सत्तातंत्र का फायर-मूल कर्तव्यों से भटका हुआ राज्य लोकतंत्र में अपराधी है
सत्तातंत्र का फायर-मूल कर्तव्यों से भटका हुआ राज्य लोकतंत्र में अपराधी है
"किसान बंदूक उठाये तो नक्सली, आत्महत्या करे तो कायर !" की समापन किस्त
सत्तातंत्र का फायर – किसान बंदूक उठाये तो नक्सली, आत्महत्या करे तो कायर
क्या यह मुमकिन नहीं, राहतकोष की बजाय ख़ुदकुशी करने वाले किसानों के परिवारों को राज्य अपने संरक्षण में ले? ऐसा करने में कौन सी अडचनें हैं? आम नागरिक को पूर्ण सुरक्षा और सुविधा मुहैया करवाना वास्तव में अगर राज्य की जिम्मेदारी है तो फिर राज्य को इसका निर्वहन करने में परेशानी क्यों? अगर राज्य इस जिम्मेदारी को नहीं निबाह रहा तो उसे दंडित करने के लिए न्यायपालिका उसके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रही? अगर न्यायपालिका भी राज्य के इस अपराध में शामिल है तो फिर यह राज्य की संवैधानिकता का सरासर उल्लंघन है. जिसके लिए नागरिकों को यह अधिकार है कि वह ऐसी सत्ता और सरकार को लोकतंत्र में लेकर आयें जिन्हें राज्य के कर्तव्यों और नागरिकों को दी जाने वाली सुविधाएं, बुनियादी हक़ और जिम्मेदारी का अहसास हो. जो राज्य संवैधानिक नियमों का पूरी तरफ से उल्लंघन करते हुए नागरिकों को ख़ुदकुशी करने पर मजबूर कर रहा है ऐसा सत्तातंत्र पूरे मुल्क के लिए तमाम तरह के खतरे पैदा करने का काम कर रहा है.
राज्य आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है. राज्यसत्ता कोई शहंशाह नहीं है जिसके लिए नागरिक उसकी रियासत हों. राज्य की भूमिका इतनी ही है कि वह नागरिकों के लिए हर तरह से जनसेवक की भूमिका निबाहते हुए हिफाजत और सहूलियतें देने को हर तरह से तत्पर हो. मूल कर्तव्यों से भटका हुआ राज्य लोकतंत्र में अपराधी है. जिसके लिए हर नागरिक राज्य को दण्डित करने के लिए उसे सत्ता से रखने और बाहर करने का अधिकार प्राप्त मतदाता है.
प्रोडक्शन : गेहूँ और लग्ज़री संसाधन
गेहूँ अगर एक प्रोडक्ट है और उसकी जरूरत हर आदमी को है. हिन्दुस्तान की बहुतायत आबादी और दुनिया के अमूमन तमाम मुल्को में पेट भरने के लिए और जायके की खातिर तमाम प्रोडक्ट इसी गेहूँ से बनते हैं, यहाँ तक कि दारू का बेहतरीन उत्पादन करने के लिए गेहूँ की बालियों का उपयोग भारी मात्रा में किया जाता है. यानि नशा नजाकत और जरूरत तक हर मामले में गेहूँ बेहद जरूरी उत्पाद के रूप में उपयोगी साबित हुआ है. हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया के तमाम मुल्कों में गेहूँ की खपत भारी मात्र में होती है. हर तबके को ताकत और जीवन के जरूरी तत्व इसी गेहूँ से मिलते हैं. गेहूँ का मुकाबला दुनिया की और कोई फसल नहीं कर सकती. यह अपने इन्हीं तमाम गुणों की वजह से बेहद किफायती और जरूरी है.
