संस्थागत फासीवाद भारत को अंधकार और सर्वनाश की ओर ले जा रहा है!
निजी विरोध से इसे रोकना मुश्किल है, जबकि संगठनात्मक ढांचे में हम जनता को लामबंद करने की कोशिश नहीं कर लेते!
पलाश विश्वास
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश लागू कभी होते नहीं हैं और सरकारें अदालती फैसलों की अवमानना में सबसे आगे हैं। संवैधानिक पदों का भयंकर दुरुपयोग हो रहा है और वहां से मौलिक, नागरिक और मानवाधिकारों पर निर्मम निर्लज्ज हमले हो रहे हैं।
ताजा उदाहरण बंगाल के राज्यपाल और हरियाणा के मुख्यमंत्री के बयान हैं तो संस्कृति मंत्री, जो दादरी के सांसद भी हैं, की यह चुनौती कि पहले लेखक लिखना छोड़ तो दें तो दूसरी ओर, विरोध में उतरे लेखकों, कवियों संस्कृतिकर्मियों का दानवीकरण अभियान व्यापक पैमाने पर संस्थागत तरीके से चालू आहे।
ये फासीवादी तंत्र और तिलिस्म के ज्वलंत उदाहरण हैं और बिना बुनियादी मुद्दों को संबोधित किये सिर्फ हवा हवाई विरोध से हम इस व्यवस्था की चूलें हिला देने की खुशफहमी में हैं, तो गलत है।
फासीवाद संस्थागत है और बाजार का पूरा समर्थन उसे है। वैश्विक व्यवस्था में साम्राज्यवादी विकसित देशों की विश्वव्यवस्था के उपनिवेश में वह मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति पर काबिज है जो लोकतंत्र, संविधान, कानून के राज, समता, न्याय विविधता, बहुलता, नागरिक संप्रभूता और निजता, मौलिक अधिकारों, नागरिक अधिकारों, मानव अधिकारों और प्रकृति व प्रयावरण के खिलाफ है और नरसंहार के वैश्विक एजंडे को वह डंके की चोट पर अंजाम दे रहा है और सारे किलों पर वे काबिज है। सारा तंत्र मंत्र यंत्र और तिलिस्म पर उसका कब्जा है।
उत्पादन प्रणाली और उत्पादक शक्तियों के सफाये के कार्यक्रम को अंजाम देजने के बाद वह अपराजेय रथयात्रा पर है, समाज के सारे ताकतवर तत्वों का उसके समरस रसायन में विचित्र कायाकल्प हो गया है और वे या तो अश्वमेधी घोड़े हैं या फिर बाजार के खुल्ला सांढ़ और अंदर तक उसका चाकचौबंद नेटवर्किंग है और उत्पीड़ित जनता उसकी पैदल फौजें। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के रथ पर सवार नंगी तलवारों से हर लोकतांत्रिक तत्व, व्यक्ति और संस्था का वह कत्लेआम कर रहा है, विशिष्टजन अपनी हैसियत और खाल बचाने के लिए उसके सिपाहसालार हैं।
ऐसे में राजधानियों से निकले जुलूसों और एकाकी कंठस्वर के हुजूम से भी कुछ बदलने वाला नहीं है, क्योंकि इनसे निपटना फासीवाद का कला कौशल है।
फासीवाद बेहतर जानता है कि जनसमर्थन और जनादेश कैसे हासिल हो और राजकाज के मुकाबले हर किसी को विकलांग और नपुंसक कैसे बनाया जाता है।
हम इस संस्थागत फासीवाद का मुकाबला कतई नहीं कर सकते जबतक कि जनता हमारे साथ नहीं होती और अकेले ही अकेले हम इस कयामत के मंजर को बदल नहीं सकते।
क्रांतिकारी को जनता के बीच जाकर ही क्रांति करनी होगी।
खंड-खंड देश दुनिया को पहले जोड़ें और इसी के साथ जनता को फासीवाद के खिलाफ लामबंद करें वरना आपकी शहादत किसी के काम नहीं आयेगी।
जड़ों पर फासीवाद काबिज है और यह लड़ाई पूरे देश में हो, जनता लड़ने को तैयार हो, ऐसे हालात बनाने की हम कोशिश कर नहीं पा रहे हैं।
हम लगातार अपने लाल-नील दोस्तों से यही कहते रहे हैं कि सिंहद्वार पर दस्तक है भारी, जाग सको, तो जाग जाओ। हमारे कहे का कोई असर है नहीं के मूर्ति पूजा के देश में हमारी कोई हैसियत नहीं है और न कोई सुनवाई है।
हम अस्सी के दशक में जैसे साम्राजयवाद के खतरे को समझ रहे थे और नवउदारवाद की शुरुआत से ही लगातार अमेरिका से सावधान कह रहे थे, उसी तरह हम अपने रचनाक्रम में लगातार हिंदुत्व के पुनरूत्थान में फासीवाद के अपराजेय होते जाने की पूरी प्रक्रिया की जांच पड़ताल कर रहे थे।
अस्सी के दशक के अनुभवों और मेरठ के दंगों के आंखों देखा पर केंद्रित मेरा लघु उपन्यास उनका मिशन है जो मेकिंग इन के अर्थशास्त्र के साथ साथ धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के सामाजिक यथार्थ को संबोधित करने की कोशिश है।
