सब्जियों के राजा आलू की बर्बादी (waste of potato-King of vegetables ) को लेकर देश भर का किसान जहां एक ओर फूट फूट करके आंसू बहा कर दुखी है वही दूसरी ओर देश के राजनेता किसानों के दर्द (Pain of farmers) में उनके साथ खड़े होने के बजाय आलू को राजनीति का मुख्य मुददा (Potato is the main issue of politics) बनाये हुये है।

काग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने भले ही खेतों मे फेंके जा चुके आलू की भारी खेप देखने के बाद आलू की बर्बादी पर चिंता जता करके किसानों की सहानुभूति (Sympathy of farmers,) बटोरने की कोशिश की लेकिन किसानों का दर्द किसी भी मायने मे कम नही हुआ है।

वहीं दूसरी ओर राज्य की मुखिया मायावती आलू किसानों की बरबादी (Extermination of potato farmers) पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया देते हुये केंद्र की यूपीए सरकार को जिम्मेदार ठहराती हैं।

इस सबसे इतर समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल सिंह यादव माया सरकार को आलू की बरबादी के लिये जिम्मेदार ठहराते है।

ऐसे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि किसानों की आलू बरबादी राजनेताओं को अपनी राजनीति चमकाने का मौका दे रही है।

आलू उत्पादन में अग्रणी माना जाने वाले उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद में आलू किसानों की कमर तोड़ दी है। आलू उत्पादकों के साथ ही कोल्ड स्टोरेज संचालकों का भी दिवाला निकलता हुआ नजर आ रहा है। हजारों कुंटल आलू को कोल्ड स्टोरेज से निकाल कर बाहर फेंका जा रहा है। यह स्थिति स्वास्थ्य के नजरिए से भी समाज के लिए काफी घातक साबित होगी। दुर्भाग्य यह है कि अभी तक इन बदहाल आलू किसानों के बारे में न तो राज्य सरकार ने ही कोई विचार किया है और न ही केंद्र सरकार के पास ही इन गरीब किसानों के बारे में कोई योजना है।

इटावा जनपद में आलू किसानों की बदहाली की बजह ही आलू बन गया है। नए आलू की आवक ने शीतगृह में रखे पुराने आलू को सीधी चुनौती दी। परिणामस्वरूप बाजार में बिक रहे नए आलू की कीमत तीन रुपए प्रति किग्रा होने के कारण किसानों ने अपने पुराने आलू के बारे में सोचना ही छोड़ दिया। इसकी बजह है कि आगरा, कानपुर व लखनऊ जैसे महानगरों में भी पुराना आलू बीस रुपए प्रति पैकेट की दर से बिक रहा है। जबकि यदि किसान शीतगृह से अपना आलू निकालता है तो उसे एक सौ 25 रुपए प्रति पैकेट शीतगृह संचालकों को किराए के रूप में देना होगा। इसके अलावा ट्रांसपोर्ट, वारदाना तथा मजदूरी अलग से। ऐसे में आलू किसानों ने अपना आलू शीतगृहों से नहीं निकालना ही मुनासिब समझा।

इस वर्ष किसान आलू उत्पादन करने के साथ से ही पछता रहे हैं। गत वर्ष आलू उत्पादन अच्छी तरह होने के कारण पहले जहां शीतगृह में आलू रखना इन किसानों के लिए एक चुनौती थी तो अब आलू निकालना उनके लिए आसान नहीं है।

अब स्थिति ऐसी हो गई है कि आलू किसान अपने आलू को शीतगृहों से उठाने की स्थिति में नहीं है। इसकी बजह है कि बाजारों में आलू की कीमतों में रिकार्ड गिरावट माना जा रहा है। ऐसी स्थिति में शीतगृह संचालकों के पास भी शीतगृह खाली कराने के लिए अथवा आलू को सड़ने से बचाने के लिए पहले ही आलू फेकना मजबूरी बन गया है। वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि शीतगृहों के बाहर आलू के ढेरों के गुबार आसानी से देखे जा सकते हैं। ऐसे में गरीब तबके के लोग कई-कई किमी दूर से आलू बीनने के लिए आ रहे हैं और आलू ले जा रहे हैं परंतु आलू किसान अपने इस आलू को देख-देखकर रोने को बाध्य हैं।

कई शीतगृहो के संचालक राहुल गुप्ता कहना है कि इस बार नए आलू की आवक जल्दी हो गई और उस पर भी आर्थिक मंदी का दंश। ऐसे में बेचारे आलू किसान अपना आलू जेब से खर्च कर कैसे निकालें। वह कहते हैं कि आलू की कीमतों में आई गिरावट के कारण शीतगृह संचालकों को भी भारी क्षति का सामना करना पड़ रहा है। वह बताते हैं कि इस वर्ष एक-एक शीतगृह संचालक को कम से कम एक करोड़ रूपए की क्षति का सामना करना पड़ेगा। इस प्रकार से आलू उत्पादन में जहां किसान बर्बाद हुआ है वहीं शीतगृह संचालकों का भी दिवाला निकला है।