यानी दो वक्त की रोटी से लेकर सरमायेदारों की नसों में लहू के साथ गेहूं खुमार बनकर बहता है. बिना इस उत्पाद के भारत में ही डेढ़ अरब की आबादी वाला मुल्क जमीन पर खड़ा नहीं रह सकता. फिर भी किसान जो गेहूँ का सबसे बड़ा उत्पादक है उसकी इतनी बेकद्री, क्यों? गेहूँ का उत्पादन और आपूर्ति के बावजूद भी किसान इस कगार तक पहुँच चुका है कि उसे जरूरी उत्पादों को उगाने के लिए भी सरकार की सब्सिडी के बावजूद भी अपनी जान देनी पड़ रही है. जबकि सौन्दर्य प्रशाधन और लग्ज़रियस चीजें बनाने वाले कारोबारी पहले से कहीं अधिक अमीर होते जा रहे हैं. गेहूँ और लग्ज्यरियस उत्पादों को बेचने और उत्पादन में क्या अंतर है? जिसकी वजह से आर्थिक खाई बनती जा रही है.
गेहूँ हर तरह से सेहतमंद, फायदेमंद और जरूरी उत्पाद है. इंसान की सबसे बड़ी जरूरत है. और यह सच है तो फिर गेहूँ के उत्पादन करने वाले किसान को अपने बेहतरीन उत्पाद के कारण दुनिया का बेहतरीन उत्पादक और धनवान किसान होना चाहिए. जबकि हुआ ये है कि गेहूँ पैदा करने वाला किसान गुरबत में दिन गुजारने के लिए मजबूर है, उसे ख़ुदकुशी करनी पड़ रही है. बरक्स इसके कार का उत्पादन करने वाले कारोबारी कार बनाने के बाद उसकी बिक्री पर शौक से करोड़ों खर्च करते हैं और दुनिया के अरबपतियों में शुमार हैं.
एक बात जो इन दोनों प्रोडक्ट के मूल्य निर्धारण को लेकर कहना जरूरी है. कार बनाने के बाद उसका मालिक प्रोडक्ट को अपने मैनेजमेंट के द्वारा तय किये मूल्य पर बेचने के लिए स्वतंत्र होता है, जबकि किसान फसल उगाने के बाद उसे अपनी शर्तों और वास्तविक कीमत तय करने के अधिकार से वंचित है. कार बनाने वाला कारोबारी जब अपनी कार किसी ग्राहक को देता है, तो उससे जो कीमत ली जाती है वह उत्पादन की कीमत और मजदूरी कहीं अधिक बड़े मुनाफे की तरफ साफ़ रूख इख्तियार करती है जबकि गेहूँ के उत्पादन के बाद भी उसे रखने के लिए अगर सरकार ने जिम्मेदारी ली है तो फिर गोदामों की व्यवस्था में इतनी बड़े पैमाने पर खामियां क्यों हैं? बजाय इसके कार के कारोबारी के द्वारा बनाए गए माल के लिए अत्याधुनिक सुविधाओं से लबरेज गोदाम और शोरूम बड़ी मात्रा में हर शहर में उपलब्ध हैं.
एक तरफ लग्ज़री उत्पाद यानी कार का पहला उपभोक्ता (ग्राहक) उत्पाद की कीमत देकर भी सरकार को रोड टैक्स और बीमा कंपनियों को इंश्योरेंस की शर्तों से बंधा है. दूसरी ओर फसल बीमा और किसान बीमा होने के बावजूद भी कोई राहत किसानों को मिलती नजर नहीं आ रही. ल्ग्ज़री वस्तु का जो पहला उपभोक्ता है उसने मालिक को लग्ज़री उत्पाद की जो कीमत अदा की है उस उत्पाद के उपभोग के साथ उसकी कीमत में लगातार गिरावट आती जाती है. सेकेण्ड पार्टी अगर उसी उत्पाद को खरीदता है तो उस गाड़ी की अदा की गई पहले उपभोक्ता की रकम का आधा या उससे कम कीमत ही सेकेण्ड उपभोक्ता को चुकानी होती है. और यह नियम भी उपभोग-वस्तु बनाने वाली कंपनी के मालिक ही तय करता है. थर्ड पार्टी तक आते-आते वही प्रोडक्ट अपने वास्तविक मूल्य की सबसे कम कीमत तय करता है.
