संत साहित्य की महिमा और विमर्श का दौर
संत साहित्य की महिमा और विमर्श का दौर
अमित पाण्डेय
देश के भक्तिकालीन संतो की रचना कभी भी किसी वर्ण, कौम या जाति विशेष के लिये नहीं हुई और न ही उन्होंने कभी कोई विमर्श किया और न ही अपने धर्म, कर्तव्य से च्युत हुये। उनका एकमात्र काम था( उनके हिसाब से) अपने इष्ट की आराधना और धर्म, मजहब के नाम पर फैली हुई भ्रान्तियों को जहां तक संभव हो दूर करना और ईश्वर का संदेश या यूं कहें कि धर्म का मूल सिद्धांत प्रतिपादित करना। तूलसी, रहीम, रसखान, कबीर आदि तेजस्वी संतों ने समाज में तर्क की आधारशिला रखी। उन्होंने कभी नहीं कहा कि मेरा दोहा,चैपाई, सोरठा, छन्द, दोहावली, पदावली, साखी, पत्रिका आदि ग्रंथ किसी विमर्श के लिये हैं ( स्त्री या दलित)। वे अपने उपास्य के लिये समर्पित थे और इस नाशवान जीवन के नैसर्गिक ज्ञान को ही उद्धृत किया करते थे।
वैसे देखा जाये तो इन संतो ने सत्य की खोज की और जीवन के हर पहलू में रूढि़यों पर अपनी लेखनी से कुठाराघात किया। पाथर पूजने से लेकर सतगुरू की खोज और चोट तक जिस सत्य का दर्शन उन्होंने किया या जो कुछ पाया उसी से सबका साक्षात्कार कराया और उसी को कई प्रकार से बांटने की कोशिश की लेकिन आधुनिक युग या वर्तमान युग के विचारकों या आलोचको के हिसाब से उनकी समस्या ये रही कि वे हर चीज में अपने इष्ट की महिमा समझते हैं और गाते रहे। आधुनिक युग के हिसाब से शायद यहां उनसे अतिशियोक्ति हो गई क्योंकि आज का मानव तो मशीन युग का है उसे इन बातों पर यकीन कहां? और उससे भी बड़ी बात कि उनके सबके अलग-अलग वाद हैं। कोई साम्यवादी, समाजवादी, माक्र्सवादी, लेनिनवादी, अम्बेडकरवादी और पता नहीं कौन-कौन वादी। (जबकि हमारा संत समाज इन सारे वादों का पुरोधा और समन्यवय था।) ये तो उस अतिश्योक्ति को झेल ही नहीं सकते फिर क्या किया जाये। निश्चय ही दोष सूर, तूलसी, मीरा आदि संतो का रहा होगा और हो भी क्यों न? वे पत्थर पूजने से कुछ नहीं होता कहते थे और आश्चर्यजनक रूप से नारी के सम्मान की बात उठाते और उसे देवी की संज्ञा भी देते। फिर इसी समाज में सांगा जैसे लोग भी तो हुये जो मीरा को जहर देने की हिमाकत कर बैठे। कस्तूरी और कुण्डल के माध्यम से अपने को पहचानने की वकालत भी करते रहे। हद तो तब हो गयी जब एक मुस्लिम संत ने कह दिया कि मानुष हो मतलब मनुष्य की परिभाषा ही बताते हैं पर स्त्री विमर्श और दलित विमर्श जैसे किसी भी विधा को जन्म नहीं देते पर उसे नकारते भी नहीं वे तो सिर्फ और सिर्फ कर्म बहुल जीवन जीते थे और आदमी को इंसान बनना बताते रूढि़यों में जकड़ना नहीं।
संभव है वे उसके बारे में जानते ही न हों क्योंकि वे तो प्रेम के मारे वन-वन डोलते हैं फिर भी किसी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते। सज्जनता का पाठ याद करते हैं और उन्हें मुक्ताहार मानते हैं और उनकी पहचान भी करते हैं। गुरू महिमा और उससे प्राप्त ज्ञान ही उनका साहित्य है और विमर्श भी। इन संतो की विशेषता रही कि दोष को उत्पन्न करने वाले हविष्य का परित्याग इनके रचना में प्रमुख रहा। इनकी रचना समसामायिक भी हैं और भविष्यगामी भी। जितना प्रेम इन्हें अपने आराध्य के प्रति था उन्होंने अपने जीवन में उसे पिरोया और प्रेम को लब्ध मानते हुूये उसका संदेश दिया।
मुझे लगता है कि संतो की परम्परा से सीख हासिल करना चाहिये न कि ये देखना चाहिये कि उन्होंने कितनी बड़ी क्रांति की, कितना विमर्श किया और कहां -कहां पुरस्कार लिया। और फिर उसका मोल ही क्या? धर्माचरण का कितना अनुकरण है, हर मजबह के धर्मग्रंथ और उपदेशकों ने मानव सेवा और पुरस्कार को सबसे बड़ा पुण्य माना है। त्याग को आत्मबल, उत्सर्ग को भक्ति, पर जो हो रहा है वो हम नहीं देख रहे हैं? क्या बुद्ध और जैन ने अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, व्यसन इत्यादि के बारे में संदेश नहीं दिया? कृष्ण ने गीता में निष्काम कर्म की व्याख्या नहीं बताया फिर किसी विमर्श के लिये संतो का साहित्य कहां जिम्मेदार हुआ? अगर इनकी बात को जनसमुदाय और समाज ने माना होता तो पुरस्कारों के लिये कपड़ा फाड़ प्रतियोगिता न चल रही होती और न ही किसी को खुद को बतौर लेखक स्थापित करने के लिये इसकी आवश्यकता होती पर हकीकत यही है और हो भी यही रहा है।
ऐसा लगता है कि लेखकीय कर्म में पुरस्कारों और सम्मान पाने की जो होड़ लग गयी है उससे विमर्श के दो चर्चित मुद्दे ( स्त्री और दलित) भी अछूते नहीं रहे। आये दिन अम्बेडकरवादी अपने वाद के जरिये पुरस्कार का लेमचूस चूसने में व्यस्त रहते हैं फिर उनका विमर्श तो दिखावा ही हुआ क्योंकि अपनी कुत्सित मेधा के जरिये ये जिन पर आरोप मड़ रहे हैं उन्हें किसी भी प्रकार के पुरस्कार का कोई लालच नहीं था न ही वे किसी को बुलाते थे। लोग उनका निरंकारी जीवन देखकर आकृष्ट होते और उनका अनुगमन करते थे। फलतः बात किसी भी विमर्श की हो पहले अपने अन्दर त्याग की भावना को प्रदीप्त करना चाहिए फिर कुछ................................। नहीं तो दुनिया में जैसे वर्गों की लड़ाई चल रही है अब विमर्शों की चलेगी।
दरअसल समाज का हर तबका ही कुछ अवसरवादी लोगों की बलि चढ़ गया है अब भड़ास मिटाने के लिये चाहे जिसे जो कह लिया जाये पर सच्ची कोशिश तो तभी होगी जब आप इन संतो की शिक्षा सिरोधार्य कर आगे बढ़ेगे, उन पर आरोप मढ़ कर नहीं।
जयहिन्द


