साने गुरुजी की 125वीं जयंती पर मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश खैरनार के इस लेख से जानें उनके जीवन के प्रेरणादायक पहलू, साहित्यिक योगदान, समाजसेवा, और स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका। उनके विचार और कार्य आज भी प्रेरणा देते हैं।

साने गुरुजी का जन्म और प्रारंभिक जीवन

आने वाले 24 दिसंबर को साने गुरु जी की 125 वी जयंती के बहाने !

देश भर के राष्ट्र सेवा दल के सैनिकों तथा छात्र भारती, समाजवादी, आंतरभा रती, सानेगुरुजी कथामाला और साप्ताहिक साधना परिवार के सभी साथियों के नाम विनम्र निवेदन।

उन्नीसवीं शताब्दी के समाप्त होने के और बीसवीं शताब्दी शुरू होने के अंतिम सप्ताह में, 24 दिसंबर 1899 के दिन महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के, पालगड नाम के, तीन से चार हजार जनसंख्या वाले छोटे से देहात में सानेगुरुजी का जन्म हुआ था। यानी यीशू ईसा मसीह के एक दिन पहले, और दो हजार एक सौ साल और इक्कीस दिन पहले, करूणा, प्रेम, दया और शांति के संदेश देने वाले भगवान यीशू के जन्मदिन के सिर्फ एक दिन पहले। समस्त महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर के बाद (माऊली)के नाम से जाने जाने वाले, मातृहृदयी सानेगुरूजी का जन्म हुआ है।

गरीबी में शिक्षा का संघर्ष और संवेदनशीलता का उदय

शुरू के दिनों में भले ही आर्थिक स्थिति खाने - पीने के हिसाब से ठीक थी, लेकिन भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में कब किसकी स्थिति बिगड़ेगी, यह कोई नहीं जानता।

एक तरह से जुआ ही होता है उसी तरह से शिक्षा की व्यवस्था भी नहीं रहने के कारण, उन्हें प्राथमिक शिक्षा से हाईस्कूल तथा उच्च शिक्षा के लिए भी बहुत कष्टों से अपने एम ए तक की शिक्षा के लिए, बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी। इस कारण गरीबी, भूख तथा अभावग्रस्त परिस्थिति का सामना करते हुए, खुद के जीवन के अनुभवों से, गरीब तथा दबे-कुचले समाज के लिए स्वाभाविक रूप से नाता जुड़ा और जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय, उन्ंही तबके के लिए काम करने में गया।

शिक्षक से समाज सुधारक तक का सफर

हालांकि सानेगुरुजी अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद महाराष्ट्र के खान्देश जलगांव जिले के अंमलनेर नाम की जगह, प्रताप हाईस्कूल में शिक्षक की नौकरी के लिए खान्देश एज्युकेशन सोसायटी द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में आए थे। 17 जून 1924 के दिन शिक्षक के रूप में उन्होंने ज्वाइन किया।

लेकिन सिर्फ़ शिक्षक के काम के अलावा, संवेदनशील स्वभाव के कारण खान्देश के किसानों, और मिल मजदूर वर्ग के लोगों की समस्याओं को लेकर आर्थिक - सामाजिक सुधार करने के लिए, उन्होंने उनके संगठन खड़े किए और संघर्ष किया।

मुख्यतः धुलिया-जलगांव, अंमलनेर के प्रताप मिल के मजदूरों की यूनियन, और खान्देश के किसानों का संगठन खड़ा किया ! और उसके बलबूते पर उस समय उनकी उम्र 25 साल की थी और देश भर में स्वतंत्रता की लड़ाई जारी थी।

छह साल शिक्षक की नौकरी करने के बाद 21 अप्रैल 1930 के दिन सानेगुरुजी ने चुपचाप अपनी नौकरी से खुद ही गायब होकर देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में, शामिल होने का निर्णय लिया और अपने जीवन का पहला भाषण फैजपूर में दिया। जिस फैजपूर में छह साल बाद कांग्रेस का पहला ग्रामीण क्षेत्र में राष्ट्रीय सम्मेलन 1936 के दिसंबर में संपन्न हुआ। एक तरह से सानेगुरुजी के जीवन का यह मोड़ आने वाले, बीस साल तक अथक प्रयासों की दास्तान है।

