विद्या भूषण रावत
सात अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संसद में घोषणा की के मंडल आयोग की सिफारिशों को सरकार ने स्वीकार कर लिया है और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगो के लिये 27% आरक्षण लागू किया जायेगा। घोषणा का सर्वत्र स्वागत किया गया और बात बीत गयी। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री ने आंबेडकर जयंती पर सार्वजानिक अवकाश की घोषणा की। उससे पहले वह 12 अप्रैल 1990 को बाबा साहेब आंबेडकर चित्र को संसद में सम्मानपूर्वक स्थान दिला चुके थे और उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया। इसी वर्ष बाबा साहेब की जन्म शताब्दी को भारत सरकार ने बहुत धूम धाम से मनाया और आंबेडकर साहित्य को हिंदी में प्रकाशित करवाने के लिये प्रयास किये। इसी वर्ष नव बौद्धों को अनुसूचित जाति के आरक्षण में शामिल किया गया। यह मैं इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि अक्सर मंडल आयोग की सिफरिशों को लागू करने के लिये भी हमारे बहुत से 'महात्मा' विश्वनाथ प्रताप सिंह को श्रेय नहीं देना चाहते। कुछ कहते हैं के यह एक राजनैतिक निर्णय था जो देवीलाल से टकराने के उद्देश्य से लिया गया लेकिन बात यह है के हर चीज में राजनीति होती है और इसलिये यदि मंडल का निर्णय गलत नहीं था तो मुलायम को देवीलाल के साथ देने की जरूरत नहीं थी लेकिन उन्होंने ऐसा ही किया और वह मंडल के धुर विरोधी चंद्रशेखर के पास चले गये। मैं यह मानता हूँ कि चाहे कैसे भी यह निर्णय लिया गया यह भारत की राजनीति में एक दूरगामी परिवर्तन लाने वाला ऐतिहासिक निर्णय बना।

मेरे कहने का मतलब यह है कि स्वाधीन भारत में यह एकमात्र ऐसी सरकार थी जो वाकई में दलित पिछड़ों और आदिवासियों के हितों के प्रति सोच रखती थी और इसलिये उसके हरेक निर्णय न केवल गहन संकेतों वाले थे अपितु उन्होंने लोगों में गहरी छाप छोड़ी। क्या यह हकीकत नहीं है कि स्वाधीनता के गुजरने के बाद भी सरकारों ने बाबा साहेब आंबेडकर को वो स्थान नहीं प्रदान किया जिसके वे हक़दार थे और उनके साहित्य जो जनता से छुपाया गया। इसलिये विश्वनाथ प्रताप और उनकी सरकार को मात्र मंडल से न जोड़ें अपितु उनके एक्शन की हकीकत को समझने की जरूरत है जिसने भारत की राजनीति में दूरगामी परिवर्तन ला दिया है।

मंडल ने विश्वनाथ प्रताप को भारत की राजनीति का सबसे बड़ा खलनायक बनाया और उनके सबसे शुभचिंतक भी उनके दुश्मन हो गये। वो लोग जो उनकी इमानदारी पर कसीदे पढ़ते थे वो एकदम उनके विरोध में खड़े हो गये। इससे यह बात भी जाहिर होती है के ऊँची जाति की 'विशेषज्ञ' कभी भी ईमानदार लोगों के साथ नहीं खड़े रहे क्योंकि अगर जातीय सर्वोच्चता और ईमानदारी में एक को चुनना हो तो वे जातीय सर्वोच्चता को चुनेंगे और इसलिये विश्नाथ प्रताप उनके सबसे बड़े दुश्मन हो गये और उनकी मौत तक उन्हें सवर्ण हिन्दुओं की गालियाँ पड़ी लेकिन इतना सत्य है आने वाली पीढियाँ जब भी इतिहास का आंकलन करेंगी तो विश्वनाथ प्रताप की ऐतिहासिक भूमिका को नज़रंदाज़ नहीं कर पाएंगी।

