सरहद गरम रहे, कश्मीर जले। यह जितनी पाक की जरूरत है उससे ज्यादा संघ की
सरहद गरम रहे, कश्मीर जले। यह जितनी पाक की जरूरत है उससे ज्यादा संघ की
सरहद गरम रहे, कश्मीर जले। यह जितनी पाक की जरूरत है उससे ज्यादा संघ की
महेंद्र मिश्र
भारत-पाक सरहद और गरम हो गई है। बारामुला और सीमा पर दोनों पक्षों में भीषण गोलाबारी की घटनाएं इसी तरफ इशारा करती हैं।
सर्जिकल स्ट्राइक का मकसद पाक को सबक सिखाना था। लेकिन उसने सबक से ज्यादा सवाल खड़े कर दिए हैं।
मसलन वह स्ट्राइक सर्जिकल थी या फिर कुछ और?
यह मामला भारत और पाकिस्तान से ज्यादा अब अतंरराष्ट्रीय चर्चे का विषय बन गया है।
इस बीच अंतरराष्ट्रीय मीडिया से जुड़ी तमाम टीमों ने ग्राउंड जीरो का दौरा किया है। इनमें से किसी ने अभी तक उसकी तस्दीक नहीं की। इसमें न्यूयार्क टाइम्स, बीबीसी और वाशिंगटन पोस्ट शामिल हैं।
यूएन तक ने अपनी टीम के हवाले से भारत के दावे को खारिज किया है।
ऐसे में मोदी सरकार का यह कर्तव्य बन जाता है कि दांव पर लगी भारत की साख को बचाने की वो पहल करें। और स्ट्राइक से जुड़े पुख्ता सबूतों को पाकिस्तान के मुंह पर दे मारें।
भारत में भी इस बात को लेकर जो राजनीतिक सहमति थी, वह अब टूटती दिख रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप नेता केजरीवाल ने प्रधानमंत्री से इसके खुलासे की मांग की है।
लेकिन मामला सिर्फ स्ट्राइक का नहीं है। सरहद गरम रहे, उसमें दोनों तरफ की सरकारों का फायदा है। कश्मीर जले। यह जितनी पाक की जरूरत है उससे ज्यादा संघ की है। क्योंकि उसकी चिंगारी से ही फिरकापरस्ती की आग को देश में फैलाने में मदद मिलेगी।
वैसे भी अगर पाकिस्तानी नेता 1000 साल तक भारत से लड़ने का दावा करते हैं। फिर संघ तो पाकिस्तान के खात्मे के मंसूबों के साथ ही पैदा हुआ है। इस लक्ष्य से भला वो कैसे पीछे हटने वाला है?
पाक नेताओं के लिए यह महज घोषणा हो सकती है। संघ के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है।
पाक से जुड़ा एक सच समझना बहुत जरूरी है।
भारत विरोध पाक के वजूद की पहली शर्त है। भूगोल के नक्शे में अलग रहते भी संस्कृति और इतिहास के साथ दोनों का जिस्मों जान का रिश्ता है।
ऐसे में अलग अस्तित्व और पहचान के लिए भारत विरोध बुनियादी शर्त बन जाती है। वह मुल्क के बंटवारे के साथ ही इस पर डटा है। बाद की पाक की सरकारों ने स्वतंत्र आर्थिक विकास के रास्ते को छोड़ दिया। क्योंकि उन्हें आतंकवाद की सप्लाई के बदले मुफ्त में अमेरिकी डालर मिलने लगे। ऊपर से हथियारों के कारोबारी फायदे ने पाक सेना के युद्ध प्रेम को स्थाई शादी में तब्दील कर दिया। इस्लाम-सेना और अमेरिका के बीच का यह गठजोड़ समय के साथ आगे बढ़ता रहा। उनके बीच कभी तलाक हुआ ही नहीं।
अब भारत के सामने दो रास्ते हैं।
एक शांति का, जिसमें भारत सरकार को अपने विकास पर केंद्रित करना होगा।
दूसरा पाक के साथ युद्ध का। लेकिन इसमें पाकिस्तान का कम भारत का ज्यादा घाटा होगा।
पाकिस्तान तो पहले से ही एक बर्बाद मुल्क है। वह तो खुद कट्टरता और आतंकवाद के कीचड़ में धंसा हुआ है। उससे लड़ने के लिए सबसे पहले भारत को भी उसमें ही उतरना पड़ेगा।
इसका मतलब यह है कि विकास की गाड़ी को अलविदा कह देना होगा।
मोदी और संघ के लिए दूसरा रास्ता सबसे मुफीद बैठता है।