आंतरभारती की कल्पना और त्रिचनापल्ली जेल के अनुभव

17 मई 1930 के दिन साने गुरु जी को अंग्रेज सरकार ने अमळनेर की सभा में भाषण देने के कारण राष्ट्र द्रोह के अपराध में पंद्रह महीनों की सजा सुनाई। और धुलिया की जेल में बंद कर दिया। लेकिन धुलिया के जेल में नौजवानों को भड़काने के आधार पर, उन्हें ढाई महीनों के भीतर ही दक्षिण भारत के उस समय के मद्रास प्रांत के त्रिचनापल्ली जेल में भेज दिया गया।

और यहीं त्रिचनापल्ली जेल में उन्होंने आंतरभारती की कल्पना की, क्योंकि वह जेल एक मिनी भारत ही था। तीन हजार कैदियों में लगभग भारत के सभी प्रदेश के कैदियों की भाषा और संस्कृति का परिचय गुरुजी को हुआ था। और वहाँ उन्होंने तमिल भाषा सीखने का प्रयास किया। और तमिल भाषा के संत कुरूवल्लूवर के प्रसिद्ध ग्रंथ 'कुरल' का मराठी अनुवाद किया।

साहित्य में योगदान: 'श्यामची आई' और अन्य रचनाएं

कुरल को तमिल भाषा का वेद माना जाता है। 'कुरल' का अर्थ दो चरण है। और 'कुरूवल्लूवर' में 1330 चरण है। इस तरह की महत्वपूर्ण साहित्य कृति का अनुवाद करने के अलावा, 'पत्री' नाम का काव्य संग्रह भी लिखा है। इस के अलावा गुरुजी ने चार नाटक त्रिचनापल्ली के जेल जीवन में लिखे हैं, और कुछ अंग्रेजी, फ्रेंच भाषा के साहित्यकारों के साहित्य का भी अनुवाद किया है। 23 मार्च 1931 के दिन सानेगुरुजी को त्रिचनापल्ली के जेल से रिहा कर दिया गया। और उसी दिन लाहौर जेल में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को रात में फांसी की सजा दी गई, तो गुरुजी ने अंमलनेर में उस सजा के खिलाफ सभा करते हुए अंग्रेज सरकार के इस कुकृत्य की भर्त्सना की है।

इसके बाद आचार्य विनोबा भावे के साथ खान्देश के दौरेम गुरु जी को जीवन में पहली बार साथ - साथ मिलकर घूमने का अवसर मिला था और उस कारण विनोबा जी के नजदीक जाने का भी। और विनोबा के व्यक्तित्व को देखते हुए उन्होंने उनका चरित्र भी लिखा है। और 1932 में फिर धुलिया के जेल में साथ-साथ रहने का मौका मिला।

और इसी जेल में विनोबा के 'गीता प्रवचनों' को, साने गुरू जी ने नोट्स लेने के कारण आज यह किताब की शक्ल में 'गीताई' के शीर्षक से उपलब्ध है। उस जेल में काफी भीड़ होने के कारण कुछ कैदियों को नासिक जेल में ले जाया गया, जिसमें गुरुजी भी थे। और इसी जेल में उन्होंने उनकी सबसे चर्चित और प्रसिद्ध किताब 'श्यामू की माँ' का लेखन 36 रातों में पूरा किया। यह उनका एक तरह से आत्मचरित्र ही है। और इसी किताब को पढ़कर महाराष्ट्र में एक पीढ़ी संस्कारित हुई है, और आज भी काफी लोगों को प्रेरित करने का काम करती है। शायद मराठी की सब से ज्यादा मात्रा में बिकने वाली किताब में'श्यामची आई' का समावेश होता है, और इसी कारण आचार्य अत्रे ने 'श्यामची आई' पर मराठी में सिनेमा तैयार किया है, और शायद मराठी फिल्मों में पहली फिल्म है, जिसे राष्ट्रीय स्तर का 'राष्ट्रपति सुवर्ण मयूर' पुरस्कार मिला है।

इसके पहले धुलिया जेल में ही उन्होंने रविंद्रनाथ टैगोर के 'साधना' और 'स्वदेशी समाज' इन दोनों किताबों का अनुवाद किया है। विश्व प्रसिद्ध रचनाओं का अनुवाद करके, मराठी भाषी लोगों के लिए साने गुरु जी ने बहुत बड़ा योगदान किया है। अपने खुद के कविता, निबंध, कथा, उपन्यास के अलावा, अन्य साहित्य के अनुवाद कार्य में साने गुरु जी के बराबर मराठी भाषी साहित्यकार दूसरा नहीं देखा।

राष्ट्र सेवा दल की स्थापना और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई

