संस्कृत मंत्र की तरह है अंबेडकर साहित्य, जिसका उच्चारण जनेऊधारी द्विज ही कर सकते हैं
क्या बाबासाहेब की विरासत सिर्फ उन्हीं की है जो बहुजनों का कॉरपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं ?
बहुजन साहित्य और बहुजन आंदोलन के तौर तरीके ब्राह्मणवादी होते गये हैं
पलाश विश्वास
जो बहुजनों का कॉरपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं, क्या बाबासाहेब की विरासत सिर्फ उन्हीं की है?
अनिता भारती जी हमारी अत्यन्त आदरणीया लेखिका हैं, जातिभेद के उच्छेद विषय पर अरुंधति के लिखने पर उन्हें सख्त एतराज है। अनिता जी का सवाल है कि

सवाल यह नही कि अरुंधति क्यों लिख रही हैं, और अभी ही क्यों लिख रही हैं जबकि जातिभेद के उच्छेद पर दिया गया भाषण जो की बाद में एक पुस्तक के रूप में बहुत पहले आ चुका है। इस पर वर्षों से चर्चा होती रही है। तमाम साथी जो बाबासाहेब को पढना शुरू करते हैं, सबसे पहले यही किताब पढते हैं। अरुंधति के इस पुस्तक को कोट करने या इस पर लिखने से यह किताब ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो गई है। यहाँ यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि क्या जैसे कि अधिकाँश अति प्रगतिशील बुद्धिजीवी अम्बेडकर के बरक्स गांधी और मार्क्स को, और उनकी विचाधारा को कहीं अधिक व्यावहारिक, लोकप्रिय, प्रभावशाली, निष्पक्ष, सैद्धांतिक, उपचारपरक, समाधान करने वाली सिद्ध करते रहे हैं, क्या अरुंधति ने भी वैसा ही दिखाया है या साबित किया है। क्योंकि दलित, भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा दूध के जले हैं इसलिये छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीते हैं। आशीष नंदी और योगेन्द्र यादव इसके ताजा तरीन उदाहरण हैं। वैसे मेरा भी एक सवाल है अरुंधति से। जब-तब इस देश में दलितों पर जुल्मोसितम की बाढ़ आई रहती है, वे इस पर कब-कब बोली हैं या उन्होंने कितनी बार दलितों की बस्ती का दौरा किया है?

इस पर मेरा यह जवाब है-
अनिता जी, मालूम नहीं, अरुंधति इस पर क्या जवाब देंगी। लेकिन दलित बस्तियों में नीला झंडा उठाये लोगों ने बाबासाहेब का एजेण्डा का जो हश्र किया और जाति व्यवस्था बहाल रखने वाली मुक्त बाजारी धर्मोन्मादी हिन्दुत्व में जो ब्रांडेड फौज स‌माहित हो गयी है, तो राज्यतन्त्र को स‌मझ लेने में कोई हर्ज नहीं है। फिलहाल राज्यतन्त्र को विश्लेषित करने में अरुंधति का कोई जवाब नहीं है। फिर मुक्त बाजारी जायनवादी उत्तर आधुनिक मनुव्यवस्था की बहाली के लिये जब शासक वर्णवर्चस्वी तबका अस्पृश्यों को अपना स‌िपाहसालार बनाने को तत्पर है, तो अरुंधति जैसी स‌क्षम विश्लेषक को स‌िरे स‌े खारिज करके हम कोई बुद्धिमत्ता नहीं दिखायेंगे। हमारे जो मलाईदार लोग हैं, आरक्षण स‌मृद्ध नवधनाढ्य वे कितनी बार स‌त्ता हैसियत छोड़कर अपने लोगों के बीच जाते रहे हैं, इसका भी हिसाब होना चाहिए।
आपके इस मंतव्य स‌े मैं स‌िरे स‌े असहमत हूँ क्योंकि हम मौजूदा तन्त्र को तोड़ने के लिये धर्मोन्मादी स‌त्ता के स‌मरस स‌मागम के प्रतिरोध के लिये स‌मावेशी बहुसंख्य गठजोड़ का पक्षधर हूँ।
