संजीव ‘मजदूर’ झा

घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल

याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल.

कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज ?

कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज?

चाहिए किसको नहीं सहयोग?

बिहार में मनाए जाने वाले छठ पर्व पर मैत्रेयी पुष्पा जी द्वारा कसा गया तंज जिसमें उन्होंने नाक तक सिंदूर पोतने की चर्चा की है, पर खासा चिंतन-मनन किया जा रहा है. इस चिंतन की खास उपलब्धि यह है कि एक बड़ी संख्या में लोग इसमें शामिल हो रहे हैं. इस विषय पर किए जा रहे विचार-विमर्श में काफ़ी दिलचस्प मुकाबला देखा जा सकता है.

हम जैसे लोग स्त्रीवाद (मैत्रेयी जी और उनके समर्थकों के स्त्रीवाद) के द्वार पर इस टकटकी के साथ नज़र गड़ाए हुए हैं कि जब जगदीश्वर चतुर्वेदी जी को अप्रगतिशील और मार्क्सवादियों को कुंठित साबित कर दरवाजा खुलेगा तब हम सिंदूर के ऐतिहासिक और छठ के साम्राज्यवादी स्वरुप की व्याख्या देख-सुन पाएंगे. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.

इस तरह के स्त्रीवाद का यह एक आयुर्वेदिक संस्करण है. यह ठीक वैसे ही है जैसा कि आयुर्वेद के त्रिलोकी व्याख्या से रीझे हुए लोग जब उस घोल के बारे में जानना चाहते हैं जिसके एक ख़ुराक से बड़ी-बड़ी बीमारियों को हवा कर देने की घोषणाएं हो चुकी होती हैं. तब उस ख़ुराक को बनाने का नियम कुछ इस प्रकार से बताया जाता है:-

“ असली हाथी दांत को तवे पर भूनकर भस्म बनाएं फिर रसौत लेकर पत्थर के सिल पर बकरी के दूध से घिसकर लई बनावें. समभाग हाथी दांत का भस्म मिलाएं. घीक्वार का रस निकालकर मंजीठ, बायबिडंग, खदिर, खरेटी, लोध्र, जटामांसी का चूर्ण बनाकर अर्जुन वृक्ष के छाल के साथ सेवन करें.

सेवन करने का सही वक़्त तब है जब पूरब से पश्चिम की ओर चलने वाली हवा का दबाव उत्तर में कम हो और दक्षिण में अधिक हो, तब सेवन करें, लाभ जरूर मिलेगा.”

भला ऐसी स्थिति में औषधि तैयार कैसे हो और फ़िर उसका सेवन कैसे होगा?

समस्या यह है कि हम जिन मुद्दों पर बहस करते हैं या करना चाहते हैं उसके लिए हमारी तैयारी और तरीके क्या होने चाहिए, इसपर हमने शायद विचार करना छोड़ दिया है.

ऐसा नहीं है कि प्रतीकों का संबंध हमारे समाज के पुरुष-वर्चस्व से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. जरुर देखा जाना चाहिए लेकिन उसे संदर्भों से काटकर नहीं देखा जा सकता है. हम मार्क्सवादी या स्त्रीवादी अक्सर त्योहारों का विरोध उसकी मान्यताओं के आधार पर करते हैं. लेकिन ऐसा कौन सा देश है जो उत्सव नहीं मनाता है? और ऐसा कौन सा उत्सव है जिसका संबंध धर्म या परंपरा से संबंधित नहीं है? व्याख्या के इस अति उत्साही स्वरुप के कारण ही हम रामविलास शर्मा जैसे मार्क्सवादी आलोचकों पर भी कीचड़ उछालने से नहीं चूकते. धार्मिक लोग असहिष्णु होंगे, ऐसी मान्यताएं भी रूढ़ हैं. इस बात को समझने के लिए गाँधी के सनातनी ‘हिन्दू’ और हिंदूवादी संगठनों के ‘हिन्दू’ में हमें फ़र्क करना पड़ेगा.

बिहार के जो हिंदू छठ मनाते हैं वे कितने सिर्फ़ हिंदू हैं और कितने हिन्दुत्ववादी इसको जानना भी जरूरी है.

छठ-पर्व पर बात करने से पूर्व उसकी संरचना को समझना भी जरुरी है. छठ के त्यौहार में एक बड़ी सी ढाकी (बड़ी टोकरी) जिसमें मान्यता के हिसाब से सूप (एक प्रकार से छोटी ढाकी) होती है. सभी सूप में बड़ा सा नारियल, हल्दी का पौधा, गन्ना, अदरक का पौधा, केला, ठकुआ आदि फल, सब्जियां होती है. घर के पुरुष इन सामानों को जुटाते हैं. यह पुरुषों की ही जिम्मेदारी होती है कि ढाकी में स्त्रियों के कपड़ों के साथ उसे सिर पर उठाकर घाट तक ले जाया जाए. जब स्त्री या पुरुष पानी में ठहरिया (ठहरकर पूजा करना) देते हैं तब पुरुष उनके कपड़े देते हैं. घाट पर किसी भी जाति को पूजा करने से रोकने का चलन नहीं है साथ ही मिथिला में कुछ मुसलमानों द्वारा भी इस पूजा को संपन्न किया जाता है. उनका मानना है कि यह प्रकृति की पूजा है.