कुल मिलाकर 51 साल के जीवन में साहित्य, सार्वजनिक कार्य, तथा उनके सहवास में आये युवा पीढ़ी को संस्कारित करने के, उनके कार्यकाल को देखते हुए लगता है कि गुरुजी खुद ही एक स्कूल थे और उसी का परिणाम 4 जून 1941 को राष्ट्र सेवा दल की स्थापना की घटना हुई है, क्योंकि घोर सांप्रदायिकता के ऊपर खड़ा किए गए आरएसएस के साथ मुकाबले हेतु ही राष्ट्र सेवा दल की स्थापना की गई है।

कांग्रेस की स्थापना 1885 के बाद पहली बार कांग्रेस के अधिवेशन को किसी देहात में आयोजित करने का श्रेय साने गुरु जी को ही जाता है। खान्देश के जलगांव जिले के फैजपूर नाम के देहात में 1936 मतलब कांग्रेस की स्थापना के 51 साल बाद वह अर्धशताब्दी पूरी करने के बाद, अधिवेशन फैजपूर में साने गुरुजी के अथक प्रयासों से संपन्न हुआ, जिसके अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। जिसमें 'राष्ट्र सेवा संघ' नामक स्वयंसेवकों का अधिवेशन के लिए स्वयंसेवक संगठन का गठन करके अपनी अगुआई में सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रथम अधिवेशन संपन्न कराने के लिए, साने गुरु जी की मेहनत रंग लाई। और मुझे अभिमान है कि इस राष्ट्र सेवा संघ के स्वयंसेवकों में मेरे पिताजी भी थे।

कम्युनिस्ट पार्टी से मोहभंग और समाजवाद की ओर झुकाव

साने गुरु जी के जीवन का और महत्वपूर्ण पड़ाव है। जनवरी 1941 में धुलिया जेल में मधु लिमये बच्चों के वॉर्ड में बंद थे और उनकी और गुरु जी के साथ पहली बार आमने-सामने की भेंट हुई। उस समय मधु जी गिनकर अठारह साल के थे। और गुरुजी बयालीस पार कर चुके थे, मतलब एक पिता के उम्र के साने गुरुजी, बेटे की उम्र के मधु लिमये के साथ। धुलिया जेल में पहली मुलाकात में ही गुरु जी समझ जाते हैं कि यह लड़का वैचारिक रूप से बहुत ही परिपूर्ण है और खान्देश के मिल मजदूर और किसानों के आंदोलनों के कारण गुरुजी कम्युनिस्टों की सोहबत में रहने के कारण कम्युनिस्ट प्रभाव में थे, लेकिन दुसरे विश्वयुद्ध में कम्युनिस्ट पार्टी के ढुलमुल नीतियो के बारे में (पहले स्टालिन और हिटलर के बीच दूसरे महायुद्ध को लेकर युद्ध बंदी का समझौता हो चुका था और पोलैंड के बंटवारे की बात तय की गई थी, इसलिए उस युद्ध को शुरू में कम्युनिस्ट 'साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध' कह रहे थे, लेकिन उसके बावजूद हिटलर के सोवियत संघ पर हमला करने के बाद कम्युनिस्टों का रवैया बदल गया और वह 'लोकयुद्ध' बोलने लगे) और समाजवाद के ऊपर मधु लिमये के धुलिया जेल में उन्नीस भाषण हुए, और उन भाषणों की नोट्स साने गुरुजी ने लेने के कारण, कम्युनिस्ट प्रभाव वाले गुरुजी एक बेटे के उम्र के लड़के के प्रभाव में आकर शुद्ध सोशलिस्ट बने। और कम्युनिस्ट पार्टी के दूसरे महायुद्ध से लेकर, बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी विरोधी भूमिका के कारण सानेगुरुजी का कम्युनिस्ट पार्टी से पूरी तरह से मोहभंग हो गया। और वैचारिक रूप से मधु लिमये के प्रभाव में आने वाले समय में रहे हैं। गुरुजी मधूजी के बारे में बहुत ही स्नेह और आदर रखते थे। यहां तक कहा जाता है, कि अगर गुरुजी और मधु जी के 1950 में अच्छी तरह से मुलाकातें होती तो शायद गुरुजी ने आत्महत्या नहीं की होती।

और उसमें से आगे पांच सालों बाद, चार जून 1941 को राष्ट्र सेवा दल की स्थापना करने की बात, एस. एम. जोशी, एन. जी. गोरे, भाऊसाहेब रानडे, शिरूभाऊ लिमये, अण्णासाहेब सहस्रबुद्धे, इत्यादि समाजवादी लोगों के मन में आई, जिसे सानेगुरुजी अपना प्राणवायु कहा करते थे, और उसकी वजह आरएसएस के स्थापना के कारण सोलह साल बाद, बढ़ती हुई घोर सांप्रदायिकता और जातीयता के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए ही राष्ट्र सेवा दल का गठन किया गया है। यह बात मुझे बार- बार दोहराने की एकमात्र वजह हम राष्ट्र सेवा दल के देश भर के फैले हुए लोग यह भूल गए हैं।