अस्मिता राजनीति के लोग तो अब स‌ुपारी किलर हो गये हैं जो कॉरपोरेटवधस्थल में बहुसंख्यआबादी जिनमें बहिष्कृत मूक जनगण ही हैं,के नरसंहार हेतु पुरोहिती स‌ुपारी किलर बन गये। मसीहों और दूल्हों की स‌वारी स‌े अब कोई उम्मीद किये बिना इस पूरे तन्त्र को नये स‌िरे स‌े स‌मझने की जरूरत है। अंबेडकर को तो मूर्ति बना दिया गया है, उनमें नये स‌िरे स‌े प्राण प्रतिष्ठा की जरुरत है।
अनिता जी मैं आपके इस मंतव्य पर एक संवाद चाहता हूँ ताकि हम लोग इस बारे में स‌िलसिलेवार बतिया लें। उम्मीद हैं कि न स‌िर्फ आप अपना पक्ष और खुलकर लिखेंगी बल्कि दूसरों के मतामत पर लोकतांत्रिक तरीके स‌े गौर करेंगी।
अरुंधति की बात क्या करें, हमारे लोग तो बाबासाहेब के परिजनों में से एक अंबेडकरी आंदोलन के वस्तुवादी अध्येता और चिंतक आनंद तेलतुंबड़े को भी कम्युनिस्ट कहकर गरियाते हैं। क्योंकि वे अंबेडकर की प्रासंगिकता बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं और दुकानदार प्रजाति के लोग तो अंबेडकरी आंदोलन का बतौर एटीएम इस्तेमाल जो कर रहे हैं सो कर रहे हैं, अंबेडकरी साहित्यकों भी मरी हुई मछलियों की तरह हिमघर में बंद कर देना चाहते हैं। लोग कुछ अपढ़, अधपढ़ लोग, जिनकी एकमात्र पहचान जाति है और खास विशेषता पुरखों के नाम का अखंड जाप, ऐसे लोगों के बाजारू फतवेबाज टॉर्च की रोशनी में अंबेडकर का अध्ययन हो, तो हो गयी क्रांति।
अगर मार्क्सवाद के सिद्धांतकार कार्ल मार्क्स, रूसी क्रांति के महानायकों लेनिन स्तालिन, चीनी जनक्रांति के नेता माओ या फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धांतकार हाब्स लाक रुसो, अश्वेत क्रांति के नायकों के साहित्य और उन पर आधारित आंदोलनों पर ऐसा फतवा लागू होता तो पूरी दुनिया पर तो क्या, उनके अपने देश में भी कोई असर नहीं होता।
सम्राट अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री को गौतम बुद्ध के विचारों के प्रचारक बतौर विश्वयात्रा पर भेजा था, इसीलिये प्रतिक्रांति के जरिये बौद्धमय भारतवर्ष के अवसान के बाद भी दुनिया भर में गौतम बुद्ध के विचारों की विजयपताका लहरा रही है आज भी।
गौतम बुद्ध की रक्तहीन क्रांति में कौन सी अस्मिता काम कर रही थी और उसकी क्या वर्गचेतना रही है, इस पर विद्वतजन शोध करके हमें आलोकित करें तो बेहतर।
विचार हमेशा संक्रामक होते हैं। अगर अंबेडकर विचारधारा में आस्था है तो अंबेडकर विचारधारा और उनके साहित्य पर सभी समुदायों, सभी देशों में विमर्श चलें तो अनिता जी जैसी सक्षम लेखिका को ऐतराज क्यों होना चाहिए।
देश में जो लोग कॉरपोरेट राज चला रहे हैं, उनके सिद्धांतकारों के खिलाफ क्यों नहीं हमारे लोग फतवा जारी करते कि अमर्त्यसेन भुखमरी पर शोध कैसे कर सकते हैं या मोंटेक सिंह आहलूवालिया या तेंदुलकर गरीबी रेखा कैसे परिभाषित कर सकते हैं।
बहुजन साहित्य और बहुजन आंदोलन के तौर तरीके ब्राह्मणवादी होते गये हैं, क्यों कि हम भी शुद्ध अशुद्ध जिसपर सारी नस्ली बंदोब्सत तय है, उसीको उन्हीं की शैली अपनाकर खुद को शुद्ध साबित करके नव पुरोहित बनते जा रहे हैं।
बहुजनों में विमर्श अनुपस्थित है और कोई संवाद नहीं है क्योंकि पहले से ही आप तय कर लेते हैं कि कौन दलित हैं, कौन दलित नहीं है, कौन ओबीसी है कौन ओबीसी नहीं है। फिर त्थ्य विश्लेषण करने से पहले आप सीधे किसी को भी ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल या फिर कम्युनिस्ट, वामपंथी या माओवादी डिक्लेअर कर देते हैं।