मेरी कोई महात्वांकाक्षा कालजयी बनने की नहीं है। मौजूदा बहस में सामाजिक यथार्थ और सच के खुलासे के लिए आज हमने तीन वीडियो इस लघु उपन्यास के पाठ पर जारी किये हैं, जो अधूरा है। आपकी दिलचस्पी होगी तो बाकी पाठ भी पूरा कर दिया जायेगा।
हजार साल से लेकर अब तक गोमांस के बहाने धार्मिक स्वतंत्रता और आस्था के बुनियादी अधिकार पर केंद्रित धर्मांध बहस और धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण से ऐन पहले भारत को यूनान बना देने का एजंडा संयुक्त राष्ट्र में पास हुआ है, जिसके तहत भारत में कृषि, व्यवसाय औरक उद्योगों के क्रिया कर्म अबाध विदेशी पूंजी और अबाध विदेशी हस्तक्षेप के चूंते हुए जगमग जगमग विकास के नाम कर देने का चाकचौबंद बंदोबस्त हो गया है और गोमांस को लेकर फिजां इस तरह कयामत बन गयी है कि इस सत्यानाश के नरसंहारी अश्वमेध के प्रतिरोध में कहीं कोई बयान तक जारी नहीं हुआ है। विरोध प्रतिरोध की तो छोड़िये।
सच का सामना करना बेहद जरूरी है।
हमारे राष्ट्रीय नेता कोई पवित्र गायें नहीं हैं और हमें उनकी खूबियों और खामियों की वस्तुनिष्ठ आलोचना भविष्य में भारत की विविधता और एकता को बनाये रखने के लिए करनी ही होगी।
इस सिलसिले में हम बाबासाहेब डा. अंबेडकर को ईश्वर मानने से इंकार कर चुके हैं और लगातार उनके बुनियादी मिशन जाति उन्मूलन के एजंडे के साथ साथ उनकी वजह से मिले तमाम हकहकूक की हिफाजत करने पर जोर दे रहे हैं।
हम बाबासाहेब का या किसी अन्य राष्ट्रनेता का अंध समर्थन या विरोध नहीं कर रहे हैं।
जिन रवींद्रनाथ को देशद्रोही बताया जा रहा है, वे अछूत थे और अस्पृश्यता के खिलाफ उनका पूरा साहित्य है।
गीताजंलि भी, जिनके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला और इसी वजह से नस्ली भेदभाव के तहत उन्हें महिषासुर बनाकर वध कर देने का इंतजाम उनके खिलाफ जारी घृणा अभियान है।
हमने फिलाहाल उनके साहित्य और दलित विमर्श, और उनके संगीत में नारी मुक्ति पर केंद्रित दो वीडियो जारी किये हैं और यह सिलसिला जारी रहेगा।
हाल में केजरीवाल ने जब घूसखोरी के आरोप में मंत्री को निकाला तो हमने इसका स्वागत करते हुए सिर्फ इतना कहा है कि कारपोरेट और संस्थागत भ्रष्टाचार से निपटे बिना किसी व्यक्ति के खिलाफ सुविधाजनक कार्रवाई से कुछ भी बदलने वाला नहीं है।
इसी तरह हमने सच उजागर करने के लिए महत्वपूर्ण नेताजी के दस्तावेज सार्वजनिक करने की ममता बनर्जी की पहल के लिए उनका आभार भी माना है। यही काम अब देश के प्रधानमंत्री करने की ऐलान कर चुके हैं तो हम उसका भी स्वागत करते हैं।
हमारे पाठक भली-भांति जानते हैं कि तीनों नेताओं के राजकाज के बारे में हमारी राय क्या है।
अब यह मान ही लेना चाहिए कि जेपी पर हम बहस न भी करें, तो सच यह है कि भारत में अमेरिकापरस्त ताकतें दरअसल इंदिरा गाधी की तानाशाही के खिलाफ नहीं, समाजवादी विकास माडल और कल्याणकारी राज्य के विरुदध एकजुट हो गयी।
आपातकाल लागू करके जनता के सारे हकहकूक निलंबित करने की ऐतिहासिक भूल के जरिए इंदिरा गांधी ने ही भारत में फासिज्म का सिंह दरवाजा खोल दिया। 1977 में जनता सरकार में संघी वर्चस्व और सभी बुनियादी संस्थाओं में मसलन मीडिया पर संघ की घुसपैठ का नतीजा यह केसरिया सुनामी है।
संघ परिवार के समर्थन से फिर सत्ता में वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने देवरस जी के साथ मिलकर जो हिंदुत्व का अभियान चलाया, उसी का परिणाम सिखों का नरसंहार है।
अस्सी का दशक भारत के इतिहास को अंधकार युग में ले जाने का इतिहास है, जब मंडल कमंडल कुरुक्षेत्र में हिंदुत्व का पुनरूत्थान हो गया और भारत में स्वतंत्रता के आंदोलन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के साथ साथ भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का भी अवसान हो गया।
सिखों के नरसंहार से लेकर गुजरात के नरसंहार तक धर्मोन्माद भारत देश के शास्त्रीय संगीत का स्थाई भाव हो गया और तदनुसार साहित्य, संस्कृति, कला, समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था, राजनय, राष्ट्रीयता, कानून व्यवस्था, न्यायप्रणाली और मीडिया का कायकल्प हो गया। ये हालात बदलने जरूरी हैं।
पलाश विश्वास