क्योंकि 35 साल पहले अक्तुबर 1989, भागलपुर के दंगे के बाद मैंने यही बात राष्ट्र सेवा दल के अर्धशताब्दी के समय (1991) विस्तार से तत्कालीन पदाधिकारियों को लिखे पत्र में लिखा था, "कि आने वाले समय में कम-से-कम पचास साल तक भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिकता ही रहेगा।" इसलिए राष्ट्र सेवा दल के पचास साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आने वाले पचास साल की भारत की संसदीय राजनीति का केंद्र बिंदु सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक राजनीति के इर्द-गिर्द रहने वाली है। इसलिए राष्ट्र सेवा दल के अर्धशताब्दी के समारोह में तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति के. आर. नारायणन प्रमुख अतिथि के रूप में आने वाले थे, इसलिए मैंने अपने पत्र में आग्रह किया था कि "राष्ट्रपति के उपस्थिति में राष्ट्र सेवा दल को आने वाले कम-से-कम दस साल, सिर्फ सांप्रदायिकता के सवाल पर ही राष्ट्र सेवा दल के देश भर के कार्यकर्ताओं को शपथ दिलाई जानी चाहिए, कि 1991 से 2001 तक का एक दशक, हमारे कार्यकर्ता प्रमुख रूप से सांप्रदायिकता के सवाल पर काम करेंगे।" लेकिन मेरे पत्रों को जवाब तो दूर की बात है, मुझे एकनॉलेज तक नहीं मिला। यह पत्राचार गुजरात के दंगों के ग्यारह साल पहले का है और किसी नरेंद्र मोदी के राजनीतिक जीवन की शुरूआत होने के पहले का है।

साने गुरुजी की प्रेरणा देने वाली विरासत

पांडुरंग सदाशिव साने यानी साने गुरु जी अत्यंत संवेदनशील और कवि हृदय के साहित्यकारों में से एक रहे हैं। उन्होंने सिर्फ मनोरंजन के लिए ही साहित्य नहीं लिखा है। अगल - बगल के शोषण तथा विषमता तथा अन्याय, अत्याचार तथा घोर सांप्रदायिक - जातीयता के खिलाफ अपनी साहित्यिक रचना कथा, उपन्यास, कविता तथा उनके निबंध हैं। उदाहरण के लिए उनका लिखा हुआ, मेरा सबसे प्रिय गीत, जिसे मैं यूएनओ का गीत बनाने की इच्छा रखता हूँ, "सच्चा धर्म वहीं है जो दुनिया को प्रेम अर्पित करना चाहिए," ( खरा तो एकची धर्म जगाला प्रेम अर्पावे ! ) जैसा अर्थपूर्ण गीत संत ज्ञानेश्वर के "पसायदान की बराबरी करता है"।

इसी तरह 'शामू की माँ'नाम का उपन्यास, आत्मचरित्रात्मक लेखन, वैश्विक कलाकृति में शुमार होता है और जिसे पढ़कर महाराष्ट्र की कितनी पीढियों को संस्कारित करने का श्रेय साने गुरु जी को जाता है। कम-से-कम हमारे जैसे लोगों को संस्कारित करने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है।

'शामू की माँ' पर मराठी के मशहूर साहित्यकार और संपादक आचार्य अत्रे जी ने फिल्म भी बनाई है, और प्रथम बार किसी मराठी फिल्म को राष्ट्रपति के स्वर्ण मयूर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उसी तरह भारतीय संस्कृति नाम की किताब, भारत की गंगा - जमुनी संस्कृति के महत्व को रेखांकित करते हुए, भारत की बहुआयामी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए, भारतीय संस्कृति यह किताब भारत की सभी भाषाओं में अनुवाद करने की आवश्यकता है।

और इसी कड़ी में उन्होंने आंतरभारती की कल्पना अपने मृत्यु के पहले लिखी है, जिसमें भारत जैसे बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक देश के लोगों को अपनी भाषा के अलावा अन्य प्रदेश की भी भाषा सीखने की कोशिश करनी चाहिए, और एक दूसरे की संस्कृति को जानने - समझने के लिए एक दूसरे प्रदेश में जाकर वहां के खान - पान, त्योहारों से लेकर साहित्य कला तथा भाषाएं भी सीखनी चाहिए। अन्यथा आजादी के बाद भी हमारे देश में आपस में ही मेलजोल नहीं होगा, तो विश्व के विभिन्न देशों से क्या होगा ?