सत्ता वर्ग के लोग ऐसी गलती हरगिज नहीं करते हैं और हर पक्ष को आत्मसात करके ही उनकी सत्ता चलती है। देख लीजिये, हिन्दू साम्राज्य के राजप्रासाद की ईंटों की शक्लों की कृपया शिनाख्त कर लें।
हमारे लोग दूसरे पक्ष को सुनेंगे नहीं, पढ़ेंगे नहीं, तो बहुजन साहित्य के नाम पर कोई भी अपने-अपने प्रवचन को पुस्तकाकार छाप बाँटकर जो मसीहागिरि का कारोबार खोल रखा है, उसकी असलियत का पता भी नहीं चलेगा। अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन पर सही संवाद में सबसे बड़ी बाधा यही है कि हर ब्राण्ड के हर दुकानदार ने अपना अपना अंबेडकर छाप दिया है। हर ब्राण्ड का अंबेडकर बिकाऊ है। और असली अंबेडकर बाकायदा निषिद्ध धर्मस्थल है और अंबेडकर विमर्श गुप्त तांत्रिक क्रिया है और इस विद्या के अधिकारी बहुजन भी नहीं है। संस्कृत मंत्र की तरह है अंबेडकर साहित्य, जिसका उच्चारण जनेऊधारी द्विज ही कर सकते हैं।
वैदिकी पवित्र ग्रंथ पढ़ने पर शूद्रों के कानों में शीशा तोप देने का वैदिकी रिवाज रहा है तो क्यागैरबहुजन अबेडकर विमर्श में सामिल होने की जुर्रत करें तो उनके खिलाफ भी हिन्दुत्ववादियों के राम मंदिर आंदोलन की तर्ज पर इतिहास का बदला ले लिया जाये।
मैंने अंबेडकरी आंदोलन पर अरुंधति का लिखा पढ़ा है और उसे बेहद विचारोत्तेजक माना है। लेकिन उस पर जो सवाल जवाब हो रहे हैं, वे अरुंधति की पहचान पर केंद्रित हैं, न मुद्दों पर, न देश काल परिस्थिति पर और न ही अंबेडकरी विचार और आंदोलन पर। यह अत्यंत दुर्भाग्यजनक है।
वाम आंदोलन में भले ही नेतृत्व शासक जातियों का है, लेकिन वहाँ भी पैदल सेना हमारे लोग ही जैसे भगवा वाहिनी की बनावट है, वैसी ही लालसेना है।
नीले रंग की मिलावट की जाँच भी तो होनी चाहिए। वरना बार-बार बहुजन हाथी गणेश बनता रहेगा और आपके महाजन हिन्दुत्व के खंभे बनते चले जायेंगे।
जाति उन्मूलन के एजेण्डे पर बहस चलने की बात करती हैं आप। तो बहस होने क्यों नहीं देती। बहस हो चुकी है तो जाति उन्मूलन एजेण्डा का ताजा स्टेटस क्या है?
अगर बहुजन राजनीति जाति उन्मूलन के एजेण्डे को ही लागू कर रही है तो जाति अस्मिता को केंद्रित क्यों हैं वह तो क्या जाति उन्मूलन के एजेण्डे पर बहस हो ही नहीं सकती? अंततः अंबेडकर साहित्य भारतीय जनगण की अमूल्य धरोहर है क्योंकि इस लोक गणराज्य के संविधान के निर्माता भी बाबा साहेब हैं। इस हिसाब से तो देखें तो अंबेडकर साहित्य पर बारत के हर नागरिक का समान अधिकार है।
अगर कोई भी वामपंथ और संघ परिवार की विचारधारा और दुनियाभर के दर्शन, गांधीवाद, समाजवाद, लोहियावाद पर विचार कर सकता है, मंतव्य कर सकता है और उनको ऐतराज भी नहीं होता तो बाबासाहेब के आंदोलन और उनके साहित्य का ठेका तय करके निषिद्ध धर्मस्थल में बाबा साहेब की मूर्ति की रस्मी पूजा से हमारे लोग आखिरकार केसके हित साध रहें हैं, इसपर आत्मालोचना बेहद जरूरी है।
बहुजन राजनीति कुल मिलाकर आरक्षण बचाओ राजनीति रही है अब तक।
वह आरक्षण जो अबाध आर्थिक जनसंहार की नीतियों, निरंकुश कॉरपोरेट राज, निजीकरण, ग्लोबीकरण और विनिवेश, ठेके पर नौकरी की वजह से अब सिरे से गैरप्रासंगिक है।
