संसद के मानसून सत्र को फिर न चढ़ने दें हंगामे की भेंट
संसद के मानसून सत्र को फिर न चढ़ने दें हंगामे की भेंट
संसद के 21 जुलाई से शुरू होने वाले शीतकालीन सत्र के पहले ही सरकार और विपक्ष के बीच तलवारें खीच गई है। सत्ता पक्ष व विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं ने मानसून के सत्र में डटकर मुकाबला होने के संकेत दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस के दिवंगत दिग्गज नेता गिरधारीलाल डोगरा के जन्मशती समारोह में यह बोलकर संसद के शीतकालीन सत्र को विवादित बनाने ही काम किया है कि मानसून सत्र में मुकाबला होगा। इस दौरान उनके साथ राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कर्णसिंह भी मंच साझा कर रहे थे। इन नेताओं की तरफ इशारा करते हुए मोदी ने कहा कि परस्पर विरोध लोकतंत्र की खूबसूरती है। आज हम यहां साथ बैठे है। अब देखना होगा कि कुछ दिनों बाद सदन में कैसा मुकाबला होगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस चुनौती को लेकर इधर राहुल गांधी भी कहां चुप बैठने वाले थे। उनने भी अपने राजस्थान दौरे में किसानों के बीच गजब का हमलावर रुख करते हुए एलान किया कि कांग्रेस किसानों की इच्छा के विरुद्ध एक इंच भी जमीन का अधिग्रहण नहीं होने देगी, वे इतना कह कर ही नहीं रूके। जयपुर आते-आते स्वर को और ऊंचा व तीखा करते हुए बोले कि हम किसानों के हक में हर लड़ाई लड़ऩे को तैयार हैं।
राहुल ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेते हुए कहा कि 56 इंच का सीना छह महीनों में 5.6 इंच का हो जाएगा। इसे 5.6 इंच में कौन बदलेगा? इसका स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि आप देखते रहिए कांग्रेस पार्टी व देश के लोग, किसान और मजदूर ऐसा करेंगे।
ज्ञात हो कि पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के समय अपनी रैलियों में नरेंद्र मोदी ने 56 इंच के सीने का जिक्र किया था। उस समय यह कहने का मकसद अपने विरोधियों की कमजोरी के बरक्स अपनी मजबूत नेता की छवि को रेखांकित करना था। अब राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री की इसी विशिष्टता पर हमला बोला दिया है।
एक तरह से राहुल का यह बयान संसद के मानसून सत्र में सरकार को घेरने की कांग्रेस की सुनियोजित रणनीति का भी हिस्सा है। सब इस बात से वाकिफ हैं कि भूमि बिल कांग्रेस को ऐसा मुद्दा मिला है, जिसके जरिए उसने अपने पुनरुद्धार की उम्मीद संजोयी है। इस विधेयक को लेकर किसानों में भी बेचैनी है, इसको लेकर तो करीब-करीब पूरा विपक्ष ही केंद्र सरकार के खिलाफ लामबंद दिखाई दे रहा है।
बहरहाल दोनों पक्ष के वरिष्ठ नेताओं ने तीखे शब्दबाणों से अपने तल्ख तेवर दिखाते हुए इस सत्र को घमासान में बदलने के पूरे-पूरे संकेत दे दिए हैं।
बता दें कि मानसून के इस सत्र में कई लंबित बिलों पर टकराव होने के आसार हैं। केंद्र सरकार इस सत्र में 24 से अधिक लंबित विधेयक पास कराने के फेर में है। सरकार भले ही संसद में दो दर्जन से अधिक विधेयक लाने की योजना पर काम कर रही हो, लेकिन विपक्ष ने उसे भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दे पर घेरने की प्रबल रणनीति बनाई है।
कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दे पर अपनी पार्टी का रूख साफ करते हुए स्पष्ट कह दिया है कि अगर एनड़ीए की सरकार इस विधेयक को मानसून के सत्र में फिर लाती है तो हम उसे पारित नहीं होने देंगे। इसके साथ ही संसद में विपक्ष ने सरकार को व्यापम,जातीय जनगणना के आंकड़े, ललित मोदी विवाद व चावल घोटाले जैसे मुद्दों पर घेरने की पूरी तैयारी कर ली है।
कांग्रेस मानसून सत्र को अबकि बार धो देने के मूड में है। जिस तरह से तेवर दिखाए जा रहे हैं, उसे देखते हुए तो यही लगता है कि कांग्रेस संसद के मानसून सत्र को चलने नहीं देगी। वह ललित मोदी की सहायता के मामले में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज व राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और व्यापमं घोटाले में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे की मांग को लेकर कार्यवाही में व्यवधान डालने के मंसूबे को जता चुकी हैं। ऐसा हुआ तो न सिर्फ भूमि अधिग्रहण बिल, बल्कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक का पारित होना भी कठिन हो जाएगा। जब तक उसकी मांगों को नहीं माना जाएगा तब तक वह संसद में बवाल खड़ा करेगी।