सानेगुरुजी जैसे संवेदनशील लोग दुनिया में कभी-कभी ही पैदा होते हैं। हमारे देश में कविगुरू रविंद्रनाथ टैगोर , महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे,संत ज्ञानेश्वर - तुकाराम, संत कबीर नानकदेव, बश्वेशर जी, महात्मा फुले, डॉ. राम मनोहर लोहिया, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, आचार्य जावड़ेकर, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण की कड़ी में साने गुरु जी का नाम आता है।

कुल मिलाकर इक्यावन साल और पांच महीने और अठारह दिन के जीवन में, महाराष्ट्र में एक पीढ़ी अपने खुद के सामने स्वतंत्रता, जनतंत्र, समता और सर्व धर्म समभाव के मूल्यों के ऊपर, समाज बनाने के लिये उन्होंने तैयार की है। और उसके बाद भी, वह सिलसिला जारी है। हम राष्ट्र सेवा दल के सैनिकों का भले ही साने गुरु जी के 11 जून 1950 मृतुयू के बाद जन्म हुआ होगा, और हमें उन्हें देखने और सुनने का मौका नहीं मिलने के बावजूद उनके साहित्य और उनके सहवास में रहे मेरे पिताजी से लेकर, एस. एम. जोशी, एन. जी. गोरे, बैरिस्टर नाथ पै, मधु लिमये, प्रोफेसर मधू दंडवते, प्रोफेसर ग. प्र. प्रधान, यदुनाथ थत्ते, कवी वसंत बापट जैसे हमारे सार्वजनिक जीवन के पिता समान लोगों से जो भी सुना, पढ़ा उससे हम राष्ट्र सेवा दल के सैनिकों का व्यक्तित्व बनने में बहुत मदद हुई है।

साने गुरु जी का जन्म भले ही कोंकण में हुआ था और उनकी प्राथमिक शिक्षा कोंकण और महाविद्यालय की शिक्षा मुंबई तथा पुणे में हुई थी, लेकिन उन्हें अपने शिक्षक की नौकरी के कारण महाराष्ट्र के खान्देश नाम के आंमलनेर के प्रताप हाई स्कूल मे शिक्षक की नौकरी और (धुले, जलगांव और नासिक) विभाग में अपना कार्यक्षेत्र, उनके सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कामों के लिए, उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय खान्देश के क्षेत्र में रहा है, लगभग आधा जीवन।

प्रताप हाईस्कूल का छात्रावास भी था, तो साने गुरु जी को छात्रावास के अधीक्षक की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी सौंपी गई थी, जिस कारण साने गुरु जी के भीतर का मातृ हृदय प्रकट होकर, छात्रों को माँ के जैसा प्रेम और उनके बीमारी के समय जो सेवा सानेगुरुजी ने की है, उसी के चलते उन्हें मातृ हृदयी या माऊली (माँ) भी कहा जाता है और इस तरह की सेवा का लाभ लिए विद्यार्थियों में से कुछ महाराष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में आये मधुकर राव चौधरी, शिवाजी राव पाटील उनके बड़े भाई उत्तमराव पाटील, प्रकाश मोहाडीकर इत्यादि लोगों ने अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें मातृ हृदयी कहा है।

साने गुरु जी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और आखिरी कार्य, पंढरपूर के विठ्ठल मंदिर में हरिजन प्रवेश के लिए किया गया उपवास है। इसके पहले डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी ने नासिक के काला राम मंदिर के एक मार्च 1930 के दिन छ साल तक मंदिर प्रवेश करने के लिए सत्याग्रह किया था, और उसके प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने उसी साल येवला तालुका, जो नासिक जिले में ही आता है, अपनी इतिहास प्रसिद्ध घोषणा की थी कि "मैं हिन्दू धर्म में पैदा जरूर हुआ हूँ, लेकिन मैं मरने के पहले हिंदू धर्म का त्याग अवश्य करूंगा।" लेकिन हिंदू धर्म के अंतर्गत कर्मठ लोगों के ऊंच नीच भेद-भाव के कारण बीस साल पश्चात डॉ. बाबा साहब अंबेडकर जी को अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में 1956 के 14 अक्तुबर दशहरे के दिन बौद्ध धर्म की दीक्षा लेनी पड़ी, और हजारों सालों से यही सिलसिला जारी है।