मंडल के महिमामंडन को कम करने के लिये ही लाल कृष्ण अडवाणी और संघ परिवार ने अपनी कुत्सित रणनीति भी बना ली और रथयात्री ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा करने का निर्णय लिया और खुले तौर पर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की घोषणा की। यह बात में साफ तौर पर कहना चाहता हूँ कि संघ परिवार का निशाना मुसलमानों पर जरूर था लेकिन उनके असली निशाने परे दलित पिछड़ी जातियाँ थीं क्योंकि मंडल के बाद इन जातियों में आपसी तालमेल बढ़ रहा था वो ब्राह्मणवादी शक्तियों के लिये खतरनाक था। संघ को पिछड़ों को नौकरियों में आरक्षण से कुछ खतरा नहीं था उन्हें असली डर था दलित पिछड़ों के हाथ दिल्ली की सत्ता की आने से मंडल विरोध में दिल्ली और अन्य नगरों में पाखंडी हिन्दुओं का जो नाटक हुआ उस पर मुझे ज्यादा बोलने की जरुरत नहीं लेकिन उसने ये साबित किया कि हिन्दुओं के लिये दलित और पिछड़े उनकी जनसँख्या बढ़ाने के आलावा कुछ नहीं। जब सत्ता में बदलाव की बात आती है तो सवर्ण हिन्दू तिलमिलाने लगते हैं और उनकी इन उलजलूल हरकतों को जातिवादी सवर्णवादी मीडिया ने जिस तरीके से प्रचार किया उससे पता चलता है के यह हिंदी अखबार नहीं अपितु हिन्दू अख़बार बन गये थे।

दलित और पिछड़ों के आत्म स्वाभिमान जागने से संघ और उनके मठाधीशों की दुकान बंद होने का खतरा था इसलिये हिन्दू स्वाभिमान ने नाम पर राम मंदिर का आन्दोलन चला और मुसलमानों को निशान बनाकर दलित पिछड़ों के अन्दर अस्मिता की लड़ाई को दबाने की कोशिश हुई लेकिन वो कामयाब नहीं हुयी। उत्तर प्रदेश और बिहार ने मंडल के बाद नई शक्तियों का उदय देखा और उनसे उम्मीद की गयी थी के वे अस्मिता की इस जंग को आगे ले जायेंगे और समाज को नई दिशा देंगे। मुलायम ने कभी मंडल का समर्थन नहीं किया और उसको लागू करवाने में भी वी पी को बहुत मशक्क्त करनी पड़ी।

विश्वनाथ प्रताप की सरकार अयोध्या में हिन्दू आतंकवादियों के उन्माद से बाबरी मस्जिद को बचाने में कामयाब रही लेकिन उसे अपनी कुर्सी गँवानी पड़ी। उस सरकार ने समझौता परस्ती नहीं की इसलिये वो चली नहीं। यह एक दुखद सत्य है के वह सरकार संविधान को बचाकर चली गयी लेकिन उसके बाद की सरकारों ने संविधान के साथ खिलवाड़ किया और तब भी बेशर्मी से चलती रही।

मंडल के नाम पर मलाई खाने वाले राजनीतिज्ञों ने मंडल की क्रांति को रोका है इसलिये समय आने पर जनता उनसे हिसाब लेगी। मंडल, सामाजिक न्याय का राजनैतिक हथियार है जो जातिगत अस्मिता की राजनीति तक सीमित नहीं किया जा सकता। मंडल भारत के अन्दर प्रभुत्ववाद की राजनीति को समाप्त करने का सबसे बड़ा साधन है इसलिये यदि मंडल की राजनीति से उपजी पीढ़ी प्रभुत्ववाद और परिवारवाद की सबसे बड़ी पोषक हो गई तो वो केवल अमंगल करेंगी और अमंडल भी। नतीजा सामने है। बिहार और उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय पूर्वाग्रहों का खुला खेल दिखाई दिया और जो ताकत प्रभुत्ववादियों को समाप्त करने में लगनी चाहिए थी वो दलितों के विरोध में चली गयी जो बेहद शर्मनाक है। मामला केवल यहीं तक सीमित नहीं रहा मौका परस्ती देखिये तो पिछड़ों को भी आरक्षण के नाम पर धोखा दे दिया गया।

