नई दिल्ली। अब राम के नाम विध्वंसलीला पर सिनेमा असंभव, देख लें इसे तुरंत। खबर है कि सरकार सिनेमैटोग्राफ एक्ट में बदलाव करने जा रही है। हालांकि इस एक्ट में सुधार की मांग पहले भी उठती रही है, लेकिन मौजूदा समय में कहीं से इस प्रकार की मांग नहीं थी।
बताया जा रहा है कि टीवी चैनलों, केबल नेटवर्क के बढ़ते दायरे, नयी डिजिटल प्रौद्योगिकी के आगमन एवं पाइरेसी में बढोत्तरी तथा थियेटरों में लोगों की संख्या में कमी जैसे सिनेमा क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के मद्देनजर चलचित्र विधेयक में संशोधन किया जा रहा है। इस पर जल्द ही मंत्रिमंडलीय टिप्पणी प्रस्तुत की जायेगी।
सिनेमैटोग्राफ एक्ट में संभावित बदलाव पर वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास की त्वरित प्रतिक्रिया इस तरह है-
परसो मैंने आनंद पटवर्धन की फिल्म राम के नाम दोबारा देखी यूट्यूब पर। संघ परिवार की अनंत रामलीला समझने की दृष्टि से आज के नरसंहारी अश्वमेध समय में जब पेशावर में हुए नरसंहार के खिलाफ देशभर में मोमबत्ती जुलूस प्रतियोगिता है, असम के मारे गये बच्चों के लिए एक अदद मोमबत्ती भी नहीं है, तब इस फिल्म को देखे बिना हिंदुत्व के 2021 तक असम से जारी शत प्रतिशत हिंदूकरण मोहत्सव का असली खेल समझ में नहीं आयेगा।
गूगल पर यूट्यूब में तुरंत खोलेंः
Video for In the Name of God / Ram Ke Naam (1991) Documentary Film by Anand Patwardhan

More Information: https://en.wikipedia.org/wiki/Anand_P...
http://www.patwardhan.com/films/Ramke...
'In the Name of God' (Ram Ke Naam) - A film by Anand ...
Video for In the Name of God / Ram Ke Naam (1991) Documentary Film by Anand Patwardhan

सारा किस्सा उस कसम से शुरू होता है, सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनायेंगे।
सारा किस्सा कमंडल बना मंडल का है जो सामाजिक बदलाव को सिरे से असंभव बना देने के खेल है और बाबरी मस्जिद तोड़कर भव्य राममंदिर बनाने की जिद है। उस जिद को आनंद ने फ्रेम दर फ्रेम लेंस कैद कर दिया है।
इस फिल्म में सोमनाथ से संघ परिवार के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवानी की अपराजेय रथयात्रा है, जिसमें हिंदू साम्राज्यवाद के विजय अभियान का उद्घोष है और उसी का परिणाम हैं देश व्यापी दंगे, जो निरंतर अबाध पूंजी की तरह जारी हैं ।
और उसी का परिणाम है गुजरात नरसंहार और उसी का परिणाम है आदिवासियों के खिलाफ जारी सलवाजुड़ुम, जिसकी ताजा कड़ी असम में बच्चों का निर्मम नरसंहार है।
भारत में हिंदुत्व की सुनामी किसी नरेंद्र मोदी या किसी अमित साह ने शेयर बाजार की सांढ़सवारी करते हुए रच दी, ऐसी जिनकी धारणा है, वे इस फिल्म को जरूर देखें और लाकृष्ण आडवाणी की ऐतिहासिक भूमिका और मनुष्यता के विरुद्ध, प्रकृति के विरुद्ध, सभ्यता के विरुद्ध अक्षम्य उनका युद्ध अपराध को नये सिरे से याद करें।
संघ परिवार दरअसल अब भी इन्हीं लौहपुरुष की रामलीला है।
संघ परिवार के सिपाहसालार को खुल्ले में खेलने की इजाजत नहीं होती। उनके सारे ब्रह्मास्त्र भूमिगत हैं।
वे नश्वर प्राणियों को नेतृत्व का मंच देते हैं, जिनके डूबने से संघ परिवार की संस्थागत व्यवस्था में कोई हलचल होती नहीं है।
नरंद्र मोदी तो हिंदुत्व अश्वमेध का अश्व है, उसका प्राण नहीं।
प्राण तो आडवाणी में बसा है।
चेहरा वाजपेयी है, जो भारत रत्न है।
मरोणापरांत जाकर कहीं, मदन मोहन मालवीय के कृतित्व और व्यक्तित्व का महिमामंडन हुआ है।
वैसे ही वीर सावरकर और नाथूराम गोडसे का किस्सा है।
हम जो समझते हैं कि आडवाणी का किस्सा खत्म है और वे हाशिये पर हैं, यह सरासर गलत है वे अब भी संघ परिवार के अचूक ब्रह्मास्त्र हैं जो फिलहाल भूमिगत है।
उस दुस्समय का सिलसिला जारी है। हिंदुत्व के झंडेवरदार जुनूनी लोग विधर्मियों की क्या कहें, मनुष्यता के भूगोल पर हिंदू आबादी को सबसे ज्यादा खतरे में डाल रही है।
प्रतिरोध के सिनेमा आंदोलन के साथियों से निवेदन है कि इस फिल्म को गली गली मोहल्ला दिखाने का जुगाड़ करें।
अब ऐसी फिल्में बनेगी नहीं।

आखिर सेंसर बोर्ड है क्या
सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन, जिसे सेंसर बोर्ड या CBFC भी कहा जाता है, भारतीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की संवैधानिक बॉडी है। ये संस्था 1952 के सिनेमेटोग्राफ एक्ट के तहत फिल्मों के प्रसारण पर नजर रखती है। भारत में सेंसर बोर्ड को दिखाए बिना कोई भी फिल्म आम दर्शकों के लिए रिलीज नहीं की जा सकती है। फिल्म को रिलीज करने से पहले सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट लेना जरूरी होता है।
ऐसे हुआ सेंसर बोर्ड का गठन
भारत में पहली फिल्म (राजा हरीशचंद्र) 1913 में बनी। इसके बाद इंडियन सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1920 में बना और तभी लागू हुआ। तब मद्रास (अब चेन्नई), बॉम्बे (अब मुंबई ), कलकत्ता (अब कोलकाता), लाहौर (अब पाकिस्तान में) और रंगून (अब यांगून, बर्मा में) सेंसर बोर्ड पुलिस चीफ के अंडर में था। पहले क्षेत्रीय सेंसर्स स्वतंत्र थे। स्वतंत्रता के बाद क्षेत्रीय सेंसर्स को बॉम्बे बोर्ड ऑफ़ फिल्म सेंसर्स के अंडर लाया गया। सिनेमेटोग्राफ एक्ट, 1952 लागू होने के बाद बोर्ड का 'सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फिल्म सेंसर्स' के नाम से पुनर्गठन हुआ। 1983 में एक्ट में कुछ बदलाव के बाद इस संस्था का नाम 'सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फिल्म सर्टिफिकेशन' रखा गया।