भारत में स्त्री सशक्तीकरण और देहमुक्ति का जलवा कि अब कंडोम के डिजाइन से तैयार होंगी साड़ियां

भगवान श्रीकृष्ण किस-किस द्रोपदी की कहां-कहां लाज बचायेंगे जबकि सांढ़ और घोड़े छुट्टा घूम रहे हैं, बेटियों और बहनों, कन्याओं, यह साड़ी पहनने से पहले समझ लेना।

परिदृश्य-1 : निवेश के लिए बचत -

इस साल बजट में सरकार ने भले ही टैक्स श्रेणी में कोई बदलाव नहीं किया है लेकिन स्वास्थ्य बीमा, सुकन्या समृद्धि खाता और नेशनल पेंशन स्कीम (एनपीएस) पर टैक्स छूट बढ़ाकर उपभोक्ताओं के लिए निवेश को ज्यादा आकर्षक बना दिया है। सुकन्या खाते पर ब्याज पहले से अधिक था अब उस पर तीन स्तरों पर टैक्स छूट ने उसे सार्वजनिक भविष्य निधि (पीपीएफ) से भी आकर्षक बना दिया है। पीपीएफ से अधिक ब्याज सुकन्या समृद्धि खाता 10 साल तक की लड़कियों के लिए खोला जा सकता है। बेटी के 18 साल होने पर इसमें से 50 फीसदी राशि शिक्षा खर्च के लिए निकालने की अनुमति है।

परिदृश्य-2 : वित्त मंत्री अरुण जेटली पर कंपनियों को अगले चार साल में 2 लाख करोड़ रुपए का ‘तोहफा’ देने का आरोप लगाते हुए कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने कहा कि राजग सरकार का पहला पूर्ण बजट राजकोषीय और समानता की कसौटी पर खरा उतरने में विफल रहा।

पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम ने ‘हेडलाइन्स टुडे’ को दिये एक साक्षात्कार में कहा, ‘‘बजट भारतीय कंपनियों के पक्ष में है, आप इस उद्योग जगत के तोहफे की लागत जानते हैं, पहले साल में 20,000 करोड़ रुपए, दूसरे साल 40,000 करोड़ रुपए, तीसरे साल 60,000 करोड़ रुपए तथा चौथे साल में 80,000 करोड़ रुपए है।’’

भारत में स्त्री सशक्तीकरण और देहमुक्ति का जलवा यह है। इस खबर को गौर से पढ़िये और समझिये कि भारतीय समाज मुक्तबाजार में किस हद तक खल गया है कि द्रोपदी की साड़ी के साथ लिपटे होंगे कंडोम ही कंडोम।

भगवान श्रीकृष्ण किस-किस द्रोपदी की कहां-कहां लाज बचायेंगे जबकि सांढ़ और घोड़े छुट्टा घूम रहे हैं, बेटियों और बहनों, कन्याओं, यह साड़ी पहनने से पहले समझ लेना।

स्त्री मुक्ति की आकांक्षा का जवाब यह कंडोम है, जो दरअसल पुरुष वर्चस्व है और मुक्तबाजारी कार्निवाल में दायित्वहीन प्रजननविहीन बेलगाम भोग मनोरंजन है।

यही हो गयी है, हमारी अर्थ व्यवस्था गीतामहोत्सव मध्ये, जहां सनातन मूल्य सिर्फ बाजार के हित साधते हैं।

यही है विकासगाथा हरिकथा अनंत कि लगे रहो मुन्ना भाई।

लगाते रहो मुन्ना भाई।

कंडोम है न।

अब तो कंडोम मैचिंग साड़ी भी कूल कुलो खुली खुली खिड़की है।

यह कंडोम सुगंधित धारीदार साड़ी लेकिन इस देश की अर्थव्यवस्था है,जो भूख और रोजगार के सवाल पर खामोश है।

जो बुनियादी मुद्दों को सेंसेक्स की चालीस हजारी दौड़ में मटिया देती है।

सेक्स की कठपुतलियां स्त्री हजारों सालों के पुरुष वर्चस्व के धर्म-अधर्म बनी रहकर आम्रपाली की तरह या चित्रलेखा की तरह भरपूर मनोरंजन परोसकर कुर्बानी की मिसाल बनती रही हैं हमेशा।

पौराणिक कथाओं मे देवों के भोग का सामान बनी रही स्त्रियां सतीत्व के प्रतिमान हैं। महाभारत दरअसल वर्णशंकर नायकों और नियोग के कार्निवाल की प्रतिशोध कथा है। भोग का साजोसमान का गीता महोत्सव है जो आज का मुक्त बाजार है।

अब सतीत्व और कुमारीत्व की चहारदीवारियां टूट रही हैं तो बाजार में औरत की हैसियत अब सेक्स टॉय हैं तो उन पर शासन करने वाले पिता पुत्र भाई रोबोटिक आधारशुदा क्लोन नागरिक हैं, जिसकी न उत्पादन प्रणाली में कोई भूमिका है और न अर्थव्यवस्था में।

कंडोम मैचिंग साड़ियों के ताजा तरीन फैशन के बावजूद खाप पंचायती हिंदुत्व ही इस ठोंकू अर्थव्यवस्था की बुनियाद है।

अगर संघ परिवार की आस्था विदेशी निवेशकों की आस्था है, तो शर्माने की जरूरत क्या है कि आस्था को धर्म अधर्म से जोड़कर देश को महाभारत बनाने की जरूरत क्या है।

मुक्त बाजारी कंडोम अगर संघ परिवार के स्वदेशी का स्वर्ण केशर है तो सनातन मूल्यों का जाप क्यों, यह समझ से परे है।

अगर मुक्त बाजार में गुजरात को हांगकांग और दुबई और मारीशस बनाकर स्वदेश में ही विदेशी पूंजी का ग्लेशियर बनाकर कालाधन के सारे स्रोंतों को स्रोत से ही सफेद बनाया जाना है, तो फिर क्यों कालाधन के खिलाफ यह रणहुंकार है,यह हमारी समझ से परे हैं।

बुनियादी जरुरतों के बजाये उपभोक्ता बाजार और उत्पादन के बजाय सेवाओं को अर्थव्यवस्था के विकास का मंत्र तंत्र यंत्र बनाने की संघ सरकार का कार्यक्रम है तो फिर क्यों यह गीता महोत्सव है। क्यों विचारधारा का पाखंड है।

क्यों दीनदयाल, अटल, श्यामा प्रसाद, हेडगेवार, गोलवलकर बाजार और बजट के आइकन हैं तो क्यों नहीं, जिनके मदिंर बन रहे हैं, उन गांधी हत्यारे गोडसे और वीर सावरकर के नाम योजनाएं नहीं हैं, यह भी समझ से परे है।

पलाश विश्वास