क्या मंडल के सही वारिस कभी दलित विरोधी हो सकते हैं और क्या उन्हें ऐसा होना चाहिए। मंडल की मार में सबसे ज्यादा गालियाँ वी पी, राम विलास पासवान और शरद यादव को पड़ी और मंडल की लड़ाई में सबसे आगे दलित थे। उस वक़्त तक पिछड़ा आन्दोलन और नेतृत्व ना के बराबर था इसलिये सड़कों पर दलितों ने लाठी डंडा खाया। यह इसलिये लिखना पड़ रहा है क्योंकि उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने जिस बेशर्मी से पदोन्नतियों में आरक्षण के विरूद्ध संसद में बदतमीजी की और उसके बाद उत्तर प्रदेश के जातिवादी सरकारी कर्मचारियों को दलित कर्मचारियों के विरुद्ध खड़ा किया उसकी मिसाल देते नहीं बनेगी। यह निहायत ही घटिया और तुच्छ राजनीति का प्रतीक थी। हमें अखिलेश यादव से बहुत उम्मीदे थीं लेकिन लगता है कि कई चाचाओं और दाद्दाओ के चलते वो कोई भी स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ हैं। दलितों के आरक्षण के मसले को पिछड़ी जातियों की घृणा में बदलना शर्मनाक था और यह केवल आरक्षण तक ही सीमित नहीं था गाँव में दलितों को धमकाना और गरियाना एक धंधा बन गया। लेकिन दलित बहुजन प्रश्नों को यदि सही समझ हम रखते हैं हैं तो पिछड़ों को भी पता चल गया कि वर्तमान सरकार आरक्षण में पिछड़ों को न्याय नहीं दिला पाएगी। लेकिन वो जानती हैं कि जाति उसके साथ है और यही हमारी सबसे बड़ी हार है। जातिवाद बहुजन आन्दोलन को ले डूबेगा इसलिये अब जाति के खूँटों को काटकर सांस्कृतिक क्रांति की भी जरूरत थी। बाबा साहेब आंबेडकर का प्रबुद्ध भारत का सपना केवल दलितों के लिये ही नहीं था वो पिछड़ी जातियों और न्य सभी पर भी लागू होता है और बुद्धा केवल एक वर्ग या जाति विशेष के नहीं थी अपितु दुनिया को भारत की सबसे बड़ी धरोहर हैं और यदि बहुजन समाज भी बुद्ध से कुछ प्रेरणा ग्रहण करेगा तो कोई बुराई नहीं है क्योंकि सांस्कृतिक क्रांति के अभाव में बहुजन समाज ब्राह्मणवादी परम्पराओं का सबसे बड़ा पोषक रहेगा और बदलाव की दिशा का सबसे बड़ा रोड़ा।

पिछड़ी जातियों के राजनैतिक चिंतन में यदि आंबेडकर फुले पेरियार नहीं तो वो अवसरवादी मनुवादी जातिवादी राजनीति ही करेंगी और उसका पूरा शिकार दलित और अति पिछड़ा होगा। मंडल ने प्रभुत्ववाद को खत्म किया अतः इसके जरिये यदि फिर से प्रभुत्वाद पैदा होगा तो अन्य जातियां विद्रोह करेंगी। राजनैतिक समझ के चलते लोग और जातियां प्रभुत्ववादी और वर्चस्वादी विचारधारो को छोड़ेंगे और इसलिये ही इतने नए दल और नेता आ रहे हैं। मैं साफ कहना चाहता हूँ कि सांस्कृतिक परिवर्तन में उनको भी लगना पड़ेगा नहीं तो उनकी स्थिति मनुवाद के 'स्वयंसेवक' की होगी।