क्योंकि मंदिर की मूर्ति पर आराम से कुत्ते - बिल्ली चढ़ - उतर सकते हैं, लेकिन अस्पृश्य समाज के लोग उस मूर्ति का दर्शन कर नहीं सकते। और इसी कुप्रथाओं के कारण आज के ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम, क्रिश्चियन तथा हिंदू धर्म छोड़कर गए हैं और यह बात शिकागो जाने के पहले दक्षिण भारत के प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद जी ने भी अपने भाषणों में कही है कि "भारत में क्रिश्चियन या इस्लाम धर्म का आगमन हमारे जाति-व्यवस्था के कंधों पर बैठकर ही हुआ है," लेकिन इसके बावजूद तथाकथित हिंदुत्ववादी लोगों का गुस्सा, अल्पसंख्यक समुदाय पर होने के मुख्य कारणों से यह भी एक कारण है।

इस बात पर सोच विचार करना तो दूर, उल्टा आज भी उत्तराखंड जिसका दूसरा नाम देवभूमि भी है, में दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं है, और उसी उत्तराखंड के हरिद्वार के धर्म संसद 17, 18,19 दिसंबर यानी आज से एक सप्ताह पहले ही संपन्न हुई, जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ जो जहरीले भाषणों की झड़ी लगाई गई है, उसके पीछे के कारण देखा जाए तो, हजारों साल पहले दलितों ने जो हिंदू धर्म की घृणित जाति व्यवस्था के खिलाफ बगावत की है। उसके खिलाफ गुस्सा जाहिर हो रहा है, लेकिन किसी भी वक्ता के मुंह से हिंदू धर्म की ऊंच नीच और उत्तराखंड के मंदिर दलितों के लिए खोलने की बात नहीं आई। उल्टा उन्हीं के पूर्वजों ने इसी जाति प्रथा से तंग आकर दूसरे धर्म को अपनाया। क्योंकि उन्हें मस्जिद, गिरजाघरों में बराबर का प्रवेश मिला है। डॉ राम मनोहर लोहिया की भाषा में "हिंदू धर्म की कट्टरपंथी और उदारपंथ की पांच हजार वर्ष पुरानी लड़ाई है, जो आज चरम सीमा पर हमारे देश में चल रही है।" हरिद्वार की धर्मसभा या कर्नाटक या देश के अन्य क्षेत्रों में अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों के ऊपर हो रहे हमलों के उदाहरणों से पता चलता है कि यह घृणा उसी बात को दर्शाती हैं।

सवाल देश और प्रदेश की सरकारों की अकर्मण्यता का है। यह वही सरकारें हैं, जिन्होंने दलितों तथा आदिवासी और महिलाओं के साथ हुई अत्याचारों की घटनाएं हुईं तो, उन्हें दबाने - मिटाने के लिए क्या - क्या नहीं किया ? यहां तक कि जांच तथा घटना के बारे में जानकारी लेने के लिए, जाने वाले लोगों को देशद्रोह के कानून में जेलों में बंद कर दिया है। और देश के भीतर गृहयुद्ध जैसे संगीन भाषणों को देखते हुए कोई भी,कोई कार्यवाही नहीं करना किस बात का प्रमाण है ?

और प्रधानमंत्री, गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठे हुए लोगों की चुप्पी, अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देने की बात है। एक तरह से अघोषित हिंदू राष्ट्र की तरफ इशारा करते हुए, उन्होंने भारत की बहुआयामी संस्कृति को मिटाने की शुरुआत कर दी है। सानेगुरुजी की 125 वीं जयंती के अवसर पर यह सब देखकर और भी हैरान करने वाली बात है।

1932 के ऐतिहासिक पूना पैक्ट के बाद, महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हुई हरिजन यात्रा के दौरान, संपूर्ण देश में हजारों की संख्या में मंदिरों के कपाट हरिजनों के लिए खोले गए थे, लेकिन कुछ मंदिरों में आज भी हरिजनों को प्रवेश नहीं है। यह बात साने गुरूजी जैसे संवेदनशील लोगों को बहुत अखरती थी, और महाराष्ट्र - कर्नाटक के सबसे लोकप्रिय मंदिर पंढरपुर के विठ्ठल मंदिर में हरिजनों को प्रवेश नही था। देश की स्वतंत्रता नजर के सामने आ रही थी, लेकिन हरिजनों के लिए विषमतावादी मानसिकता के कुछ लोगों के कारण प्रवेश वर्जित था। इसलिये साने गुरु जी ने 1946 के नवम्बर माह में समस्त महाराष्ट्र का ध्यान आकर्षित करने वाली घोषणा कर दी, कि जबतक पंढरपुर के मंदिर में हरिजनों को प्रवेश नहीं दिया जाता तब तक आमरण अनशन जारी रहेगा।

