शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान में आतंकवाद पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। इस हफ्ते पाकिस्तान और आतंक के हवाले से दो बड़ी घटनाएं हुईं। एक तो अमेरिका ने पाकिस्तान से चलने वाले आतंकवादी संगठन, हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कर दिया। अपने मुल्क में इसके बाद बड़ी खुशियां मनाई जा रही हैं। लेकिन इसमें बहुत खुश होने की बात नहीं है क्योंकि यह भी संभव है कि अमेरिका इसी बहाने कश्मीर के मामले में बिचौलिया बनने के अपने सपने को साकार करने की कोशिश करना चाह रहा हो।

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इस अनुमान का आधार यह है कि सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान में अमेरिकी प्रशासन का बहुत ही लाड़ला रह चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दबाव में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक बार सलाहुद्दीन को भारत के खिलाफ आतंकी हमले बंद करने के लिए तैयार भी कर लिया था। वैसे भी सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करके अमेरिका ने केवल भारत को लालीपाप ही थमाया है।

इस घोषणा का मतलब यह है कि अब सलाहुद्दीन अमेरिका की यात्रा नहीं कर सकता और अमेरिका में कोई बैंक अकाउंट या कोई अन्य संपत्ति नहीं रख सकता। अगर ऐसी कोई संपत्ति वहां होगी तो वह जब्त कर ली जायेगी।

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पाकिस्तान और कश्मीर में रुचि रखने वाले सभी लोगों को मालूम है कि सलाहुद्दीन का आतंक का धंधा अमेरिकी की मदद के बिना भी चलता रहेगा।

दूसरी घटना यह है कि चीन पाकिस्तान के साथ एक बार फिर खड़ा हो गया है... एक सरकारी बयान में चीन की तरफ से कहा गया है कि 'चीन का विचार है कि आतंकवाद के खिलाफ सहयोग को बढ़ाया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इस सम्बन्ध में पाकिस्तान की कोशिशों को मान्यता देना चाहिए और उसको समर्थन करना चाहिए।’ चीन मानता है कि 'अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध में पाकिस्तान अगले दस्ते में खड़ा है और इस दिशा में प्रयास कर रहा है।’

चीन के बयान का लुब्बो लुबाब यह है कि पाकिस्तान आतंकवाद का समर्थक नहीं, बल्कि वह आतंकवाद से पीड़ित है।

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चीन का यह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साझा बयान के बाद या यों कहें कि उसको बेअसर करने के लिए आया है। साझा बयान में कहा गया था कि 'आतंकवाद को खत्म करना हमारी (भारत और अमेरिका की) सबसे बड़ी प्राथमिकता है। हमने आतंकवाद, अतिवाद और बुनियादी धार्मिक ध्रुवीकरण के बारे में बात की। हमारे सहयोग का प्रमुख उद्देश्य आतंकवाद से युद्ध, आतंकियों के सुरक्षित ठिकानों और आतंकी अभयारण्यों को खत्म करना भी है।’ यह संयुक्त बयान आतंकवाद और पाकिस्तान को जोड़ता हुआ दिखता है। जाहिर है अब अमेरिका भी पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद का शिकार है, वरना एक दौर वह भी था जब पाकिस्तान में आतंकवाद को पालना अमेरिकी विदेश नीति का हिस्सा हुआ करता था और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल हक 1980 के दशक में आतंकवाद को हवा देने के अमेरिकी प्रोजेक्ट के मुख्य एजेंट हुआ करते थे।

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आतंकवाद को पाकिस्तान में सरकारी नीति के रूप में इस्तेमाल करने का सिलसिला 1980 के दशक में फौजी तानाशाह और चीफ मार्शल लॉ प्रशासक जनरल जिया उल हक ने शुरू किया था। उसने आतंकियों की एक बड़ी फौज बनाई थी जो अमेरिकी पैसे से तैयार की गई थी। अमेरिका को अफगानिस्तान में मौजूद रूसी सैनिकों से लड़ाई के लिए बन्दे चाहिए थे। पाकिस्तान ने अपनी सेना की शाखा आईएसआई के जरिये बड़ी संख्या में पाकिस्तानी बेरोजगार नौजवानों को ट्रेनिंग दे कर अफगानिस्तान में भेज दिया था। जब अफगानिस्तान में अमेरिका की रुचि नहीं रही तो पाकिस्तान की आईएसआई ने इनको ही भारत में आतंक फैलाने के लिए लगा दिया। सोवियत रूस के विघटन के बाद आतंकवादियों की यह फौज कश्मीर में लग गई। सलाहुद्दीन उसी दौर की पैदाइश है। कश्मीर में युसूफ शाह नाम से चुनाव लड़कर हारने के बाद वह पाकिस्तान चला गया था और वहां उसको अफगान आतंकी गुलबुद्दीन हिकमतयार ने ट्रेनिंग दी थी। हिकमतयार अलकायदा वाले ओसामा बिन लादेन का खास आदमी हुआ करता था। शुरू में इसका संगठन जमाते इस्लामी का सहयोगी हुआ करता था लेकिन बाद में सलाहुद्दीन ने अपना स्वतंत्र संगठन बना लिया।

