क्या राज्यपाल इस आवाज़ को सुनेंगे?
संजय पराते
आजादी के बाद विकास के नाम पर कुर्बानी देने का जो नशा इस देश के नागरिकों पर चढ़ा था, वह अब पूरी तरह से उतर चुका है। इस नशे में विकास परियोजनाओं के नाम पर दस लाख हेक्टेयर से अधिक वन भूमि का उपयोग गैर-वनीय कार्यों के लिये किया गया है। इसके कारण डेढ़ करोड़ से अधिक व्यक्तियों को विस्थापित होना पड़ा, जिसमें से लगभग एक करोड़ तो आदिवासी ही थे। बहुत से आदिवासी समूहों को तो एकाधिक बार विस्थापित होना पड़ा और आज भी वे पुनर्वास और मुआवजे की प्रक्रिया से बाहर हैं।

देश में आदिवासियों की जनसंख्या लगभग 9-10 करोड़ है। तो इस देश में और कौन सा समूह है, जिसकी कुल आबादी के दसवें हिस्से से अधिक को विस्थापन की पीड़ा झेलनी पड़ी हो? लेकिन मजे की बात यह है कि इन्हीं आदिवासियों से आज भी विकास के नाम पर कुर्बानी माँगी जा रही है! यदि ये सहर्ष तैयार न हों, तो जबर्दस्ती उन्हें जिबह किया जायेगा। कुर्बानी उनसे माँगी जा रही है, जिनके जीवन में विकास की कोई रोशनी आज तक नहीं पहुँची। कुर्बानी वे लोग माँग रहे हैं, जिनकी तिजोरियों में पूरा विकास कैद होकर रह गया है। वर्तमान भारत का (वर्ग) संघर्ष यही है कि विकास की रोशनी से अछूते लोग व समुदाय अब और कुर्बानी देने के लिये तैयार नहीं हैं।

भारत की लगभग 85 प्रतिशत खनिज सम्पदा जनजातीय व वन क्षेत्रों में पायी जाती है। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के चलते जबसे प्राकृतिक संसाधनों की लूट तेज हुयी है, ये क्षेत्र कॉर्पोरेट पूँजी के निर्मम निशाने पर आ गये हैं। आज पूरे देश में डेढ़ लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में खनन कार्य चल रहा है। उद्योग अपने विस्तार के लिये वन भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं। लकड़ी माफियाओं के साथ इनकी साँठ-गाँठ है, सो अलग। इसका खामियाजा वनों में रहने वाले आदिवासियों व वनों पर निर्भर स्थानीय निवासियों को उठाना पड़ रहा है, जिनकी न केवल आजीविका के स्रोत तबाह हो रहे हैं, बल्कि वे परम्परागत वनाधिकारों से भी वंचित हो रहे हैं। पर्यावरण बर्बादी, जैव विविधता के नाश तथा पारिस्थिति तन्त्र के विनाश के कारण देश के आर्थिक रुप से कमजोर तबकों को अलग से भुगतना पड़ता हैं ‘विकास के प्रति लालायित लोग’ इस आबादी की दुर्दशा व समस्याओं के प्रति सम्वेदनहीन हैं। इससे देश के बड़े हिस्से में ‘सामाजिक अशान्ति’ पैदा हो रही है। यह अशान्ति देश में नक्सलवाद के फलने-फूलने के लिये भी खाद-पानी का काम कर रही है।

वैसे तो आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिये पाँचवी व छठी अनुसूची, पंचायत (अधिसूचित क्षेत्र में विस्तार) कानून - पेसा- तथा वनाधिकार कानून के रूप में कई संवैधानिक प्रावधान हैं। ये कानून आदिवासियों के शोषण तथा वन क्षेत्रों

