दलितों के घनीभूत गुस्से का नतीजा है गुजरात
महेंद्र मिश्र
संघ का यही संकट है। अल्पसंख्यक समुदाय से थोड़ी नजर क्या हटी हिंदू सामाजिक व्यवस्था के भीतर की गंदगी सामने आ गयी। यह अंतरविरोध इतना तीखा, तगड़ा और गहरा है कि इसके आगे दूसरे सारे गौड़ हो जाते हैं। इसे छुपाया भी नहीं जा सकता है। क्योंकि यह रोजाना के सामाजिक जीवन का हिस्सा है। इसमें एक पूरी जमात को मनुष्य के दर्जे से भी दूर रखा गया है। पशुओं तक को उससे बेहतर जिंदगी हासिल है। ऊपर से समाज के एक तबके को उसे बनाए रखने में अपना ज्यादा फायदा दिखता है। और उसकी अपनी एक संगठित राजनीतिक ताकत है। बीजेपी-संघ जिसकी नुमाइंदगी करते हैं।
ऐसा नहीं होता तो गुजरात में मोदी जी के 12 सालों के शासन में सामाजिक स्तर पर भी बदलाव दिखते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि बीजेपी-संघ के लिए गुजरात सांप्रदायिकता और कारपोरेट के साथ-साथ ब्राह्मणवादी जातीय व्यवस्था का भी माडल था। संघ जिसका खुला पैरोकार है।

दरअसल हिंदू धर्म कुछ और नहीं बल्कि जातियों का सामाजिक समूह है।
जाति के खत्म होने का मतलब ही है उसके वजूद पर संकट। ऐसे में जाति व्यवस्था इसके अस्तित्व की पहली शर्त बन जाती है। गुजरात में इसकी पैठ कितनी गहरी है। इसका अंदाजा सूबे के एटीएस के पूर्व डायरेक्टर जनरल राजन चक्रवर्ती के उदाहरण से समझा जा सकता है। चक्रवर्ती दलित समुदाय से आते हैं। उन्होंने पत्रकार राणा अयूब को दिए साक्षात्कार में कहा था कि दलित होने के चलते वो अपने गांव के साझे इलाके में मकान तक नहीं बना सकते।
छूआछूत की पैठ का आलम ये है कि गांव का नाई तक उनका बाल नहीं काटता था। सिर्फ चक्रवर्ती नहीं बल्कि दूसरे दलित अफसरों की भी यही कहानी है।
अब अगर सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के साथ इस तरह का भेदभाव है। तो नीचे और समाज के हाशिये पर क्या हालात होंगे उसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। गुजरात में दलितों का फूटा यह गुस्सा इसी का नतीजा है। यह सैकड़ों सालों की पीड़ा के खिलाफ उपजा आक्रोश है। जो घनीभूत होने के बाद एकजुट होकर अब सड़कों पर निकल रहा है।

दलितों के इस रोष को बढ़ाने में गुजरात के कारपोरेट माडल ने भी आग में घी का काम किया है।
अंबानी और अडानी के चरने के लिए पूरा गुजरात। और दलितों को ढेला भी नहीं। कारपोरेट व्यवस्था में ऊपर के पंद्रह फीसदी ने तो विकास का आसमान हासिल कर लिया लेकिन गरीब और हासिये के लोग रसातल में पहुंच गए। दलितों की हालत तो बद से बदतर हो गई। अमूमन तो उन्हें पशुओं के चमड़े निकालने के अमानवीय धंधे से छुटकारा मिल जाना चाहिए था। लेकिन पेट की आग अगर उनसे ऐसा करवा रही है तो आप उसको भी रोक रहे हैं?