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चीन के ताजा बयान को अगर इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो बात समझ में आती है क्योंकि आज पाकिस्तान में भी खूब आतंकी हमले हो रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि जब अमेरिका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाह, जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे, तभी दुनिया भर के समझदार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी। लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी। जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनाई थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी। उसी खेती का जहर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खड़ा हो गया है... अमेरिका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जिसके तामझाम को अमेरिका ने ही पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था।

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दुनिया जानती है कि अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन, अल कायदा, अमेरिकी पैसे से ही बनाया गया था और उसका संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमेरिका का खास चेला हुआ करता था। आज बात बदल गई है। जो अमेरिका कभी पाकिस्तानी आतंकवाद का फाइनेंसर हुआ करता था वही आज उसके एक सरगना को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर चुका है। और भारत सरकार के प्रधानमंत्री को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि वह कश्मीर के मामले में भारत का सहयोगी बनने को तैयार है।

अब कश्मीर का मसला बहुत जटिल हो गया है। पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि वहां की समस्या हल हो। कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि 1948 में जब कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद का भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही खत्म कर देंगे तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी।

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पाकिस्तान की एक देश के रूप में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है। वहां की एक बड़ी आबादी के रिश्तेदार भारत में हैं। उनकी सांस्कृतिक जड़ें भारत में हैं लेकिन धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में रहने को अभिशप्त हैं। शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकट्ठा रखने की कोशिश की। अब उनको पता चल गया है कि ऐसा सोचना उनकी बहुत बड़ी गलती थी। जब भी धर्म को राज-काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है और गाय के नाम पर चल रहे खूनी खेल की अनदेखी करने वाले भारतीय नेताओं को भी सावधान होने की जरूरत है क्योंकि जब अर्धशिक्षित और लोकतंत्र से अनभिज्ञ धार्मिक नेता राजसत्ता को अपने इशारे पर नचाने लगते हैं तो वही होता है जो पाकिस्तान का हाल हो रहा है।

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धर्म को राजकाज का मुख्य आधार बनाकर चलने वालों में 1989 के बाद के ईरान को भी देखा जा सकता है। ईरान जो कभी आधुनिकता की दौड़ में बहुत आगे हुआ करता था, धार्मिक कठमुल्लों की ताकत बढऩे के बाद आज दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है।

आजकल पाकिस्तान की दोस्ती चीन से बहुत ज़्यादा है लेकिन अभी कुछ वर्ष पहले तक पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमेरिकी और सऊदी अरब की खैरात पर जिंदा था। उन दिनों पाकिस्तान पर अमेरिका की खास मेहरबानी हुआ करती थी। आज अमेरिकी दोस्ती का हाथ भारत की तरफ बढ़ चुका है और चीन के बढ़ते कदम को रोकने के लिए अमेरिका भारत से अच्छे सम्बन्ध बनाने की फिराक में है। आज पाकिस्तान पूरी तरह से अस्थिरता की कगार पर खड़ा है। आतंकवादियों की जमातें तैयार करने वाला पाकिस्तान आज अपनी एकता को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। अमेरिका से दोस्ती और धार्मिक उन्माद को राजनीति की मुख्यधारा में लाकर पाकिस्तान का यह हाल हुआ है।

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भारत को भी समकालीन इतिहास के इस पक्ष पर नज़र रखनी चाहिए कि कहीं अपने महान देश की हालत अपने शासकों की अदूरदर्शिता के कारण पाकिस्तान जैसी न हो जाए। पाकिस्तान को अमेरिका ने इस इलाके में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया था, कहीं भारत उसी जाल में न फंस जाए। पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है उससे निकलना अब बहुत मुश्किल है। उसकी मजबूरी का फायदा अब चीन उठा रहा है। पाकिस्तान में चीन भारी निवेश कर रहा है। जाहिर है वह पाकिस्तान को उसी तरह की कूटनीतिक मदद कर रहा है जैसी कभी अमेरिका किया करता था। 1971 की बंगलादेश की लड़ाई में अमेरिका ने भारत की सेना को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े के युद्धक विमान वाहक जहाज, इंटरप्राइज को भेज दिया था। भारत के इतिहास के सबसे मुश्किल दौर, 1971 में वह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए हथियार दे रहा था।

एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अमेरिका उसी तरह का सहायक बनना चाहिए जैसा कभी पाकिस्तान हुआ करता था। भारत के राजनयिकों को इस बात को गंभीरता से समझना पड़ेगा कि कहीं अमेरिका सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करके कश्मीर में हस्तक्षेप करने की भूमिका तो नहीं बना रहा है।