सांप्रदायिक उग्रता का ‘विकास’: अटाली से बिसाहड़ा तक
सांप्रदायिक उग्रता का ‘विकास’: अटाली से बिसाहड़ा तक
मोदी जी का डिजिटल भारत और ज्यादा उग्र बहुसंख्यकवादी भारत भी होगा
प्रधानमंत्री की चुप्पी न तो महज संयोग है और न अर्थहीन
0 राजेंद्र शर्मा
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अपनी पांच दिन की ताजातरीन अमरीका यात्रा पर, दुनिया के सबसे ताकतवर राजनेताओं के अलावा खासतौर पर दुनिया की सूचना-प्रौद्योगिकी तथा डिजिटल कारोबार के क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनियों के प्रमुखों के साथ कंधे से से कंधा रगड़ऩे के बाद स्वदेश लौटे प्रधानमंत्री से सबसे आग्रहपूर्वक जिस चीज पर ‘कुछ कहने’ और अपना ‘मौन तोडऩे’ की मांग की जा रही थी, उसका संबंध न तो भारत के डिजिटल भविष्य से है और आर्थिक संभावनाओं से। उसका संबंध है तो प्रधानमंत्री मोदी के राज में देश के बर्बरता के रास्ते पर बढ़ऩे से है। उसका संबंध देश की राजधानी से मुश्किल से पचास किलोमीटर दूर, उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्धनगर जिले में, दादरी के गांव बिसाहड़ा की जघन्यता से है, जहां ठीक उसी रोज, जिस रोज प्रधानमंत्री सॉन जोस में सैप सेंटर में भारतीय अनिवासियों को संबोधित करते हुए, भारत के तेज रफ्तार तरक्की के पहिए लग जाने का भरोसा दिला रहे थे, एक अधेड़ मुसलमान के घर पर हिंसक भीड़ ने हमला कर उसे सिर्फ इसलिए पीट-पीटकर मार डाला था और उसके आइटीआइ में पढ़ रहे नौजवान बेटे को मरा जान कर छोड़ दिया था कि किसी ने यह अफवाह फैला दी थी कि उन्होंने बछड़ा काटा था और उसका मांस खाया था!
इस अफवाह का फैलना भी कोई कानाफूसी का मामला नहीं था बल्कि बाकायदा मंदिर में कीर्तन के समय लाउडस्पीकर से घोषणा कर यह अफवाह फैलायी गयी थी, लेकिन ऐसे तथ्यों की चर्चा हम जरा बाद में करेंगे।
यहां हम सिर्फ इतना ध्यान दिलाना चाहेंगे कि हर प्रकार के मीडिया से अति-कनैक्टेड प्रधानमंत्री को अमरीका का दौरा खत्म कर स्वदेश के लिए रवाना होने तक इस जघन्यता की खबर ही नहीं मिली होगी, यह मानना मुश्किल है। फिर भी ‘कुछ कहने’ की मांग के सारे शोर के बावजूद, प्रधानमंत्री ने एक शब्द तक नहीं कहा। घटना के चार दिन बाद, महात्मा गांधी को उनके जन्म दिन पर श्रद्घांजलि अर्पित करने के बाद, प्रधानमंत्री बिहार में अपनी उद्घाटन चुनाव सभा भी कर आए, तब भी उन्होंने एक शब्द तक नहीं कहा। और इस जघन्यता के पूरे हफ्ते भर बाद तक सिर्फ डैवलपमेंट की चिंता करने के दावे करने वाले और छोटी-बड़ी हर चीज पर ट्वीट करने में संकोच न करने वाले प्रधानमंत्री ने, इस पर एक शब्द तक नहीं कहा था।
यहां तक कि प्रधानमंत्री की इस चुप्पी के न टूटने का संकेत पढ़क़र, सत्ताधारी भाजपा के प्रवक्ताओं ने बाकायदा यह भी कहना शुरू कर दिया था कि सवा सौ करोड़ आबादी के देश के प्रधानमंत्री से, ‘हरेक’ और जाहिर है कि छोटी-मोटी घटना पर टिप्पणी करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है!
