हिन्‍दी में चौर्य-लेखन, यानी दूसरे की रचनाओं को पूरा या अधूरा चुरा लेने के कलंक का ठप्‍पा बड़े-बड़ों के कपाल पर लग चुका है। ताजा उदाहरण गणमान्‍य प्रगतिशील कवि राजेश जोशी का है।

राजेश जोशी ने हिन्‍दी के एक कम चर्चित लेकिन मेधावी कहानीकार, जनवादी गीतकार और लोकगीतों के श्रमशील संकलनकर्ता शिवशंकर मिश्र की 'पखावज-वृत्‍तांत' नामक एक पुरानी कहानी को लगभग पूरी तरह से चुराकर 'पखावज-वृत्‍तांत' नाम से एक कविता लिख मारी जो 'आलोचना' - 51 (वर्ष 2013) में प्रकाशित हो चुकी है। इस कविता के नीचे बस इतना लिख दिया गया है: "शिवशंकर मिश्र द्वारा प्रस्‍तुत एक अवधी लोककथा पर आधारित।"

सच्‍चाई यह है कि शिवशंकर मिश्र की कहानी 1983 में 'अभिप्राय' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, जब वह इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में एम.ए.(हिन्‍दी) के छात्र थे।

'पखावज-वृत्‍तांत' कहानी लोककथा नहीं थी, बल्कि लोककथा की शैली में लिखी गयी मौलिक कहानी थी। शिवशंकर मिश्र की मौलिक कहानी को राजेश जोशी ने लोककथा बना दिया और उसके आधार पर जो "मौलिक" कविता लिख डाली, उसमें कथ्‍य ही नहीं, शब्‍द संयोजन तक कहानी से उड़ा लिया, सिर्फ अनुच्‍छेद-क्रम में कुछ बदलाव किये।

आपत्ति उठाये जाने पर राजेश जोशी ने सिर्फ एक फोन करके शिवशंकर मिश्र से खेद प्रकट कर दिया। ईमानदारी का तकाज़ा यह था कि वह अपनी कविता तत्‍क्षण क्षमा-याचना सहित वापस लेते, लेकिन उन्‍होंने ऐसा कुछ नहीं किया और चुप्‍पी साध गये।

शिवशंकर मिश्र ने नामवर सिंह को पत्र लिखकर 'आलोचना' के आगामी अंक में अपनी कहानी 'पखावज-वृत्‍तांत' राजेश जोशी के खेद प्रकाश सहित छापने का आग्रह किया,पर सम्‍पादक द्वय (नामवर सिंह और अरुण कमल) ने उनके इस आग्रह को कोई तवज्‍जो नहीं दी।

ह घटना हिन्‍दी साहित्‍य और विशेषकर उसके वामपंथी हलकों में व्‍याप्‍त घटिया अवसरवाद का ही एक उदाहरण है!

इस पूरे प्रसंग पर नामवर सिंह और अरुण कमल ही नहीं, हिन्‍दी के तमाम वामपंथी लब्‍धप्रतिष्‍ठ कवि-लेखक गण चुप क्‍यों हैं? क्‍योंकि सभी हमप्‍याला-हमनिवाला मौक़ापरस्‍त हैं, सभी ऐसे मामलों में एक दूसरे के मौसेरे भाई हैं। सबको अपने रिश्‍तों और पद-पीठ-पुरस्‍कार-शोधवृत्ति आदि के जोड़-जुगाड़ का देखकर चलना है। मौक़ा मिलने पर जुगाड़ भिड़ाकर अकादमी पुरस्‍कार लपक लेने, किसी सरकारी संस्‍कृति अकादमी का अध्‍यक्ष बन बैठने, म.गा.हि.वि.वि., वर्धा और उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान, शिमला जाकर मज़े लूट आने या साहित्यिक पुरस्‍कार लेने मास्‍को या लंदन (आजकल यह चलन भी जोरों पर है) चले जाने में किसी को कोई दिक्‍कत नहीं है। सभी जुगाड़ू आपस में उखाड़-पछाड़ न करें, परस्‍पर पारी बाँधकर, तालमेल करके और आपसी सहयोग से पुरस्‍कार-सम्‍मान-पद लेते रहें, इसी में सभी का हित है। हम्‍माम में सभी नंगे हैं, फिर एक नंगे को दूसरा नंगा 'नंगा' भला कैसे कहे और क्‍यों कहे?

इसीलिए नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, उदय प्रकाश, लीलाधर जुगाड़ी, आलोकधन्‍वा आदि-आदि... — इन सभी के अवसरवाद और वैचारिक पतन पर वाम दायरे में कभी भी किसी ने कुछ नहीं कहा। अक्‍सर चुप्‍पी भी एक निहायत शातिराना अवसरवाद होती है और धूर्ततापूर्ण षड्यंत्र भी। जाहिर है, साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार-सहित कई पुरस्‍कार प्राप्‍त राजेश जोशी के साहित्यिक चौर्य-कर्म पर भी कोई बड़े नाम वाला कुछ नहीं बोलेगा। इस मामले में, 'जो है नामवाला, वही तो बदनाम है।'