समाजवादी पार्टी के एमएलए और उत्तर प्रदेश मे नेता प्रतिपक्ष शिवपाल सिंह यादव के निर्वाचन क्षेत्र जसवंतनगर के सियाराम शीतगृह संचालक पंकज यादव बताते हैं कि यदि राज्य व केंद्र सरकार चाहे तो किसानों की दुखती रगों पर मुआवजे का मरहम लगा सकतीं हैं। हालांकि इसमें काफी देर हो गई है लेकिन अभी भी किसानों को राहत दी जा सकती है। वह बताते हैं कि पहले एक बार इसी प्रकार की स्थिति बनने पर राज्य सरकार ने शीतगृहों पर कैंप लगवा कर सौ रूपए प्रति कुंटल के हिसाब से आर्थिक सहायता दी थी।

आलू उत्पादन में किसानों एवं शीतगृह संचालकों को हुई आर्थिक क्षति के बाद अब लोगों के स्वास्थय पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। शीतगृहों से निकाले गए आलू में सड़े आलू की मात्रा भी काफी है। ऐसे में आलू बीन रहे समीपवर्ती क्षेत्रों के लोग आलू बीन रहे हैं और इस प्रकार से वह अपने स्वास्थय के साथ खिलबाड़ कर रहे हैं।

डा. भीमराव अंबेडकर संयुक्त जिला अस्पताल में वरिष्ठ चिकित्सक डा.जी.पी.चौधरी कहते हैं कि शीतगृहों से आलू बाहर फेंकने के कारण एक तो वातावरण प्रदूषित हो रहा है और वातावरण दुर्गंधयुक्त होगा। आलू सड़ने के बाद उसमें उत्पन्न होने वाले वैक्टीरिया पानी के माध्यम से आसपास के लोगों के शरीर में प्रवेश करेंगें तो डायरिया, कॉलरा व फूड पॉयजनिंग जैसे रोग उत्पन्न होंगें। इससे बचने के लिए डा. जी.पी.चौधरी बताते हैं कि जिला प्रशासन एवं स्थानीय लोग शीतगृहों के आसपास उस क्षेत्र की सफाई कराएं जहां आलू फेंका गया है और आलू को बस्ती से दूर जाकर कहीं फिंकवाएं अन्यथा माहमारी की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है।

ऐसे मे जब नीयत और नीति खोटी हो तो कोई भी योजना फलीभूत नहीं होती। ये बात शायद हुक्मरान समझते हुए भी समझना नहीं चाहते। इसीलिए वर्ष 2010 में आलू की सरकारी खरीद (Government procurement of potato) कराने की योजना का आगाज होने से पहले ही अंत हो गया। नतीजतन आलू किसान एक बार फिर हाय-हाय मचाते हुए खून के आंसू रोने को मजबूर हैं।

गन्ना, गेहूं और धान की तर्ज पर आलू की फसल की सुधि बीते वर्ष ली गई, लेकिन देर से जोर-शोर तैयारी के साथ अप्रैल महीने में शासन ने आलू की सरकारी खरीद का शासनादेश जारी किया था, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। ज्यादातर आलू कोल्ड में भंडारित हो जाने के कारण इटावा जनपद में एक किलो आलू भी नहीं खरीदा जा सका। उद्यान विभाग के सूत्रों की मानें तो अपनी कमियों पर नजर दौड़ाने के बजाय सरकारी तंत्र ने खामियां गिनाकर योजना को ही फ्लाप करार दे दिया। जिले स्तर से भी सही जमीनी जानकारियां ऊपर तक नहीं पहुंचाई गईं, जिससे किसानों की किस्मत संवरने का सपना आज तक अधूरा है।

वर्ष 2011 में तो आलू खरीद के मुद्दे का किसी को ख्याल ही नहीं आया। नतीजन परवान चढ़ने से पहले ही आलू किसानों के भले के लिए शुरू यह नेक कोशिश धड़ाम हो गई। आलू की सरकारी खरीद की योजना कहां गई ? इस सवाल का जवाब अब कोई नहीं दे रहा है। किसानों की मानें तो सरकार आलू खरीद कराने लगे तो बिचौलियों पर ब्रेक लगेगा। जब कमाई का नंबर आता है तो मुनाफा व्यापारी कमाते हैं, लेकिन मंदी की मार से बरबाद सदैव किसान होते हैं।

दिनेश शाक्य