में प्राकृतिक संसाधनों की बेरहम लूट से उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा ग्राम सभा की सर्वोच्चता को स्थापित करते हैं कि बिना उनकी सहमति के इन क्षेत्रों में विकास परियोजनायें सम्भव नहीं। लेकिन इन पर वास्तविक अमल नहीं हैं, बल्कि कॉर्पोरेट हितों में स्वयम् प्रधानमन्त्री कार्यालय (पीएमओ) द्वारा इन कानूनों को कमजोर करने की कोशिश की गयी है। कोल आवंटन घोटाले में पीएमओ की भूमिका को कैग ने स्पष्ट तरीके से उजागर किया है। इस राष्ट्रीय सम्पदा को, जो कि वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की भूमि में दबी पड़ी है, निजी हाथों में सौंपते हुये इन आदिवासी समुदायों से कोई बातचीत तक नहीं की गयी, ग्राम सभाओं के जरिये उनकी सहमति लेना तो दूर की बात है। सीधे-सीधे उनके विस्थापन और आजीविका की बर्बादी के फैसले पर हस्ताक्षर किये गये हैं। यही सलूक उड़ीसा के नियमगिरि पहाड़ियों में बसने वाली डोंगरिया खोंड जनजाति के साथ किया गया, जिसकी मान्यता है कि उनकी पहाड़ियों में उनके देवता का निवास है। इन पहाड़ियों में बॉक्साइट के भण्डार हैं, जिसे एकतरफा तौर पर वेदांता को सौंप दिया गया था और उसने बिना पर्यावरण मंजूरी के, खनन के लिये आवश्यक पूर्वानुमतियों के बिना तथा आदिवासी क्षेत्रों के लिये अनिवार्य अन्य कानूनों का परिपालन किये बिना ही खनन कार्य शुरू कर दिया था। खोंड आदिवासी लम्बे समय से वेदांता व सरकार के खिलाफ संघर्षरत थे। उनके संघर्षों का दमन किया गया व उन पर नक्सलवाद का ठप्पा भी लगाया गया।

बीती 18 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट फैसला दे दिया कि वेदांता और सरकार को खनन के लिये ग्राम सभा की अनुमति हासिल करनी होगी, क्योंकि खनन से न केवल विस्थापन के कारण खोंड आदिवासियों की आजीविका को खतरा पैदा होगा, बल्कि उनके सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक अधिकारों का भी हनन होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि वेदांता को न केवल पर्यावरण मंजूरी हासिल करनी होगी, बल्कि आदिवासियों के कानूनी अधिकारों की भी स्थापना करनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने ये भी कहा है कि वन तथा पर्यावरण मंत्रालय को पर्यावरण संरक्षण कानून का पालन करना होगा तथा उसका कोई भी फैसला ग्राम सभा के फैसले पर आधारित होगा। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने वनाधिकार कानून और पेसा कानून के बीच एक ‘अभिन्न’ रिश्ते को रेखांकित किया है।

हालाँकि शीर्ष न्यायालय का ये फैसला उड़ीसा के बारे में है, लेकिन छत्तीसगढ़ भी इससे बाहर नहीं है, जहाँ आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की लगातार अनदेखी की जा रही है, औद्योगिक विस्तार के लिये कथित जन-सुनवाईयाँ तमाशा बनकर रह गयी हैं, जिसमें प्रशासनिक अधिकारी उद्योगपतियों के चारण की भूमिका में नजर आते हैं और इसके खिलाफ हो रहे स्वतस्फूर्त आन्दोलनों को पुलिस की लाठी के बल पर बेरहमी से कुचला जा रहा है।

राज्य निर्माण के बाद प्रदेश के वन क्षेत्रों में 1.86 लाख हेक्टेयर की कमी आयी है। प्रदेश के 30 हजार हेक्टेयर के वन क्षेत्र में खनन गतिविधियाँ चल रही हैं। आदिवासियों की वन भूमि पर 56.3 प्रतिशत दावों को बिना कोई कारण बताये खारिज कर दिया गया है और सामुदायिक अधिकारों की स्थापना पर तो कोई प्रगति ही नहीं हुयी है। वहीं दूसरी ओर, कॉर्पोरेट आवारा पूँजी राजनेताओं की शह और मिलीभगत से बेरोक-टोक राज्य में घूम रही है। उद्योगों की स्थापना के नाम पर ये एमओयू तो कर रही है, लेकिन उसका उद्देश्य प्रदेश का औद्योगिक विकास कम, प्राकृतिक संसाधनों को हड़पना ज्यादा है। बिजली संयन्त्रों के नाम पर कोयला खदानों पर कब्जे की होड़ चल रही है। इससे प्रदेश में अशान्ति का वातावरण बना है और बस्तर में इसकी अभिव्यक्ति तो नक्सलवाद के रुप में हो रही है। शायद इसीलिये बस्तर में काँग्रेसी नेताओं पर नक्सली हमले के बाद केन्द्रीय मन्त्री जयराम रमेश ने कहा है कि अगले दस सालों तक बस्तर में खनन गतिविधियाँ रोक दी जानी चाहिये।