इस खबर से संपूर्ण महाराष्ट्र में जबरदस्त हलचल मच गई। यह घोषणा जब गुरूजी अपने भाई के घर पर मुंबई के नजदीक एक समुद्री किनारे स्थित गांव बोर्डी में विश्राम करने के लिए गए थे, उस समय की तो, एस. एम. जोशी , मधु लिमये, सेनापती बापट, अच्युतराव पटवर्धन और शिरूभाऊ लिमये यह पांच लोग तुरंत बोर्डी गए, और उन्होंने गुरुजी को समझाने की कोशिश की, कि इस तरह अचानक अनशन मत करो संपूर्ण महाराष्ट्र मे जनजागृति करने के बाद ही अनशन कीजिये। और इस तरह छह महीनों के प्रचार-प्रसार के बाद ही अनशन करने का निर्णय लिया गया।

इन छ महीनों में राष्ट्र सेवा दल के कलापथक द्वारा संपूर्ण महाराष्ट्र में, तथा अन्य लोगों की तरफ से मंदिर प्रवेश के आंदोलन का काफी जोर-शोर से प्रचार किया गया, लेकिन मंदिर के बडवे (पंडे) लोगों ने पासा फेंका कि, अगर महाराष्ट्र का लोकमत मंदिर प्रवेश के तरफ से होगा तो मंदिर हरिजनों के लिए खोला जायेगा।

लेकिन यह बडवे लोगों की एक राजनीतिक चालाकी थी, तो छह महीनों के बाद एक मई 1948 के दिन साने गुरुजी और सेनापती बापटने पंढरपूर में जाकर तनपुरे महाराज के मठ में आमरण अनशन शुरू किया।

और इस बीच काफी सारे घटनाक्रम हुए, जिसमें महात्मा गाँधी के तारों से लेकर आचार्य विनोबा भावे के पत्राचार के बावजूद, गुरूजी का दस दिनों के उपवास के बाद, मंदिर के बडवे मंदिर के दरवाजे हरिजनों के लिए खोलने के लिये राजी हुए। 10 मई 1948 की रात साने गुरूजी ने 8-35 को अनशन की समाप्ति की। यह साने गुरुजी के जीवन की अंतिम समय की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी, क्योंकि भारत की स्वतंत्रता की सिर्फ़ कुछ औपचारिकताएं बाकी थीं।

सवाल था आजादी के बाद भारत जाति-धर्म निरपेक्ष समता मूलक जनतंत्र कैसे बनेगा ? और पंढरपुर के मंदिर प्रवेश की लड़ाई उन्होंने उसी के अनुसार लड़ी।

लेकिन साल भर के भीतर ही उन्हें निराशा ने घेर लिया, कि भारत आजादी के बाद भी जो आदिवासी जंगल के बीच बाघों से नहीं डरता, लेकिन पुलिस या फॉरेस्ट के गार्ड से डरता है। और वह अन्य समस्याओं को लेकर दुखी हो गये थे। सबसे ज्यादा महात्मा गाँधी की हत्या के कारण 11 जून 1950 के दिन उन्होंने इस दुनिया से विदा होने का निर्णय लिया।

शायद साने गुरूजी, जयप्रकाश नारायण जैसे संवेदनशील लोग जो देश - दुनिया के सवाल पर इतने संवेदनशील होते थे कि, लाखों की जनसंख्या वाले सार्वजनिक सभाओं में रोते थे, जो कि जेपी भले विवाहित थे, लेकिन जीवन भर प्रभावती जी के साथ रहकर भी ब्रह्मचर्य का पालन किया, और साने गुरु जी तो आजन्म अविवाहित रहे। इसलिये दोनों के पारिवारिक जीवन की समस्या नहीं थी, लेकिन दोनों लोगों की समस्याओं के साथ इतने घुल मिल गये थे कि वह समस्याओं को अपनी निजी समस्या समझ कर उससे दुखी हो जाते थे और भरी सभा में अपने आंसुओं को रोक नहीं पाते थे। जिस तरह पिछले तीन साल पहले के किसानों के नेता श्री राकेश टिकैत के आंसुओं ने लगभग खत्म हो रहे किसानों के आंदोलन में जान फूंकी थी, यह आंसुओं के परिणाम का सब से ताजा उदाहरण है।

