सिनेमा के अर्थ शास्त्र और समाजशास्त्र का गणित
सिनेमा के अर्थ शास्त्र और समाजशास्त्र का गणित
जुगनू शारदेय
सिनेमा का दो ही शास्त्र होता है - अर्थ शास्त्र और समाजशास्त्र । कायदे से इसमें सौंदर्य शास्त्र भी होना चाहिए । हिंदी सिनेमा में यह न जाने कब का ख़त्म हो चुका है । लेकिन तकनीक शास्त्र आ चुका है । यह और बात है कि उसमें भी हम अमरीकी फ़िल्मों से बीस साल पीछे हैं । लेकिन कथावस्तु के नज़रिये से हम हिंदी सिनेमा के मां शास्त्र से मुक्त हो चुके हैं । यह और बात है कि 2011 की दस प्रामाणिक सफल फ़िल्मों में मां उस रूप में नहीं दिखती जिस शक्ल में उस महान संवाद मेरे पास मां है के रूप में दिखती थी । यह एक अजीब सा तथ्य है कि हिंदी सिनेमा में मां वाद के बल पर नायकत्व प्राप्त करने वाले अमिताभ बच्चन की कोई भी पिक्चर साल की बड़ी दस फ़िल्मों में नहीं है । लेकिन उनकी लोकप्रियता कौन बनेगा करोड़पति के बहाने बनी हुई है ।
सिनेमा और राजनति - दोनों जनता से चलती है । एक अर्थ में सिनेमा और राजनीति जनता मां की सगी सी सौतेली बेटिया हैं । राजनीति विचार का काम करती थी । राजनीति ने इसे बंद कर दिया है । विचारहीन राजनीति तरह तरह का मनोरंजन भी हो गयी है । लेकिन हम उन पर चर्चा का काम सिनेमा के बहाने न करें । लेकिन सिनेमा में मनोरंजन की तलाश करें । ज़ाहिर है जिस फ़िल्म की ज़्यादा कमाई हुई होगी , वह ज़्यादा मनोरंजक फ़िल्म होगी । इस साल की दस बड़ी फ़िल्मों - कमाई के नज़रिये से है बॉडीगार्ड । अनुमान है कि इसने लगभग 229 करोड़ का कारोबार किया है । यह इस देश की जनता की पहली पसंद है । अगर यही जनता की पहली पसंद है तो बहुत साफ़ है कि जनता को सिनेमा में किसी किस्म का समाजशास्त्र या सौंदर्य शास्त्र नहीं चाहिए । दूसरी पसंद है लगभग 200 करोड़ के कारोबार के साथ रा.वन । इसमें जिस तकनीक की चर्चा की गयी वह भी बहुत पुरानी और बचकानी तकनीक रही है । तीसरी पसंद भी वैसी ही है रेडी -कारोबार करीब 179 करोड़ । लेकिन चौथी पिक्चर जिंदगी ना मिलेगी दोबारा का अपना समाजशास्त्र है । कुछ कुछ वैसा ही समाजशास्त्र जो इंडिया के अर्थशास्त्र से बना है । इसमें दोस्ती की व्याख्या तो हो गयी लेकिन पिता - पुत्र के संबंधों को सिर्फ़ छुआ गया । ज़्यादा गहराई से छुने की कोशिश की जाती तो पूरी पटकथा में झोल आ जाता । पांचवीं बड़े कारोबार वाली पिक्चर है सिंघम् -कारोबार करीब 139 करोड़ रुपये ।
यहां एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि बॉडीगार्ड - रेडी और सिंघम् दक्षिण भारतीय भाषा में बनी फ़िल्मों का हिंदीकरण था । जबकि रा.वन अमरीकी पिक्चरों का भारतीयकरण है । लेकिन इसके बाद की फ़िल्में खांटी हिंदी सिनेमा है नहीं हैं । सिर्फ एक खांटी सिनेमा है । इसीलिए कारोबारी नज़रिये से नंबर दस पर है । मज़े की बात यह भी है कि उनमें से एक में मां भी है । इस रूप में बेटा अपने पिता की तलाश अपनी मां के लिए करता है । यह पिक्चर है यमला पगला दीवाना । कारोबार लगभग 97 करोड़ । बिना मारपीट के और शुद्ध मनोरंजन वाली फ़िल्म साबित होती है मेरे ब्रदर की दुलहन । इसका भी कारोबार करीब 94 करोड़ रूपये का हुआ ।
लेकिन द डर्टी पिक्चर और रॉक स्टार - दोनों अर्थ शास्त्र , समाजशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र के दृष्टिकोण से उन फ़िल्मों में से है जिन पर चलते चलते टाइमपास बहस की जा सकती है । द डर्टी पिक्चर के बारे में अनुमान है कि करीब 110 करोड़ का कारोबार करेगी और रॉक स्टार का 107 करोड़ का कारोबार हो चुका है ।