देखने योग्य बात यह है कि ल्ग्ज्यूरिय्स सामान बनाने वाली कम्पनी का मालिक माल बेचने के साथ ही कई लाख-करोड़ के मुनाफे से बिजनेस को नए आयाम तक ले जा रहा होता है. उसमें एक तरह का गर्व और संतोष भरा होता है. वास्तविक मूल्य और मजदूरी के अलावा उससे कई गुना बड़ी कीमत पर यह कारोबार बड़ी कमाई का कारोबार कर रहा है, फल-फूल रहा है. रुतबे और मुनाफे में कई गुना बढ़ोतरी के साथ-साथ लगातार नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है.
जबकि गेहूँ पैदा करने वाला किसान इनके मुकाबले अधिक से अधिक मेहनत करके भी अपने उत्पादन का वास्तविक मूल्य पाने में अक्षम है. बुनियादी सुविधाएं जो उसे मिलनी चाहिएं, उस हक़ से वंचित है. गेहूँ को खरीदने वाली फर्स्ट पार्टी यानी सरकार स्वयं इस उत्पादन की सबसे कम कीमत तय करती है. एक सुनिश्चित अनुपात में ही किसानों से उत्पाद की खरीद करती है. यानी लग्ज्यूरिय्स उत्पाद के बरक्स पहला खरीददार फसल के मालिक को उत्पाद का मूल्य देकर खरीद तय करता है. ज्यादातर यह काम सरकार की निगरानी में होता है. जबकि सेकेंड पार्टी यानी निजी कारोबार के मालिक सरकार से यही गहूँ कम से कम कीमत पर लेकर तीसरे उपभोक्ता यानी नागरिकों को अधिक से अधिक कीमत पर देने के लिए सरकारी तन्त्र से पूरी तरह मुक्त है, स्वतंत्र है.
दो उत्पादों के मूल्य को लेकर ये कैसा दोहरा व्यापार सम्बन्ध और गैरबराबरी वाली व्यापार नीति है? गेहूँ की कीमत तय करने से लेकर उसे उपभोक्ता तक पहुँचने के बीच सरकार के पास कोई समान सम्बन्ध और सहज नीति आधारित व्यापारिक नियम कहीं दिखाई नहीं देते.
जिस प्रोडक्ट का उपयोग मात्र पांच प्रतिशत आबादी करती है. उसके प्रोडक्शन और सर्कुलेशन की तुलना किसी भी तरह किसान की फसल के उत्पादन और बेचने के नियमो से कतई नहीं की जा सकती. क्योंकि एक उत्पाद लोगों की रोजमर्रा की जरूरत है. और दूसरा प्रोडक्ट सुविधासंपन्न लोगों की ऐशोआराम के लिए है.
क्या यही वजह है कि लग्जूरिय्स प्रोडक्ट को बनाने वाला कारोबारी अथाह मुनाफे के साथ बाज़ार में अपने पाँव पसार पसारता जा रहा है हर जगह उसे कामयाबी हासिल हो रही है? और गेहूँ एक ऐसा उत्पाद जिसकी जरूरत हर इंसान को है. उसे पैदा करने वाला किसान भुखमरी, अकाल, अतिवर्षा, ओले, आदि-आदि मुश्किलों से लड़ते हुए दम तोड़ रहा है. इन असमानताओं को देखकर ऐसा नहीं लगता कि सरकार ने जानते-बूझते दोनों तबकों के लिए दो अलग-अलग तरह की व्यापार नीति और व्यापार सम्बन्ध बनाए हैं?
ऐसे में अगर किसान खुदकुशी कर रहे हैं तो यह राज्यतन्त्र का सबसे बड़ा फेल्योर है. जिसके लिए उसे दण्डित करना अगर अदालतें इसे नहीं मानतीं तब इन हालात में आम नागरिक की यह जिम्मेदारी है कि वह ऐसी सरकार के लिए सजा मुकर्रर करे. ताकि गजेन्द्र जैसे तमाम लोगों को ख़ुदकुशी की दर्दनाक दास्ताँ को खत्म किया जा सके.
डॉ. अनिल पुष्कर
"किसान बंदूक उठाये तो नक्सली, आत्महत्या करे तो कायर !" की समापन किस्त