यह कहना किसी भी तरह अनुचित नहीं होगा कि प्रधानमंत्री की इस चुप्पी से ही इशारा लेकर, संघ परिवार के अन्यान्य बाजुओं ने ही नहीं, खुद सत्ताधारी भाजपा के स्थानीय नेताओं से लेकर, केंद्रीय मंत्रियों तक ने अलग-अलग हद तक बिसाहड़ा की जघन्यता का और उसके लिए जमीनों स्तर पर जिम्मेदार लोगों का भी बचाव करने की कोशिश की है। इस जघन्यता के फौरन बाद, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने, जो इसी क्षेत्र से सांसद भी हैं, न सिर्फ इस जघन्यता की गंभीरता को घटाने की सोची-समझी कोशिश में इसे महज एक
‘दुर्घटना’ करार दिया, जो ‘गलतफहमी’ की वजह से हो गयी थी बल्कि बिहासड़ा गांव जाकर, बहुसंख्यक समुदाय की हमलावर भीड़ में शामिल लोगों का बचाव करते हुए, उत्तर प्रदेश की सपा सरकार को इसकी चेतावनी भी देना जरूरी समझा कि इस समुदाय के ‘निर्दोषों’ का तंग किया जाना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
आगे चलकर, उन्हीं संस्कृति मंत्री ने, हमलावर भीड़ की ऊंची ‘नैतिकता’ का बखान करते हुए, न सिर्फ इसके झूठे दावे किए कि भीड़ ने हमले के शिकार हुए परिवार की महिलाओं और खासतौर पर बेटी को ‘छुआ तक नहीं’ था, डाक्टरी के पेशे तथा कारोबार के अपने अनुभव की दुहाई देते हुए उन्होने एक विचित्र तर्क के आधार दावा भी किया कि मृतक इखलाक और उसके प्राणघातक रूप से घायल किए गए बेटे, दानिश के सिर में ही घावों का आना, दुर्घटनावश चोट आने का ही सबूत है न कि ‘हत्या की नीयत’ हमला किए जाने का!
अचरज नहीं कि केंद्रीय मंत्री के बयान ने सत्ताधारी पार्टी के दूसरे नेताओं के लिए न्यूनतम हिंदुत्ववादी उग्रता रेखा खींच दी। हमलावरों के परिवारों की महिलाओं ने उनके दौरे से जोश में आकर, ‘‘एकपक्षीय रिपोर्टिंग’’ के लिए मीडिया को निशाने पर ले लिया और बाकायदा उग्र हमला कर गांव के बाहर खदेड़ दिया। महेश शर्मा के दो दिन बाद, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे को भडक़ाने के प्रमुख आरोपियों में से एक, भाजपा विधायक संगीत सोम ने बिसाहड़ा में धारा-144 को धता बताते हुए बाकायदा बहुसंख्यक समुदाय की पंचायत की। महेश शर्मा द्वारा खींची गयी न्यूनतम उग्रता रेखा से आगे बढ़ते हुए, वह बर्बरता के सारे आरोपियों को निर्दोष तथा बहुसंख्यकविरोधी सांप्रदायिकता का शिकार करार देने तथा अखलाक को गोहत्या का दोषी करार देने से भी आगे निकल गए। उन्होंने हिंदुओं के साथ अन्याय तथा उनके अपमान के ‘‘जवाब’’ के तौर पर मुजफ्फनगर के दंगे की याद दिलाते हुए, बिसाहड़ा में भी ऐसे ही जवाब की धमकी भी दे डाली। भाजपा के एक राज्य उपाध्यक्ष ने इस स्वर पर बाकायदा आधिकारिक मोहर लगा दी।
यहां से आगे हिंदू रक्षक दल से लेकर साक्षी महाराज तथा साध्वी प्राची आदि तक विभिन्न योद्घाओं ने, सांप्रदायिक आक्रामकता की होड़ में अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। अचरज की बात नहीं है कि केंद्रीय गृहमंत्री तथा पहले नंबर से मीलों पीछे सही, पर सरकार में दूसरे नंबर के दावेदार, राजनाथ सिंह की घटना को ‘सांप्रदायिक रंग न देने’ की अपील ने, इन हमलावर सुरों को परोक्ष रूप से बढ़ावा देने का ही काम किया। आखिरकार, देश का गृहमंत्री एक प्रकार से यही तो कह रहा था कि इस जघन्यता के लिए भी, हिंदुत्ववादी ताकतों को कोई दोष न दे! विडंबना यह है कि नरेंद्र मोदी की सरकार में शीर्ष स्तर से बिसाहड़ा की जघन्यता की दो-टूक शब्दों में अगर किसी ने निंदा की, तो सिर्फ वित्त मंत्री ने, जिन्हें भी सरकार में दूसरे नंबर का दावेदार माना जाता है।