दरअसल उनकी पूरी राजनीति पाक और मुस्लिम विरोध पर टिकी है। ऐसे में उनके फलने-फूलने और आगे बढ़ने की यह बुनियादी शर्त बन जाती है। लिहाजा देश का इस दलदल में फंसना लगभग तय माना जा रहा है।
वैसे भी सर्जिकल स्ट्राइक को पुरानी नीति से परिवर्तन करार दिया जा रहा है।
लेकिन इसका सबसे घातक पहलू यह है कि इसमें खुद भारत ताशकंद से लेकर शिमला समझौते को नकारता दिख रहा है। यहां तक कि इसमें 2003 के वाजपेयी के साथ हुए संघर्ष विराम के समझौते को भी ठेंगे पर रखने की पूरी मंशा दिखती है। न तो परमाणु शस्त्रों के आतंकियों के हाथ लगने की चिंता है और न ही उसके चलने की।
संघ के चहेते सुब्रह्मण्यम स्वामी तो 10 करोड़ मौतों के लिए तैयार रहने को कह चुके हैं।
इन हालात में पूरी सरहद दोनों देशों के लिए बेमानी हो गई है। कोई भी, कभी भी और किसी सीमा का उल्लंघन कर सकता है। न कोई रोक-टोक है न किसी तरह का दबाव। यह बिल्कुल एक नई स्थिति है। ऐसे में खुली सीमा के साथ स्थाई युद्ध की स्थिति दोनों देशों को बेहद असुरक्षित कर देगी। लेकिन शायद यही मोदी सरकार की चाहत भी है। क्योंकि यह चीज घरेलू मोर्चे पर स्थाई ध्रुवीकरण का माहौल बनाने में मददगार साबित होगी।
लेकिन इस मामले में मनमोहन सिंह से सीखने की जरूरत है।
अपने दौर में उन्होंने मौके-मौके पर पाक को जवाब भी दिया। सर्जिकल स्ट्राइक का प्रयोग उनके शासन में कई बार हो चुका है। सेना और उससे जुड़े लोग इसकी पुष्टि भी कर चुके हैं। लेकिन पाक से लड़ाई उनकी सरकार की प्राथमिकता कभी नहीं बनी। कई बार उन्हें पाक जाने का न्योता भी मिला और मौका भी। लेकिन वह कभी नहीं गए। उससे बचते रहे। यहां तक कि उनके सहयोगियों ने उन्हें अपने पैतृक स्थान का दौरा करने की सलाह दी। लेकिन उन्होंने उसको भी तवज्जो नहीं दी।
ऐसा लगता है उसके पीछे अपने विकास के पथ से विचलित होने की आशंका छिपी हुई थी। यही वजह है कि तमाम परेशानियों के बाद भी पाक या फिर आतंकवाद उनके आर्थिक विकास के रास्ते का रोड़ा नहीं बन सके।
लेकिन मोदी सरकार का पाक से पंगे का रास्ता देश को कहीं का नहीं छोड़ेगा।
जो कुछ विकास की संभावनाएं बन रही थीं वह भी युद्ध की भेंट चढ़ सकती हैं। ऐसे में राजनीति तो भले कुछ सालों तक सफल होती दिखे। लेकिन वह तरक्की की कीमत पर होगी। जबकि सच यह है कि उससे न तो पाक सबक सीखेगा। और न ही उसका खात्मा होने जा रहा है। ऐसे में उसका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा। भारत का बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा। जिसकी ताजिंदगी भरपाई होना मुश्किल है। और पाकिस्तान देश को विकास से काटकर अपने जाल में फंसाने में सफल हो जाएगा।
इस बीच भारत के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नासिर जजुआ के बीच बातचीत की भी खबरें आ रही हैं।
वैसे तो राजनीतिक या कूटनीतिक स्तर पर किसी भी तरह के संपर्क और बातचीत का स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन मोर्टार के गोले और जबान दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं। क्योंकि बातचीत केवल बातचीत नहीं होती बल्कि यह एक पूरी सोच और नीति से जुड़ा मामला है।
मसला यह है कि क्या दोनों सरकारें उसके लिए तैयार हैं।
ऐसे में किसी दिखावे या फिर दबाव में या साजिश के तहत अगर यह सब कुछ हो रहा है। तो और भी घातक है।