मेरी मां भी इस पूजा को प्रकृति-पूजा ही कहती है. इसका अर्थ वह प्रकृति के साथ समाज के सभी मनुष्यों के हित से जोड़कर देखती है.

सिंदूर के संदर्भ में वह कहती है कि—‘ इस पर कोई जोर-जबरन नहीं है, कुछ तो नहीं भी लगाती हैं और इससे कोई दिक्कत नहीं है. यह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है.”

अगर यहाँ पर इच्छा पर निर्भरता गलत है तो मैत्रेयी जी के पक्ष में हमारे अच्छे कवि रविन्द्र कुमार दास अपनी पत्नी के सिंदूर लगाने पर यह क्यों जवाब देते हैं कि यह उसकी इच्छा पर निर्भर है. यदि वहां इच्छा का सम्मान है तो यहाँ भी इच्छा का सम्मान होना चाहिए. क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि अपने मन से यह अनुमान लगा लिया जाए कि वहां लाठी के दम पर सिंदूर पुतवाया जाता है.

एक महोदय ने जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के साथ बहस में लिखा कि – ‘मिथिला में सिंदूर का संबंध जातिगत मसला भी है. ऐसे कुतर्क और मनगढंत तर्कों की आवश्यकता क्या सिर्फ इसलिए नहीं है कि हमें सामने वाले को किसी तरह चुप कराना है. इसे मूर्खतापूर्ण विवरण कहते हुए ही आगे बढ़ा जा सकता है. फिर भी यह बतलाना जरुरी है कि वहां किसी भी जाति को सिंदूर लगाने का उतना ही हक़ मिला हुआ है जितना कि उच्च वर्ग की स्त्रियों को. इतना ही नहीं बल्कि बहुत से ऐसे भी उदहारण हैं जिसमें दलितों के शादी-ब्याह में वही ब्राह्मण रस्म-रिवाज पूर्ण कराते हैं जो ब्राहमणों के यहाँ भी कराते हैं.

मैं इससे यह साबित करने का प्रयास नहीं कर रहा हूँ कि मिथिला या बिहार में जातिवाद नहीं है. बिलकुल है, लेकिन जिन संदर्भों में नहीं है वहां दिल्ली में बैठे त्रिलोकियों को जबरन घोषणा करने से बाज आने की जरूरत है.

एक और उदहारण देना मैं जरुरी समझता हूँ.

हम लोग ब्राह्मण बहुल पंचायत से आते हैं. वहां जब मुस्लिमों का ताजिया निकलता था तब हमारी माताएं हमें दरवाजे पर खड़ा कर देती थीं. तजिया खेलने वाले हर दरवाजे पर रुकते और हमारे यहाँ के बच्चे-बूढ़े तजिया को प्रणाम करते. माताएं ताजिया वालों को घर से चावल, आलू, दाल जो भी बन पड़ता आस्था स्वरूप चढ़ातीं.

यह तो एक मसला हुआ अब दूसरा मसला है ‘बिहार’ का. बिहारियों के कान में भले जाकर आप कह दें कि तुम लोग बहुत मेहनती हो लेकिन सामाजिक स्तर पर लगभग हर जगह उसके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है.

‘बिहारी’ और ‘बिहारन’ लगभग समूचे देश में गाली का पर्यायवाची बना हुआ है. दिल्ली में तो शायद ही कोई भाग्यशाली बिहारी हो जिसने बिहारी होने के नाते माँ-बहन की गाली न सुनी हो. तो इतने गैर-जरूरी बिहारियों के लिए दिल्ली का स्त्रीवाद अचानक उसके सिंदूर पर अलख क्यों जगाने लगे यह समझ से परे है.

अभी भात मांगने वाली बच्ची भूखे मर गई. उसके गाँव वालों ने उसकी मां को पीट-पीट कर गाँव से निकाल दिया. बिहार में ही अन्न के अभाव में एक व्यक्ति की मौत हो गई. एक पूरा किसान परिवार अपने छोटे बच्चों समेत जलकर भस्म हो गया. एक गर्भवती दलित स्त्री को उच्च वर्ग द्वारा पीट-पीट कर मार दिया गया. लेकिन मैत्रेयी जी को दिखा तो सिर्फ सिंदूर. सिंदूर देखना कहीं से भी गलत नहीं है लेकिन आप एक ही समय में खून और सिंदूर में सिंदूर पर बात करना अधिक जायज समझते हैं तो इस चुनाव पर विचार करने की जरूरत है.