कांग्रेस की आक्रमकता साफ तौर पर यही साबित कर रही है कि वह संसद के मानसून सत्र को अवरुद्ध कर आर्थिक सुधारों के मामले में एनडीए सरकार को अशक्त दिखाने की होड़ में लगी है। काबिलेगौर हो कि भाजपा ने भी विपक्ष में रहते हुए यूपीए सरकार के खिलाफ इस रणनीति का सफल प्रयोग किया था। मगर ऐसे राजनीतिक टकरावों की कीमत अंतत: देश के आम गरीब को ही चुकानी पड़ती है। यह एक तरह से जनादेश को पंगु बनाने की भी कोशिश है।
बता दें कि मानसून सत्र के पूर्व कांग्रेस ने सुषमा स्वराज,वसुंधरा राजे,स्मृति ईरानी व पंकजा मुंड़े के इस्तीफे को लेकर अपने सारे घोड़े दौड़ा लिये थे, बावजूद इसके उनसे इस्तीफा नहीं लिया गया। इस बात को हमें नजर अंदाज नही करना चाहिए कि कांग्रेसी हाल के दिनों में जब भी किसी मीडिया से मुखातिब हुए हैं तब-तब वह कोई न कोई कागज लेकर उसके सामने आए हैं। कभी जयराम रमेश, कभी सुरजेवाला, कभी चिदंबरम तो कभी सिंघवी और न जाने कितने नेताओं को मैदान में उतारा। इन सबने चार-चार महिला नेत्रियों पर हमले बोले लेकिन भाजपा नेतृत्व टस से मस नही हुआ और कांग्रेस के तमाम सारे प्रयत्न- सब बेकार हो गए। अब वह इस सत्र में फिर से इन नेत्रियों के खिलाफ मोर्चा खोलने को तैयार है।
याने कुल मिलाकर यह सत्र भी हंगामे की भेट चढ़ते हुए ही दिखाई दे रहा है। हालांकि इससे निपटने के लिए एनडीए ने भी रणनीति बनाई है। इसको लेकर गठबंधन के वरिष्ठ नेताओं ने दिल्ली में बीते दिनों एक अहम बैठक की है। मतलब संसद के मानसून सत्र से पहले सरकार और विपक्ष के बीच तलवारें खिंच गई हैं। हालांकि सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों को संसद में सहयोग का रास्ता निकालना चाहिए ताकि जनता से सरोकार रखने वाले विधेयकों व मुद्दों पर विचार-विमर्श व चर्चा हो सके।
बता दें कि बीते समय जब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हुआ था तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देश की जनता ने हमें सरकार चलाने की जिम्मेदारी दी है, लेकिन उन्होंने सांसदों को भी देश चलाने का उत्तरदायित्व दिया है। उस समय मोदी का संदेश विपक्ष के लिए था, ताकि वह शीतकालीन सत्र को फलदायी एवं परिणाम-उन्मुख बनाने में सहयोग करे, मगर उस समय भी कांग्रेस की विपरीत प्रतिक्रिया ही आई थी। मोदी के इस बयान पर तब कांग्रेस के प्रवक्ता ने कहा था कि देखिए, कौन क्या उपदेश दे रहा है और किसने अतीत में कैसा व्यवहार किया है। प्रवक्ता ने इस बात का जिक्र भी किया कि कैसे एनडीए ने यूपीए के शासनकाल में संसद में बाधा डालते हुए महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित नहीं होने दिया था। उस समय यह संवाद और इसमें निहित कड़वाहट समझने के लिए काफी थी कि उस सत्र में सरकार के आर्थिक एजेंडे के सामने कितनी कठिन चुनौतियां था।
अब भी कुछ इसी तरह के हालात बनते दिखाई दे रहे हैं। इस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बड़बोलापन व राहुल गांधी की आक्रामकता यही संदेश दे रही है कि सत्ता पक्ष व विपक्ष इन दानों को इस बात से कोई गुरेज नहीं है कि संसद चले या न चले। मगर बेहतर होता दोनों ही अपनी नैतिक जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए सकारात्म परिणाम देने की आस जगाते। हालांकि सत्ता पक्ष के साथ संवाद की प्रक्रिया को विपक्ष को मजबूत करने का काम करना चाहिए ताकि जनता का विश्वास राजनेताओं पर कायम रहे। किसी भी पक्ष को संवाद का विकल्प नहीं छोड़ऩा चाहिए। संवाद से ही मंथन होगा और इसके चलते ही कोई रास्ता निकल पाएगा।
इस समय भी सबसे बड़ा प्रश्र तो यही है कि क्या इस अधिवेशन में कोई भी विधायी कार्य संपन्न हो पाएगा। आम इंसान के इस डऱ को मिटाने के लिए यथासंभव सहमति से संसद को सुचारु रूप से चलने देना चाहिए ताकि कोई हल निकल सके और सबका हित सधे। सभी राजनेताओं का कर्तव्य भी यही होना चाहिए कि संसद का मानसून सत्र किसी हंगामे कि भेंट न चढ़े क्योंकि इसी में राजनेताओं व आम इंसान भी भलाई छुपी है।
संजय रोकड़े