केन्द्रीय जनजातीय कार्य एवं पंचायती राज मन्त्री वी. किशोरचंद्र देव को भी इस विस्फोटक स्थिति का अंदाजा है। देव को आदिवासी वनाधिकार कानून को रुपाकार देने का श्रेय जाता है। शायद उन्हें नियमगिरि पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का भी अंदाजा रहा हो। 4 अप्रैल को उन्होंने देश के सभी राज्यपालों को एक पत्र लिखकर आग्रह किया है कि संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत उन्हें मिली शक्तियों का वे प्रयोग करें तथा पाँचवी अनुसूची के क्षेत्रों में सुशासन के लिये अपने अधिकारों का इस्तेमाल करें। इस लम्बे पत्र में उन्होंने लिखा है- ‘‘ पाँचवी अनुसूची के अनुबन्ध पाँच के प्रावधानों के अनुसार, राज्यपाल सार्वजनिक सूचना के माध्यम से संसद् अथवा राज्य विधानसभा के किसी भी कानून को सम्पूर्णतः अथवा आँशिक रुप से लागू करने अथवा लागू न करने के निर्देश, अनुसूचित जनजातियों के हितों की सुरक्षा हेतु, दे सकते हैं। संविधान की पाँचवी अनुसूची के अनुबन्ध तीन और पांच के द्वारा ये पूर्णतः स्पष्ट है कि राज्यपाल के अधिकार निरंकुश व असीम हैं।...... न्यायालयों ने भी इस बात की पुष्टि की है.....। देश के महान्यायवादी ने भी राज्यपालों के अधिकारों के सन्दर्भ में ये कहा है कि पाँचवी अनुसूची के तहत अपने कार्यों व अधिकारों का निर्वहन करने हेतु वे राज्य के मंत्रिपरिषशद् की सलाह या सहायता के मोहताज नहीं हैं।’’ इसमें उन्हें अनुसूचित क्षेत्र में ऐसे सभी करार व एमओयू पर रोक लगाने का अधिकार है, जो आदिवासियों के संवैधानिक कानूनों का उल्लंघन करते हैं। देव ने स्पष्ट कहा है कि वनाधिकारों की स्थापना किये बिना किसी आदिवासी को विस्थापित नहीं किया जा सकता।

छत्तीसगढ़ में एक तिहाई आबादी आदिवासी है। लेकिन प्रदेश में पिछले एक दशक में आदिवासियों की जनसंख्या में डेढ़ प्रतिशत की कमी आयी है। प्रदेश के आधे से ज्यादा भौगोलिक क्षेत्र पाँचवी अनुसूची के अन्तर्गत आता है। ये क्षेत्र एक नये किस्म की अशान्ति से गुजर रहे हैं। उदारीकरण-निजीकरण की आड़ में विकास की जिन नीतियों को शक्तिशाली लॉबियाँ लागू कर रही हैं, वे इस प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने के लिये ही हैं। लेकिन इसके लिये इस अनुसूचित क्षेत्र से आदिवासियों का विस्थापन अनिवार्य है। आदिवासियों के लिये विस्थापन का अर्थ है- एक समूह के रुप में उनका विनाश, उनके प्राकृतिक व परम्परागत अधिकारों का हनन और एक समूची मानवीय सभ्यता व संस्कृति का लोप। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी विनाश के खिलाफ अपना फैसला दिया है। किशोरचंद्र देव ने भी इसी विनाश के खिलाफ राज्यपालों को आगाह किया है-‘‘.....दुर्भाग्यवश पैंसठ सालों के आजादी के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं हैं जब राज्यपालों ने अपने इन अधिकारों का प्रयोग किया हो।’’ छत्तीसगढ़ के भी राज्यपाल इसके अपवाद नहीं रहे हैं। सलवा-जुडूम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इसके पहले भी इन्हीं मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित किया था, लेकिन भाजपा सरकार में राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव ही था कि वह इन मुद्दों से मुखातिब नहीं हो पायी।

25 मई की निन्दनीय नक्सली वारदात के बाद अनुसूचित क्षेत्र का विकास व वहाँ रहने वाली आदिवासी जनजातियों की स्थिति एक बार फिर बहस के केन्द्र में है। राज्य सरकार की विफलता के बाद क्या अब अपनी शक्तियों के उचित प्रयोग की राजनैतिक इच्छाशक्ति प्रदर्शित करने का साहस राज्यपाल दिखायेंगे?