#साहित्य की भाषा और #सियासत
#साहित्य की भाषा और #सियासत

क्या भाषा और साहित्य अलग हैं? भाषा और साहित्य में क्या अंतर है?
भाषा और साहित्य कतई अलग नहीं हैं. आप जैसा जियेंगे वैसा ही सोचेंगे. वैसा ही लिखेंगे. हां एक बहुसंख्य समाज को हर मुल्क में एक भाषा लिखने पढने और बोलने के लिए दे दी गई है. यह सियासत की भाषिक राजनीति है. लोक की भाषा में लोकसाहित्य लिखा जाता रहा है, बोला जाता रहा है।
सियासत से पूछो उसकी भाषा क्या है?
वो तो हर स्थानीय भाषा में अपने सांस्कृतिक राजनीतिक विचार परोसता है. फिर जनता पर एक भाषा का ही वर्चस्व क्यों? यही साहित्य में घुसे राजनीतिक विचारकों की भाषिक राजनीति है.
हम तो अपने दादा काका नाना से ये भी नहीं सीख सके कि वे की भाषा में पूरी जिन्दगी जीते रहे. हमें तो सियासत की सौंपी भाषा में ही जीना पड़ा.
यही साहित्य में हुआ है. साहित्य राजनीति से अछूता है, जो लोग यह मानते हैं उन्हें मालूम है कि जनता सियासत के रंग-ढंग और चालें नहीं पहचान पाएगी. मगर जागरूक लोगों ने इस साजिश को बेनाकाब किया है.
जनता का साहित्य जनता की ही जबान में रचा गया है. जिसे साहित्य में सियासी परम्परा की भाषा की राजनीतिक सोच वाले लोग जनसाहित्य के आड़े आते रहे. इसीलिए बर्षों तक दलित विमर्श का साहित्य सत्ता के और साहित्य के केंद्र में नहीं आया. स्त्री विमर्श का साहित्य भी इसी वजह से बहुत समय तक अछूता रहा. आदिवासी साहित्य तो आदिम बोलियों में खूब लिखा गया. मगर वह साहित्य के केंद्र में नहीं आया. क्यों? क्योंकि सियासत लोकसाहित्य को तरजीह नहीं देती.
कारण साफ़ है लोक -साहित्य में उनका सच है जो सियासी राजनीति के दुःख और यातनाएं झेल रहे हैं. १९९० के बाद कुछ कुछ चीजें साहित्य के भीतर घुसपैठ करने में सफल हुई हैं. कारण यहाँ भी साफ़ थे सियासत की जरूरत के हिसाब से ही साहित्य ने भी वर्ग और समाज से मूल्य और मान्यताएं मानी हैं.
सियासत बिना साहित्य के नहीं चल सकती. क्योंकि समाज में सियासी मूल्य और मान्यताएं साहित्य के जरिये ही बोये जाते हैं. और सियासी जरूरत पर ही पुराने मूल्यों में बदलाव किये जाते हैं. जिन्हें साहित्य ही पुनः ढोता है. सियासत का साहित्य के लिए यकीनन महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
अनिल पुष्कर