मैत्रेयी जी ने यह तो स्वीकार किया था कि – ‘स्त्रियाँ दलित नहीं होती, वे दलित स्त्रियाँ होती हैं’. भिन्न-भिन्न जातियों की महिलाओं के संदर्भ में सामूहिक रूप से यह तो स्वीकार किया गया था कि मुक्ति के क्षेत्र या समस्याओं से निजात की आवश्यकता समाज के सभी शोषित स्त्रियों की आवश्यकता को स्त्रीवाद महसूस करता है. फिर हत्याओं पर इतनी चुप्पी क्यों?

प्रभा खेतान जी के अनुसार – “जो दृष्टि नारी की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक छवि के तिलस्म को तोड़े, वह नारी चेतना है.”

संभव है कि सिंदूर पर बहस प्रभा जी के इसी मजबूत सैद्दांतिक बातों के आधार पर किया गया हो. लेकिन फिर भी लिखते-कहते वक़्त सरलीकरण से बचना चाहिए.

स्त्रीवादी होना और स्त्रीवाद में फ़र्क होता है ठीक वैसे ही जैसे मार्क्सवाद और मार्क्सवादी होने में होता है. जैसे मार्क्सवादियों की आलोचना और मार्क्सवाद की आलोचना दोनों में फर्क होता है, ठीक वैसे ही स्त्रीवाद की आलोचना और स्त्रीवादियों की आलोचना में बहुत बड़ा फर्क होता है.

समस्या यह है कि स्त्रीवादियों अर्थात उनके सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक नीतियों की आलोचना होते ही वे इसे संपूर्ण स्त्रीवाद की आलोचना और प्रायः स्त्रीवाद का विरोधी मान लेते हैं. मैं समझता हूँ यह सीमित धारणाएं हैं.

लगभग सभी पुरुष नारी-विरोधी होते हैं जैसी मान्यताएं ऐसे ही संकुचित व्याख्याओं से पैदा होती है. इसलिए राजकिशोर या राजेन्द्र यादव का विरोध भी अतार्किक ढंग से शुरू हो जाता है. संभव है कि एक पुरुष उस गहराई से स्त्री समस्याओं को नहीं देख सकता जितनी गहराई से स्वयं स्त्री देख सकती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं निकालना चाहिए कि कम गहराई से देख पाने वाले पुरुष स्त्री-विरोधी होते हैं.

बिना मेकअप के सेल्फी, आज बिना बिंदी के सेल्फी, या आज बिना बिछिया के सेल्फी और उसके अगले दिन से फिर इन साधनों या आभूषणों का प्रयोग क्या अर्थ देता है? क्या सोशल मीडिया पर ही कुछ महिलाओं ने यह नहीं कहा था कि अपनी इच्छा से करती हूँ और इसलिए मैं इसमें शामिल नहीं हो सकती?

अब यहाँ ठहरकर विचार करने की आवश्यकता है. क्या नारीवादी संघर्ष में इन महिलाओं की आवश्यकता नहीं है जो बिना मेकअप के सेल्फी नहीं लेती हैं? इसे ऐसे समझिए कि जब मार्क्सवादी धर्म को मानने वाले हिन्दुओं की निंदा कर उससे घृणा करते हैं तब क्या उस बड़ी भीड़ को जो धार्मिक तो है लेकिन सांप्रदायिक नहीं, उसे हिन्दुत्ववादी संगठनें अपनी चपेट में नहीं ले लेती हैं? और क्या इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं. क्या यह वजह नहीं है कि जहाँ एक ही मंदिर में मस्जिद भी है ऐसी जगहों पर सिर्फ धर्म के प्रति हमारी घृणा के कारण वहां आसानी से सांप्रदायिक शक्तियों का घुसपैठ शुरू हो जाता है और हम वहां तक पहुँच भी नहीं पाते?

जिस बचपन में हमने अपने दरवाजे पर तजिया और कीर्तन दोनों से आशीर्वाद लेना सीखा, क्या उसी समाज ने मेरे जैसे कई नौजवानों के ‘नास्तिक’ होने को स्वीकारा नहीं? मेरे द्वारा तहलका में ‘महादेव ढह चुके हैं’ जैसी घोषणाओं के बावजूद मुस्कुराकर अपनाने वाले लोग भी उसी मिथिला के धार्मिक लोग ही तो थे.

इसलिए सरलीकरण की प्रक्रिया से लोगों को तोडना बहुत आसन है और गंभीरता के साथ उन्हें जोड़ना कठिन है. हमें कठिन चुनाव से घबराना नहीं चाहिए.

समस्या यह है कि जहाँ इतने सौहार्द की बातें थी अब वहां की परिस्थितियां तेजी से टूट रही है. अब हिन्दू होने का अर्थ ‘गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं’ जैसी मान्यताओं के साथ और सांप्रदायिक राजनीति के कारण वातावरण में बदलाव आ रहा है. हमारी चर्चा के केंद्र में इस बदलते परिदृश्य पर विचार नहीं करने के सैंकड़ों नतीजे हम भुगत रहे हैं.

प्रतिवाद की भाषा हो या अंधविश्वासों को तोड़ने की भाषा या फिर उसका व्यावहारिक आधार इसका बार-बार मूल्यांकन जरूरी है.