आरक्षण की यह राजनीति जो खुद मौकापरस्त और वर्चस्ववादी है और बहुजनों में जाति व्यवस्था को बहाल रखने में सबसे कामयाब औजार भी है,अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजेण्डे को हाशिये पर रखकर सत्ता नीति अपनी अपनी जाति को मजबूत बनाने लगी है।
अनुसूचित जनजातियों में एक दो आदिवासी समुदायों के अलावा समूचे आदिवासी समूह को कोई फायदा हुआ हो,ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता। संथाल औऱ भील जैसे अति परिचित आदिवासी जातियों को देशभर में सर्वत्र आरक्षण नहीं मिलता।
अनेक आदिवासी जातियों को आदिवासी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ में ही आरक्षण नहीं मिला है।
इसी तरह अनेक दलित और पिछड़ी जातियां आरक्षण से बाहर हैं।
जिस नमोशूद्र जाति को अंबेडकर को संविधान सभा में चुनने के लिये भारत विभाजन का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ा और उनकी राजनीतिक शक्ति खत्म करने के लिये बतौर शरणार्थी पूरे देश में छिड़क दिया गया,उन्हें बंगाल और उड़ीशा के अलावा कहीं आरक्षण नहीं मिला। मुलायम ने उन्हें उत्तरप्रदेश में आरक्षण दिलाने का प्रस्ताव किया तो बहन मायावती ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया और अखिलेश ने नया प्रस्ताव ही नहीं भेजा।उत्तराखंड में उन्हें शैक्षणिक आरक्षण मिला तो नौकरी में नहीं और न ही उन्हें वहाँ राजनीति आरक्षण मिला है।
जिन जातियों की सामाजिक राजनीतिक आर्थिक स्थिति आरक्षण से समृद्ध हुई वे दूसरी वंचित जाति को आरक्षण का फायदा देना ही नहीं चाहतीं।
मजबूत जातियों की आरक्षण की यह राजनीति यथास्थिति को बनाये रखने की राजनीति है, जो आजादी की लड़ाई में तब्दील हो भी नहीं सकती। इसलिये बुनियादी मुद्दों पर वंचितों को संबोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति के झंडेवरदार,ब्रांडेड ग्लोबीकरण समर्थक बुद्धिजीवी और आरक्षणसमृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं। लेकिन बहुजन समाज उन्हींके नेतृत्व में चल रहा है।
हमने निजी तौर पर देश भर में बहुजन समाज के अलग अलग समुदायों के बीच जाकर उनको उनके मुहावरे में संबोधित करने का निरंतर प्रयास किया है और ज्यादातर आर्थिक मुद्दों पर ही उनसे संवाद किया है, लेकिन हमें हमेशा इस सीमा का ख्याल रखना पड़ा है। वैसे ही मुख्यधारा के समाज और राजनीति ने भी आरक्षण से इतर बाकी मुद्दों पर उन्हें अबतक किसी ने संबोधित ही नहीं किया है।
जाहिर है कि जानकारी के हर माध्यम से वंचित बाकी मुद्दों पर बहुजनों की दिलचस्पी है नहीं, न उसको समझने की शिक्षा उन्हें है और बहुजन बुद्धिजीवी,उनके मसीहा और बहुजन राजनीति के तमाम दूल्हे मुक्त बाजार के कॉरपोरेट जायनवादी धर्मोन्मादी महाविनाश को ही स्वर्णयुग मानते हैं और इस सिलसिले में उन्होंने वंचितों का ब्रेनवाश किया हुआ है।
बाकी मुद्दों पर बात करें तो वे सीधे आपको ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल और यहाँ तक कि कॉरपोरेटएजेंट तक कहकर आपका सामाजिक बहिस्कार कर देंगे। अरुंधति का लिखा समझने की तकलीफ उठाने को भी तैयार नहीं हो सकते बहुजन पढ़े लिखे लोग।
(इस लेख को पढ़ने के बाद इस लेख https://www.hastakshep.com/oldintervention-hastakshep/बहस/2014/01/07/अस्पृश्यता-के-बजाय-बड़ा-म को भी पढ़ें, सहायक होगा)
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।