दरअसल बीजेपी के शासन में यह उत्पीड़न और बढ़ गया था। लेकिन अल्पसंख्यकों के खिलाफ सांप्रदायिक गोलबंदी ने उसे नेपथ्य में डाल दिया था।
मोदी के गुजरात से हटते जैसे ही सांप्रदायिक तनाव की डोर थोड़ी कमजोर हुई। यह अंतरविरोध खुलकर सामने आ गया। हालांकि संघ-वीएचपी इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तीखा करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। और इस कड़ी में वो डाक्टर प्रवीण तोगड़िया के जरिये हिंदुओं की नपुंसकता दूर करने से लेकर तमाम हथकंडे अपना रहे हैं। लेकिन जनता भी इनकी करतूतों को समझ गई है। इसलिए वो इनके भ्रम में अब आने से रही। ऐसे में हिंदुओं का तो नहीं बल्कि दलितों और उत्पीड़त तबकों का खून जरूर खौल गया है।

दरअसल गुजरात में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा कोई दूसरी ऐसी पार्टी उभर ही नहीं पायी। जो इस हिस्से की राजनीतिक आवाज बन सके। लिहाजा यह तबका राजनीतिक सशक्तीकरण से वंचित रह गया। मजबूरी बश उसे इन्हीं दोनों दलों के बीच दोलन करना पड़ा। जो अंदरूनी तौर पर ब्राह्मणवादी संस्कृति और शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था की पैरोकार हैं। लेकिन पिछले 15 सालों के बीजेपी शासन में सामाजिक अंतरविरोध इतना गहरा गया कि पानी सिर से ऊपर चला गया।

गाय की चमड़ी निकालने पर दलितों की पिटाई की घटना महज एक जरिया है।
इसके बहाने सैकड़ों सालों से दलितों में पल रहा गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा। कई दलित युवाओं के एक साथ खुदकुशी करने की कोशिश को इसी के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह उत्पीड़नकारी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ उपजा आक्रोश है। जिसे जाहिर करने के लिए उन्होंने यह रास्ता चुना। और अब इस तबके को किसी नेतृत्व या फिर पार्टी की दरकार नहीं है। उन्होंने अपनी कमान खुद संभाल ली है। गाय मामले में पीड़ित दलित युवक का हरजाना लेने की जगह आरोपी की पिटाई की मांग इसी बात को साबित करता है। यह समुदाय अब अपने मान, सम्मान और बराबरी के अधिकार को जान गया है। और उसके साथ किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं है। क्योंकि अब उसे मैला ढोने में आध्यात्मिक सुख नहीं मिलता है।
जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने अपनी एक किताब में लिखा है। जिसमें उन्होंने कहा है कि दलित अपनी इच्छा से मैला ढोने का काम करते हैं और इसमें उनको आध्यात्मिक सुख मिलता है। गुजरात के दलितों को प्रधानमंत्री के इस बयान को वापस लेने और इसके लिए उनके सामने माफी मांगने की शर्त रखनी चाहिए।

बीजेपी मूलतः दलित विरोधी है
रोहित वेमुला से लेकर गुजरात का यह मंजर और मुंबई में अंबेडकर की विरासत को ढहाने से लेकर यूपी में बीएसपी सुप्रीमो के खिलाफ बीजेपी नेता का घृणित विषवमन यह बताता है कि बीजेपी मूलतः दलित विरोधी है। और यह महज साथ खाने की नौटंकी से दूर नहीं होगा। जब तक कि खुद संघ-बीजेपी की नीति और सोच में बदलाव नहीं होगा। आप जाति व्यवस्था भी बनाए रखेंगे और उत्पीड़न भी खत्म हो जाएगा। दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकती हैं।
अंबेडकर और गांधी के बीच की यह लंबी बहस है। जिसमें गांधी जातीय व्यवस्था के बनाए रखने के पक्षधर थे। लेकिन मौत से कुछ दिनों पहले ही उन्हें अपनी गल्ती का अहसास हुआ। और वो भी देश से जातीय व्यवस्था को खत्म करने के हिमायती हो गए। लेकिन बीजेपी और संघ को साफ करना चाहिए कि वह जाति व्यवस्था को क्यों बनाए रखना चाहती है? नहीं खत्म करने का ही मतलब है कि इस घृणित सामाजिक उत्पीड़न को बनाए रखना। लेकिन ऐसा अब नहीं चलेगा क्योंकि गाय का चमड़ा निकालने पर अपनी चमड़ी खींचने वालों की वह चमड़ी उधेड़ने के लिए तैयार है। और देश का लोकतंत्र सिर के बल खड़ी ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सीधी करने की उसे ताकत दे रहा है।