और साने गुरूजी जैसे अति संवेदनशील लोग इन समस्याओं से संबंधित भावनिक एकाग्रता होने के कारण, स्वतंत्रता के तीन साल होने आए, तो भी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, और पुलिस के अन्याय - अत्याचारों को देखकर, बहुत ही बेचैन होकर अपने आप को इस दुनिया से विदा होने का निर्णय ले लिया।

ऐसे लोगों की तुलना में हमारी-आपकी संवेदनाएं बहुत थोथी होती हैं, इस कारण हम लोग आराम से अपना जीवन जीने के आदी हो जाते हैं। साने गुरूजी के जैसे लोग दुनिया में बहुत बिरले होते हैं। देश - दुनिया की स्थिति को देखते हुए, कुल मिलाकर अपने जीवन की अर्धशताब्दी पूरी करने के बाद उन्होंने दुनिया से 11 जून 1950 के दिन चले जाना पसंद किया। आज गुरुजी को हमारे बीच से सशरीर चले जाने को 75 साल होने जा रहे हैं, और जन्म के 125 साल। इस दरम्यान गत 30 - 35 सालों से सांप्रदायिक शक्तियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, अभी पूरे विश्व में ख्रीस्त के जन्मदिन के अवसर पर मैरी ख्रिसमस मनाया जा रहा है, लेकिन भारत में गत दो महीनों से लगातार चर्च तथा प्रार्थना स्थलों पर हिंदुत्ववादी लोग हमले कर रहे हैं। इसके बीस साल पहले भी गुजरात में राज्य पुरस्कृत घृणा की राजनीति का दर्शन हुआ है।

पहले ख्रिश्चन धर्म के लोगों पर, और बाद में 27 फरवरी 2002 के गोधरा कांड के बाद हजारों की संख्या में अल्पसंख्यक जातियों के लोगों की हत्या, तथा उनके जीवन यापन के संसाधनों को एक पूर्वनियोजित योजना के तहत नष्ट करने का प्रोग्राम, स्वतंत्रता के बाद पहली बार किसी सत्ताधारी दल द्वारा किया जाता है। और वही व्यक्ति उस हिंसा की राजनीति करके ही देश के सर्वोच्च पद पर बैठता है। यह भारत के जनतंत्र की सब से बड़ी खामी के रूप में, इतिहास में दर्ज होने वाली दुर्घटनाओं में से एक है, और सौ साल पहले के योरोपीय खंड के जर्मनी और इटली के हिटलर और मुसोलिनी भी तथाकथित लोकतंत्र के द्वारा ही चुनाव जीत कर दूसरे महायुद्ध में समस्त विश्व की छाती पर मूंग दले हैं, इसलिए चुनाव से जीत हासिल कर के सत्ता पर काबिज होना एकमात्र पैमाना नहीं हो सकता है।

आजादी के बाद के मूल्यों, तथा साने गुरु जी जैसे संवेदनशील लोगों की सब से बड़ी पराजय है, और सचमुच ही हम साने गुरु जी के सपनों को पूरा करने के लिए कोशिश करने वाले सभी लोगों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। और मैं गत पैंतीस सालों से भी ज्यादा समय से इस संकट के बारे में लगातार लिख - बोल रहा हूँ। लेकिन हमारे साथियों को समझाने में मैं अभी तक कामयाब नहीं हो पाया हूँ, अब कोई भारत जोड़ो तो कोई नफरत छोड़ो जैसे सांकेतिक काम कर रहे हैं, लेकिन सांप्रदायिकता तथा जाति-धर्म का द्वेष का प्रचार-प्रसार एक संगठन गत सौ साल से लगातार कर रहा है, और जिसके परिणामस्वरूप आज इतिहास के क्रम में इतनी सांप्रदायिकता नहीं थी, जितनी आज फैल चुकी है। साने गुरूजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि उन्होंने जिन कारणों से अपने आपको इस दुनिया से विदा कर लिया था, उसे बेहतर बनाने के लिए हम सभी साथियों को अपने आपको झोंक देना चाहिए। अन्यथा हम यह लिखने - बोलने की स्थिति में भी रहेंगे कि नहीं मुझे शंका है। और सबसे बड़ी जिम्मेदारी राष्ट्र सेवा दल के देश भर के साथियों की है, जिसे साने गुरु जी अपना प्राण वायु कहा करते थे।

डॉ. सुरेश खैरनार,

पूर्व अध्यक्ष राष्ट्र सेवा दल,

22 दिसंबर 2024 नागपुर.

Web Title: 125th birth anniversary of Sane Guruji