साफ है कि बिसाहड़ा की बर्बरता पर प्रधानमंत्री की चुप्पी न तो महज संयोग है और न अर्थहीन। सच तो यह है कि हिंदुत्ववादी आक्रामकता के ऐसे प्रदर्शनों पर प्रधानमंत्री की चुप्पी, अब नियम ही बन गयी है। फिर भी, इस संदर्भ में हमें राजधानी से मुश्किल से तीस-चालीस किलोमीटर दूर, फरीदाबाद के अटाली गांव में सिर्फ चार महीने पहले फूटी अल्पसंख्यकविरोधी हिंसा पर, प्रधानमंत्री की ऐसी ही चुप्पी खासतौर पर याद आ रही है। मई के आखिर में अटाली में अल्पसंख्यकों के घरों पर हुए अप्रत्याशित और भयावह हमले के चलते, गांव के लगभग सभी मुस्लिम परिवार गांव छोडक़र, वल्लभगढ़ थाने में शरण लेने के लिए मजबूर हुए थे और हफ्तों भीषण गर्मी में खुले में वहीं थाने में ही रहने के लिए मजबूर हुए थे। लेकिन, राजधानी के दरवाजे पर हुई अल्पसंख्यकों पर संगठित हमले की इस घटना पर भी, प्रधानमंत्री मौन ही साधे रहे। फिर भी असली मुद्दा ऐसी घटनाओं पर प्रधानमंत्री के मौन रहने या बोलने का नहीं है। मुद्दा इस मौन से संकेत पाकर, ऐसे हरेक अगले प्रकरण में, हिंदुत्ववादी ताकतों की आक्रामकता बढ़ते जाने की है। अटाली से बिसाहड़ा तक की यात्रा इसी का सबूत है।
बेशक, अटाली और बिसाहड़ा, दोनों ग्रामीण उत्तरी भारत में हिंदुत्ववादी ताकतों की बढ़ती सांप्रदायिक प्रहार-शक्ति तथा प्रभाव के सबूत हैं और इस अर्थ में 2013 के मुजफ्फनगर के दंगे से जुड़े ‘विकास’ के ही विस्तार के सबूत हैं। फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि अटाली में नाम के वास्ते कम से कम मस्जिद के निर्माण पर, जबर्दस्ती गढ़ा हुआ ही सही, कोई ‘विवाद’ तो था। बिसाहड़ा में दूर-दूर तक कोई विवाद नहीं था। अटाली में हमले के लिए आस-पास के गांवों से ज्यादा लोग जुटाए गए थे और वहां गांव की आबादी में मुसलमान घरों की संख्या भी नगण्य नहीं थी। बिसाहड़ा में हमले के लिए जुटे ज्यादातर लोग गांव के ही थे, जिन्हें मंदिर से कीर्तन के दौरान इखलाक परिवार द्वारा गाय का बछड़ा काटे जाने का भडक़ाऊ एलान करने के जरिए, संभवत: मुट्ठीभर षडयंत्रकारियों ने जुटा लिया था, जबकि इस गांव में मुसलमानों के घर उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।
साफ है कि अटाली से बिसाहड़ा के बीच, हिंदुत्ववादी उग्रता छलांग लगाकर कई कदम आगे बढ़ गयी है।
और ऐसी ही ‘प्रगति’ राजनीतिक स्तर पर, हिंदुत्ववादी राजनीतिक ताकतों और हिंदुत्ववादी सरकार द्वारा भी, इस उग्रता का बचाव किए जाने में भी हुई है। और इन दोनों के योग से बहुसंख्यकवादी संप्रदायीकरण के एजेंडा को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है। यह कोई संयोग ही नहीं है कि मुजफ्फरनगर दंगों के एक और आरोपी, केंद्रीय राज्य मंत्री संजीव बलियान ने बिसाहड़ा की जघन्यता को उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर जारी अवैध ‘गोहत्या’ की ‘‘प्रतिक्रिया’’ साबित करने की ही कोशिश नहीं की है बल्कि इसे देश के पैमाने पर गोवध तथा गोमांस पर पाबंदी के हिंदुत्ववादी एजेंडा को आगे बढ़ाने का बहाना बनाने की भी कोशिश की है। यहां तक कि केंद्र सरकार के मंत्री की हैसियत से उन्होंने सरकार के स्तर पर बाकायदा इसकी समीक्षा करने के लिए कृषि तथा प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात संवद्र्घन अथॉरिटी की बैठक बुलायी है कि देश से भेंस-भेंसा आदि के मांस के निर्यात में जो बढ़ोतरी हो रही है, कहीं उसके पीछे कहीं भेंस के मांस के साथ गोमांस की मिलावट तो नहीं है! उधर बिहार में भाजपा के शीर्ष चुनावी नेता, सुशील कुमार मोदी ने इस मुद्दे को केंद्र में रखते हुए, इसका बाकायदा एलान ही कर दिया है कि इस बार का चुनाव, गोमांस खाने वालों और गोरक्षकों के बीच है!
पिछले साल जब मोदी की सरकार चुनकर आयी थी, खासतौर पर मीडिया की बहसों में अनेक सदाशयी विद्वान यह नतीजा निकालकर दिखाने के लिए बड़ी कसरत रहे थे कि इस सरकार के हिंदुत्ववादी समर्थन आधार से ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है; कि मोदी सरकार का ‘विकास का एजेंडा’ इस हिंदुत्ववादी आधार के तकाजों पर अंकुश लगा रहा होगा। बहरहाल, अटाली से बिसाहड़ा तक की यात्रा इसका सबूत है कि तथाकथित ‘विकास का एजेंडा’, हिंदुत्ववादी एजेंडों पर किसी तरह का अंकुश लगाना दूर, उनके लिए रास्ता ही बना रहा है। अपने संघ परिवार की बढ़ती आक्रामकता पर प्रधानमंत्री की चुप्पी, यह रास्ता बनाए जाने का ही हिस्सा है। मोदी जी का डिजिटल भारत और ज्यादा उग्र बहुसंख्यकवादी भारत भी होगा।