रॉक स्टार पुरूष या युवा प्रधान फ़िल्म है । द डर्टी पिक्चर स्त्री प्रधान नहीं युवती प्रधान फ़िल्म है । दोनों में एक समानता है कि दोनों सपने देखते हैं । दोनो का सपना ग्लैमर से जुड़ा है । दोनो में एक ज़िद है । इसी ज़िद की वजह से इन पिक्चरों का अर्थशास्त्र , समाजशास्त्र और सौंदर्य़शास्त्र जनमता है । एक अजीब सी समानता यह भी है कि दोनों यानी सिल्क और जनार्दन के जीवन में कोई जामवंत भी है । सिल्क को कोई फिल्म निर्माता समझाता है कि अपना सब कुछ दे दो अपने सपनों के लिए । वह देती है । उसके बाद उसके साथ वही होता है जो किसी भी नारी के संपूर्ण समर्पण के बाद होता है । यही नारी का समाजशास्त्र है । आम तौर पर नारी अपने जीवन से जब हार जाती है तो वह अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आत्महत्या कर लेती है । द डर्टी पिक्चर की सिल्क की प्रेरणा जिस सिल्क स्मिता से ली गयी है , उसने भी आत्महत्या की थी । मान लीजिए कि द डर्टी पिक्चर की सिल्क आत्महत्या नहीं करती । यहां यह साबित हो चुका है कि सब कुछ होने के बाद एक संवेदनशील पुरूष अब्राहम उससे प्यार करने लगा है । सिल्क उसके प्यार को क्यों नहीं समझ पायी । या समझने के बाद उसने अपने सम्मान की रक्षा के लिए मरना ज़रूरी समझा । इसी के साथ सवाल पैदा होता है कि द डर्टी पिक्चर की सफलता के पीछे का कारण क्या है । एक और मज़ेदार तथ्य यह भी है कि द डर्टी पिक्चर और रॉक स्टार का दर्शक वर्ग युवा समुदाय ही है । क्या इसके पीछे की वजह सपना है । सपनों के मामले में आज का युवा समुदाय बीसवीं सदी के युवा समुदाय से बहुत आगे है । इसी सपने को रॉक स्टार में देखा जाता है । ज़रा सोचिये एक युवा का सपना कि फलां अपनी बीच वाली अंगुली दिखा कर दुनिया को दीवाना बनाता था । कोई जामवंत इसे समझाता है कि बड़ा बनने के लिए दिल टूटना जरूरी है । युवा भी अपना घर बार छोड़ कर अपना दिल तोड़ना चाहता है । एक पूरा प्रेमात्मक सौंदर्यशास्त्र बनता है उसका दिल तोड़ने की प्रक्रिया । वैसा सौंदर्य शास्त्र द डर्टी पिक्चर में नहीं बन पाता । उसमें हर चीज़ में एक सतहीपन है । सिर्फ खांटी है तो औरत की महत्वकांक्षा और देह और दैहिक आकर्षण के बल पर कुछ भी खरीदने की भावना । जबकि रॉक स्टार में जनार्दन से जॉर्डन बनना लक्ष्य नहीं है । लक्ष्य हो जाता है प्यार । उसका समाजशास्त्रीय कारण भी दिखता है कि सब कुछ पाने के लिए जनार्दन जब सूफ़ियाना रंग में रंगता है तो उसके ऊपर आशिक - महबूब का सूफियाना रंग ऊपरी तौर पर ही चढ़ता है । जनार्दन तक तो वह जंगली जवानी की दुनिया में था । लेकिन जार्डन बन जाने के बाद वहीं पहुंच जाता है जहां सिल्क पहुंच जाती है - अपने आप से ही प्यार करना ।
आज की युवा पीढ़ी का एक सच अपने आप से प्यार करना भी है । लेकिन आत्म आसक्ति से अलग है देहली बेली । यहां कोई किसी से प्यार नहीं करता । सिर्फ दोस्ती निभाते हैं । यह कहना भी मुश्किल है कि पश्चिम ने कॉमेडी की तरह तरह की जो परिभाषा या व्याख्या की है , उसमें से यह किसके खांचे में बैठती है । यह पिक्चर बनी भी है अंग्रेजी में है । हमारा शहरी और आभिजात्य वर्ग जिस किस्म कामचलाऊ हिंदी बोलता है - वैसी ही हिंदी इस फिल्म में है । कहानी में कोई महानता नहीं है - सिर्फ रोजमर्रा की जिंदगी की उलटबांसी वाला हेरफेर है । लेकिन इसका कारोबार बताता है कि महानगरीय युवा अपने बल पर कैसे लगभग 92 करोड़ रुपये का कारोबार करा देता है । सच पूछिये तो अर्थशास्त्र की दृष्टि से हमारी यानी हिंदी सिनेमा अभी दक्षिण की फ़िल्मों पर आधारित है । समाजशास्त्र के नजरिये से उन फ़िल्मकारों के बल पर चल रहा है जो अपने ढंग से अपने सिनेमा की भाषा और परिभाषा गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं । इसमें कुछ दुर्घटना भी हो जाती है और 2011 की सबसे बड़ी फिल्मी हादसा है साहिब , बीबी और गैंगस्टर की लोकप्रियता के स्तर पर अस्वीकृति ।