जिस दिन सभी वर्गों में राजनैतिक चेतना होगी और सांस्कृतिक परिवर्तन आ गया तो वो हिंदुत्व के छिपे एजेंडे को पहचान सकेंगे क्योंकि 'अस्मिता' के मनोविज्ञान को सबसे पहले संघ परिवार समझा इसलिये राम मंदिर आन्दोलन के लिये ईंटे चुनने का काम दलित पिछड़ों को सौंपा गया और आंबेडकर भी 'प्रातः स्मरणीय' हो गये। अब यह कौन बताये की आंबेडकर ने तो राम और कृष्ण की पहलियों को अछ्छे से बूझा। इसलिये संघ और हिंदुत्व उन अंतरविरोधों पर अपनी राजनीति करते हैं जो इस वर्णवादी व्यवस्था की देन हैं और इसीलिये एक के बाद एक 'सांस्कृतिक' क्रांति के लिये पिछड़ी जाति के बाबाओं की कतार लग गयी जो हमारी राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिये काफी है। किसी भी समाज की राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिये उसे वैचारारिक रूप से पंगु बनाने के लिये उसके हाथ में कमंडल पकड़ा दो और धर्म की ढकोसलेबाजी में उसको फँसा दो ताकि वह उससे बाहर न निकल सके। जिस समाज में राजनैतिक चेतना का अभाव होगा तो वो कभी भी बदलाव नहीं ला सकते इसलिये मंडल का आन्दोलन केवल जातिवादी नहीं हो सकता बल्कि सांस्कृतिक राजनैतिक क्रांति का एक बहुत जबरदस्त हथियार बन सकता है और उस हथियार को मजबूत करने के लिये बहुजन समाज के सभी लोगो को वैचारिक परिवर्तन की लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी और उसके लिये भारत की अर्जक और मानववादी चेतना के सारे योद्धाओं को अपना नेता मानना पड़ेगा और अपनी जाति के ब्राह्मणवादी नेताओं और परिवारों के विरूद्ध बगावत करनी पड़ेगी। अब समय आ गया है एक नयी राजनैतिक पहल का जो दलित पिछड़ों आदिवासियों मुसलमानों और अन्य संघर्षशील आन्दोलनों की एकता का जो भारत की विविधता का सम्मान करे और हमारे धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी संविधान को मज़बूत करे। आदिवासियों, दलितों और अन्य लोगो के जल जंगल और जमीन के अधिकारों को बचा सके। आज के पूँजीवादी व्यवस्था ने पहले ही सरकार का हस्तक्षेप ख़त्म कर दिया है और समाज के अर्जक तबकों को सबसे मुश्किल हालातो में डाला है। पूँजी के वर्चस्व ने एक नए प्रभुत्व को जन्म दिया है और हमारी वर्तमान राजनैतिक दल इससे निपटने में पूर्णतया फ़ैल रहे है क्योंकि पूँजी और पैसे के आगे वे भी घुटने टेक चुके हैं। इसलिये मंडल को इस सन्दर्भ में देखना पड़ेगा कि हम हर प्रकार के प्रभुत्ववाद का विरोध करेंगे और सत्ता में सबकी भागीदारी के लिये संघर्ष करते रहेंगे। मंडल की ताकतें धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का जमकर विरोध करेंगी और भारत को एक प्रगतिशील भारत बनाने के लिये न केवल सत्ता और राजनैतिक परिवर्तन को हथियार बनायेंगी अपितु सांस्कृतिक परिवर्तन की लड़ाई भी लड़ेंगी क्योंकि उसके अभाव से में वे हमेशा अपनी पहचान के संकट से गुजरती रहेंगी। अभी तो बस इतना ही कि मंडल दिवस अब सामाजिक न्याय ही नहीं सामाजिक परिवर्तन का दिवस बने यही कामना है।