कुछ चालाक लोग भी ऐसे हैं, जो निजी बात-चीत में तो बहुतेरों की कलई खोलते रहते हैं, पर सार्वजनिक तौर पर कोई स्‍टैण्‍ड नहीं लेते। कारण यह है कि खोलने पर इन सबकी आलमारियों से कंकाल निकलेंगे।

बहुत सारे नामी कवि हैं, जो विदेशी भाषा की कविताओं से बिम्‍ब, रूपक या आइडिया टीपते रहते हैं। कभी-कभार ही पकड़ाते हैं।

एक मुल्‍लाजी रोज़े के दौरान तालाब में नहाते हुए डुबकी मारते समय चोरी से दो-चार घूँट पानी पी लेते थे। एक बार हलक़ में एक मछली फँस गयी और मुल्‍लाजी की चोरी धर ली गयी। लेकिन जनवादी साहित्‍य का कोई एक मुल्‍ला पकड़ाता है तो तालाब किनारे बैठे दूसरे सभी मुल्‍ले उसे यह कहकर बचाते हैं कि दरअसल मुल्‍लाजी पानी नहीं पी रहे थे बल्कि डुबकी लेते समय उन्‍हें छींक आ गयी थी और मछली उनके मुँह में घुस गयी थी। क्‍योंकि ये सभी मुल्‍ले रोज़े के दौरान चोरी से पानी पीते हैं और कुछ तो चोरी से दो-चार लुक्‍मे भी तोड़कर हलक़ के नीचे उतार लेते हैं और डकार तक नहीं लेते।

ये छद्म प्रगतिशील और पाखण्‍डी जनवादी साहित्‍यकार जितने कुकर्मी कैरियरवादी हैं, जनता भला इनसे घृणा क्‍यों न करे? ये सभी किसी माफिया गिरोह के समान 'जेनुइन' लोगों के खिलाफ एकजुट हैं और तरह-तरह के रैकेट चलाते हुए एक-दूसरे को लाभ पहुँचाते रहते हैं।

मठाधीशों की उपेक्षा के शिकार रहे हैं शिवशंकर मिश्र

शिवशंकर मिश्र उन प्रतिभाशाली कथाकारों में से एक हैं जिनकी साहित्यिक आलोचना की दुनिया में हदबंदी-चकबंदी करने वाले लेखपालों और गोल-गोलैती करते रहने वाले मठाधीशों ने काफी उपेक्षा की है।

किसी महामहिम का झोला न ढो पाने और चरण-चम्‍पी नहीं कर पाने के कारण, वह इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से एम.ए. और बी.एच.यू. से पी-एच.डी. करने के बाद पिछले बीस वर्षों से औरैया (उ.प्र.) के सराय अजीतमल के जनता महाविद्यालय में प्राध्‍यापक हैं, जबकि जोड़-तोड़ में माहिर उनके साथ के मीडियॉकर भी बड़े-बडे़ विश्‍वविद्यालयों में प्रोफेसर पद पर शोभायमान हैं।

किसी ने बताया था कि उनका शोध हिन्‍दी साहित्‍य पर नक्‍सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव पर केन्द्रित था। जहाँ तक मुझे पता है, वह अभी तक अप्रकाशित ही है।

कहानियाँ और गीत वह इलाहाबाद में छात्र जीवन के समय से ही लिखते रहे हैं। 'पखावज-वृत्‍तांत' कहानी 1983 में छपी थी। पत्रिकाओं में उनकी कई कहानियाँ छप चुकी हैं, लेकिन कहानी संग्रह अभी तक नहीं छपा। 'मूरतें', 'बाबा की उधन्‍नी', 'अंतिम उच्‍चारण' जैसी उनकी कहानियाँ अपने कथ्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से निश्‍चय ही उल्‍लेखनीय की श्रेणी में रखी जा सकती हैं। ग्रामीण जीवन के बहुपरती परिवर्तनशील यथार्थ पर उनकी पकड़ सूक्ष्‍मग्राही है।

एक सिद्धहस्‍त कथाकार और गीतकार होने के साथ ही शिवशंकर जी एक मँजे हुए अभिनेता भी रहे हैं। वाराणसी में जब वह शोध छात्र थे, तो मालवीय भवन में मंचित एक नाटक में उनके द्वारा निभायी गयी भारतेन्‍दु की भूमिका की चर्चा उस समय के लोग आज भी याद करते हैं। हम तो

शिवशंकर मिश्र से यही कहेंगे कि हिन्‍दी साहित्‍य की सुअरबाड़े जैसी गंद से भरी राजनीति से निर्लिप्‍त रहकर उन्‍हें अपना लेखन जारी रखना चाहिए। कृतियों पर ऐतिहासिक न्‍याय-निर्णय कुटिल दंदफंदी और बौने कूपमण्‍डूक नहीं देते, बल्कि इतिहास देता है और सजग पाठकों की उत्‍तरवर्ती पीढ़ि‍याँ देती हैं। हाँ, रंगे हाथों पकड़े जाने वाले साहित्यिक चोरों को सबक ज़रूर सिखाना चाहिए, चाहे क़ानून का सहारा ही क्‍यों न लेना पड़े!

कविता कृष्‍णपल्‍लवी