक होता है। अनालोचनात्मक जनता वैसे ही इफरात में उपलब्ध है इसके लिए थोड़ा कौशल भर चाहिए वह किसी के साथ जा सकती है। मुश्किलें यहीं पर हैं, जनता को सिर्फ भोगना है। भोक्ता की तरह व्यवहार करना है। वाम की शक्ति और दुर्गति का प्रधान कारण है, अनुगामी और भोक्ता जनता।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। लेखक प्रगतिशील चिंतक, आलोचक व मीडिया क्रिटिक हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे चतुर्वेदी जी आजकल कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।